Sunday, October 3, 2010

रोइए...कि आप नर्क में हैं

( किस्त चार )


यह वक़्त न पुरानी बातों को याद करने का है और न मन में किसी प्रकार की कड़वाहट घोलने का...पर दुःख के समय कुछ बातें जरूर पीड़ा देती हैं , जिसे कह देने से मन हल्का होता है...। हर आदमी यह जानता है कि एक न एक दिन उसे भी इस संसार से विदा होना है पर बावजूद इसके नफ़रत , द्वेष , बदले की भावना , कटुता और जलन आदि को अपने भीतर से नहीं निकाल पाता...। इन सब बुराइयों का कारण है - स्वार्थ...। अपना काम सधना चाहिए , बाकी दुनिया जाए भाड़ में...। स्वार्थ की इस भावना ने ही हर पेशे को प्रभावित किया है...। इसी के कारण चारो तरफ़ प्रलय सी है...। आदमी की ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ रही है, पर परवाह किसी को नहीं...। हर आदमी ज्यादा से ज्यादा पैसे कमा कर सुख भोग लेना चाहता है...। इस प्रक्रिया में भले ही दूसरों को पीड़ा पहुँचती हो , उसकी जान पर बन आती हो , कोई परवाह नहीं...बस अपनी ज़िन्दगी ऐशगाह में बीतनी चाहिए...।
ढेरों लोग जो बौद्धिकता का शानदार मुखौटा पहने हुए हैं , इससे अछूते नहीं हैं...बल्कि मैं तो कहूँगी कि उनमें आम आदमियों से ज्यादा स्वार्थ भरा हुआ है । जब तक आपके पास देने को बहुत कुछ है , भीड़ आपके साथ है पर जहाँ आप अपने स्तर पर थोड़ा भी खामोश हुए , भीड़ कब छँट जाएगी , आपको पता भी नहीं चलेगा...। जो कुछ भी आपने सार्थक किया था , कमज़ोर पड़ते ही सब निरर्थक हो जाएगा...। सोचती हूँ कि काश ! दुनिया ऐसी न होती...।
और रिश्ते...? कुछ रिश्तों पर हमें बड़ा नाज़ होता है क्योंकि वे रिश्ते हमारे खून में घुले-मिले होते हैं पर सच तो यही है कि खून भी कभी-कभी पानी सरीखा हो जाता है...। साफ़ नहीं , गंदला पानी...।
मिर्ज़ापुर में रहने वाली अपनी सबसे बड़ी बहन के चारों बच्चों के लिए रात-रात भर जाग कर जब स्नेह छोटी बहन माया के साथ मिल कर स्वेटर बुनती थी , उनके लिए जगह-जगह से ढूँढ-ढूँढ कर उपहार खरीदती थी या अपनी देने की प्रवृति के चलते नौकर-चाकर या आसपास के ग़रीबों के लिए कुछ करती थी , तो उसकी ज़ुबान पर बस एक ही वाक्य होता था ," इन सब के प्यार और आशीर्वाद में बहुत ताकत होती है...। मुझसे पाकर ये सब मुझ पर ही तो प्यार लुटाते हैं...।" पैसा , रुपया , कपड़ा पाने के बाद उस पर जो प्यार लुटता था , भोली और कुछ मायनों में बेवकूफ़ स्नेह उसे निस्वार्थ प्यार समझ बैठी थी , पर बुरे वक़्त में जब वह अशक्त हो गई तो अपने परिवार के प्यार और सहयोग के सिवा उसके पास कुछ भी नहीं था ।
उसने मेरी समझ में कोई ऐसा जघन्य पाप नहीं किया था , तो ऐसी लड़की को , कुछ महीनों की ही सही , नर्क की पीड़ा मिली ही क्यों ?
