Monday, February 17, 2014

जब कीचड़ में कमल खिला


घटना यद्यपि लगभग बीस साल पुरानी है, पर न जाने क्यों कुछ ऐसी बात हुई कि मुझे एक अनजाने की य़ाद आ गई। जुलाई या अगस्त का महीना था शायद...सुबह से ही आकाश काले बादलों से घिरा हुआ था। बीच-बीच में बिजली भी तड़क रही थी। देख कर लग रहा था जैसे बारिश होगी तो इतनी घनघोर कि पूरा कानपुर शहर डूब जाएगा। अनगिनत गड्ढों वाले इस इस शहर की खासियत है कि अपनी ऊँची-नीची सड़कों के कारण हल्की सी फुहार को भी यह बर्दाश्त नहीं कर पाता और इस तरह भीग-भीग जाता है जैसे कोई दिलजला अभी-अभी उसकी दुर्दशा पर ढेरों आँसू बहा कर चुप हुआ हो...और जब इस गरजने-तड़कने के बाद धारधार पानी बरसता है तब इस शहर का तो कहना ही क्या...। इस शहर के दामन पर बदनुमा दाग़-से बने गड्ढे तो लबालब भर ही जाते हैं, कहीं-कहीं की पूरी सड़क इस कदर घुटनों तक पानी से भर जाती है कि दो कदम चलना तक दूभर हो जाता है। कार या बस में हैं तो थोड़ी बहुत गनीमत है पर यदि इनके बिना निकले हैं तो फिर ईश्वर ही मालिक...। बरसात के मौसम में रिक्शा हो या टैम्पो, सब आँखों के सामने से भरे-भरे निकल जाते हैं और पैदल चलने वाला मायूस-सा खड़ा ही रह जाता है।
ये घटना जब की है, तब मेरे पास अपनी चौपहिया सवारी नहीं थी। वैसे तो ऐसे मौसम में मैं बाहर निकलने से तब तक बचती थी, जब तक कोई बहुत ज़रुरी काम न हो। पर उस दिन घर का कोई बहुत ज़रूरी सामान लाना था, याद नहीं आ रहा क्या, पर वो लाना हफ़्तों से किसी-न-किसी कारण टलता आ रहा था। लेना ज़रूरी हो गया था, दूसरे बीच में तेज़ हवा चलने से बादल कुछ छँट से गए थे, तो लगा अब बारिश नहीं होगी शायद...। सब कुछ ठीक देख कर मैं टैम्पो से बाज़ार पहुँच गई, दो झोला और छाता लेकर...। करीब घण्टा भर लगा मुझे सारा सामान खरीदने में...पर यह क्या...? मैं इधर शॉपिंग ही कर रही थी कि बिना किसी चेतावनी के बादलों ने मूसलाधार बरसना शुरू कर दिया। वैनिटी बैग मैने कन्धे पर टाँग लिया था। मेरे दोनो झोले सामान से पूरे भर चुके थे। कुछ देर पानी रुकने का वहीं दुकान पर इन्तज़ार करते हुए मैं किसी रिक्शे की तलाश में थी। करीब एक घण्टे के इंतज़ार के बाद दूर से एक रिक्शा खाली आता दिखा। तेज़ बारिश के कारण जैसा अपेक्षित था, सड़क पर घुटनों तक पानी भर चुका था। लगभग चीखते हुए रिक्शे वाले को रोका तो उसने किनारे दुकान तक आने से साफ़ इंकार कर दिया । मरता क्या न करता वाली स्थिति थी, मजबूरी में बीच सड़क तक छप-छप करते हुए जाना पड़ा, पर यह क्या...? दो पल को रिक्शे से ध्यान ह्टा कि एक सज्जन बड़ी तेज़ी से लपकते हुए आए और रिक्शे पर बैठ गए। रिक्शा उनको लेकर चला गया और मैं हैरान-परेशान भारी-भरकम झोलों को लिए बीच सड़क पर खड़ी रह गई। दूर-दूर तक कोई और सवारी नज़र नहीं आ रही थी। घुटने तक की साड़ी कीचड़ में लथपथ हो चुकी थी। पर बीच सड़क पर कितने देर रुकी रहती। वापस जाने को मुड़ी ही थी कि अचानक जाने कैसे कमर में खुँसा मेरा आँचल सरक कर नीचे पानी में जा गिरा। साड़ी-पिन भूल जाने की अपनी आदत से उस दिन मुझे बेहद कोफ़्त हुई। पर कर ही क्या सकती थी उस समय...? मैं एकदम रुआँसी हो उठी थी...। लबालब पानी में झोलों को नीचे भी नहीं रख सकती थी। आँचल उठा कर कैसे अपने शरीर को ढाँकू...? आते-जाते लोगों की निगाह पर नज़र पड़ी तो बड़ी शर्मिन्दगी लगी..। साथ ही अपनी बेबसी पर रोना-सा भी आने लगा...। सामने से निकलने वाले मर्द घूरते हुए निकल रहे थे...। उनकी निगाहें मुझे बुरी तरह से चुभ रही थी। क्या करूँ, क्या नहीं, मैं हकबकाई-सी सोच ही रही थी कि तभी एक मोटरसाइकिल मेरे पास आकर रुकी। उस पर से करीब तीस-पैंतीस बरस का एक नौजवान उतरा। उसने पहले पानी से मेरा आँचल उठा कर निचोड़ा और उसे झटक कर मेरे कन्धे पर डाला। मेरे दोनो झोलों को मेरे हाथ से लेकर मोटरसाइकिल पर रख कर बोला,"आप पहले अपना आँचल ठीक कर लीजिए, मैं रिक्शा देखता हूँ।"
अवाक होकर मैने तुरन्त अपना आँचल ठीक किया। तभी उसने एक खाली रिक्शे को डपट कर रोका, उस पर मुझे बैठा कर मेरे दोनो झोले रखे और रिक्शे वाले को पूरे रोब से मुझे सही जगह पर सम्हाल कर पहुँचाने का आदेश-सा देता मोटरसाइकिल स्टार्ट करके चला गया। हड़बड़ाई-घबराई सी मैं उसका धन्यवाद भी नहीं कर पाई, पर घर आकर सोचती रही कि जहाँ एक तरफ़ कुछ मर्दों ने अपनी हवस...अपनी लोलुपता और अपनी गन्दी नज़र के चलते इस देश की धरती को कीचड़युक्त कर रखा है, वहीं क्या कभी मैं इस बात को भूल पाऊँगी कि उस कीचड़ में सहसा कैसे एक कमल खिला था...?
कमल कीचड़ में ही तो खिलते हैं न...?