यह सवाल मेरा ईश्वर से भी है...अपने पौराणिक ग्रन्थों से है...उन सरकारी अस्पतालों से है और है उन धन-लोलुप इन्सानों से , जिन्होंने नर्क को इस धरती पर उतार दिया है और मेरे उस विश्वास को और मजबूत कर दिया है कि मरने के बाद न तो कोई स्वर्ग जाता है और न नर्क...। वह दोनो तो यहीं हैं...इसी धरती पर हैं...हम सब का बनाया हुआ...।
यह नर्क सदियों से यहीं था । बाकी उन्नतियों के साथ हम उसे भी उन्नत करते चले गए...। फल , अन्न , जल , हवा...यहाँ तक कि जीवन शैली में भी हम ज़हर भरते गए । यह ज़हर हमें किसी दिन तो तड़पाएगा...ज़हर देने वाले को भी और अनजाने ही ज़हर खाने वाले को भी...। अस्पताल चाहे सरकारी हो चाहे प्राइवेट...यहाँ रसूख वाले सुख की नींद सोते हैं , महंगा इलाज करा कर मौत के जबड़े से निकल आते हैं और इससे भी बड़ी बात...ईश्वर भी उनकी गुहार सुन लेता है...। अगर ऐसा न होता तो लाचार अक्सर उसकी अदालत से मायूस होकर क्यों लौटते ? क्या वहाँ भी कोई दमदार वकील चाहिए जिरह करने के लिए ?
हमारे पास दमदार वकील नहीं था । ग़लत ढंग से उगाई गई ताकत नहीं थी...और वह रसूख़ नहीं था जो लखनऊ के पी.जी.आई के डाक्टरों को प्रभावित करता और शायद इसी लिए मेरी आवाज़ न " ईश्वर (?)" तक पहुँची और न " यमों (?)" तक ...दोनो ने मेरी बहन की ज़िन्दगी ख़त्म कर दी...।
यद्यपि धरती के नर्क को मैने बहुत पास से देखा है , उसे उर्सला या हैलट जैसे अस्पतालों में जनरल वार्ड के बेड पर लाचार पड़े मरीजों और उनके तीमारदारों की आँखों में देख कर महसूस किया है पर पता नहीं था कि वह ‘नर्क’ जिसे देख कर मैं सिहर उठी थी , कभी मेरे इतने करीब आ जाएगा कि उससे पीछा छुड़ाने का कोई ‘आप्शन’ ही नहीं रहेगा मेरे पास...।
हम सब अनजान थे आगम से...। जिस दिन स्नेह गिरी , नर्क उसके पास आ गया था ( जो भी कभी दुर्घटनाग्रस्त होता है या हो चुका है , उसके पास इस नर्क का अनुभव इफ़रात में है )। नहाने-धोने से लेकर पूरी दिनचर्या बिताने में कष्ट ही कष्ट तो था , पर जीवट की थी वह...ऐसे कष्ट में भी दूसरों को सुख देने की कामना...?
परिवार के सदस्यों से लेकर नौकर-चाकर को खाना मिला कि नहीं , इसकी चिन्ता करना , मना करने के बावजूद अपना सारा काम खुद तो करना ही , साथ ही रसोई में भी एक ही हाथ से कुछ न कुछ करना...बड़ी बहन से घण्टों फोन पर बतियाने पर भी अपना दुःख छिपा कर बस उनका हाल जानना...। सबको परेशानी से दूर रखने का पूरा जतन करती थी पर उसे नहीं पता था कि ‘होनी’ उसकी एक अलग ही कहानी लिख रही है...।

( जारी है )

1 comment:

  1. मानी बहन यही सच है । जो अच्छा किए बिना चैन नहीं पाते हैं , वक़्त के काँटों की खरोंच सिएफ उनका ही दिल दुखाती है । बस जो जितना ज़हर पी लेता है शायद वह उतनी जीवन जी लेता है । संमरण बहुत मार्मिक है । सबको अच्छा काम करने पर भी ऐसा कुछ भोगना ही पड़ता है , जो नरक जैसा ही होता है ।

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