Wednesday, February 5, 2014

औरत- गाथा


कविता
                           औरत- गाथा

                   औरत बनने से पहले
                   वह एक बच्ची थी
                   जो माँ की उँगली पकड कर
                   मचलती थी
                   घर में-
                   बाज़ार में-
                   मेहमानॊं से लबरेज़ ड्राइंगरूम में-
                   सिर्फ़ एक गुड्डे के लिए
                   औरत होने से पहले
                   वह एक लडकी थी
                   जो सोलहवें वसन्त के इंतज़ार में
                   माँ से आँखें चुरा कर
                   डोलती थी-
                   छ्ज्जे पर...
                   सडकों पर....
                   और स्कूल के गेट पर...
                   पर,
                   सीटी मारता वसन्त
                   मिलता पान की दुकान पर
                   औरत बनने के बाद
                   वह एक स्त्री थी
                   जो अपने घोंसले के
                   नन्हें से आँगन में
                   ममता से भरी
                   धूप-छाँव की तरह
                   खेलती थी-
                   दुःख-सुख के साथ आँखमिचौली
                   औरत की पहचान पाने से पहले
                   वह एक माँ थी
                   मुंडेर पर बैठी धूप की तरह
                   अपने पंख फैलाए...
                   बारिश...तपन...छाँव को अपने भीतर समेटे
                   सॄष्टि की श्रेष्ठ रचना
                   वह खुश थी
                   किसी गौरैया की तरह
                   अपनी डाल पर बैठी
                   चोंच से दाना चुगाती बच्चों को
                   पर अब?
                   ज़िन्दगी की सारी सीढियाँ फलांग कर
                   वह खडी है,
                   आकाश के आंगन में
                   एक भरी-पुरी औरत की तरह
                   सॄष्टि अब उसकी मुठ्ठी में है
                   पर फिर भी,
                   हथेली खाली है
                   खाली हथेली में अपनी पहचान खोजती
                   औरत- पशोपेश में है
                   औरत होने से पहले पूरा आकाश था
                   उसकी आगोश में
                   वसन्त उसकी प्रतीक्षा में था
                   छाती से उतरता अमॄत था
                   पर अब?
                   एक पूरी औरत बन कर भी
                   उसके पास कुछ भी नहीं
                   न घर-
                   न आँगन-
                   न खिलौना-
                   न आकाश....


 (चित्र गूगल से साभार...)