Wednesday, October 27, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? -( 1 )

( किस्त - चौदह )



 हमारा शहर हो या कोई गाँव , निश्चित दिन होता है मंडी लगने का...ज़्यादातर लोग आतुर रहते हैं इस दिन के लिए...। रोज की अपेक्षा उस दिन थोक में सामान खरीदने में काफ़ी सस्ता पड़ता है । सब्ज़ी , अनाज़ , दालें...और कपड़े भी...। कई बार मेरा भी जाना हुआ है । ज़मीन पर तरह-तरह के सामानों की ढेरी , कानफाड़ू शोर , गानों की आवाज़ें...सब कुछ गडमड...। मन को काफ़ी स्थिर करके खरीददारी करनी पड़ती है ।
           और यहाँ...? लगा जैसे फिर किसी मंडी में आ गई हूँ , जहाँ ज़िन्दगी नहीं , मौत के क़दमों की आहट है । जहाँ किसी गीत की धुन नहीं , कराहट का शोर है...। यहाँ कोई सामान नहीं , थोक में दर्द बिकता है और वह दर्द भी ऐसा , जिसका कोई खरीददार नहीं...। हर कोई दर्द को दूर झटक कर मुक्त होना चाहता है , पर दर्द उसे मुक्त नहीं करता...। यहाँ आमदनी कुछ नहीं , पर खर्चा हज़ारों में है...। भीतर खुशी नहीं , दुःख भरा हुआ है...। उफ़ ! यह कौन सी मंडी है दोस्तों , जहाँ दर्द...सिर्फ़ ‘ दर्द ’ बिकता है...। चीख-चीख कर गला दुख जाता है पर कोई खरीदता क्यों नहीं...?
           ढेर सारा दर्द मेरे पास भी था । भाई-बहनों की सहमन , डिप्रेशन में जाती बेटी की चिन्ता और बीमार बहन की जब-तब उभरती चीख...। दर्द का बोझ इतना अधिक हो गया था कि अगर उसे कम करने का जतन न करती तो उसके बोझ तले दब जाती...। यहाँ पी.जी.आई में उसी दर्द को हल्का करने आई थी ।
           दर्द का बाज़ार इमरजेन्सी वार्ड था । हर बेड के ऊपर धीमा चलता हुआ पंखा टँगा था , पर गर्मी इतनी भीषण थी कि उसकी हवा भी बेअसर...। ए.सी की हवा वहीं तक ठहर गई थी जहाँ डाक्टर और नर्स के बैठने की जगह थी...। इमरजेन्सी वार्ड की छत काली...जली हुई सी लग रही थी । शायद कुछ दिन पहले जो आग लगी थी , उसका धुँआ यहीं से उठा था...। ख़ैर , इसे अभी यहीं छोड़ती हूँ...। बात दर्द की हो रही है और दर्द है कि ढेर सारे अनजाने , पर अपने से लगने वाले लोगों के भीतर भरा हुआ है...।
             रात के यही कोई दो-सवा दो बज रहे होंगे । बहन के पास छोटे भाई सुनील और उसी के साथ स्नेह को देखने आए उनके घनिष्ठ पड़ोसी इन्दर भैया को बैठा कर मैं वहीं पलंग के पास गन्दी ज़मीन पर चादर बिछा कर सोने का यत्न कर रही थी , पर आसपास भनभनाते मोटे-मोटे मच्छरों ने हमला करके नींद को काफ़ी दूर भगा दिया था । पूरा बदन लाल चकत्तों से भर गया था , साथ ही एक भय भी...यहाँ आई हूँ बहन की ज़िन्दगी की आस लेकर और कहीं खुद मेरी ही ज़िन्दगी ख़तरे में न पड़ जाए...। इमरजेन्सी वार्ड में तरह-तरह के गम्भीर रोगों से ग्रसित मरीज थे । ये मुटल्ले मच्छर पता नहीं किस-किस का खून पीकर हमारे भीतर इंजेक्ट कर दें...और...। उठ कर बैठी ही थी कि तभी एक मोटा सा चूहा पैरों के ऊपर से गुज़र गया ...नहीं , गुज़रा नहीं , निकल गया...। ( आश्चर्य ! सरकारी अस्पताल में रहकर भी वह स्वस्थ और ज़िन्दा था...। ) 
             चूहे के निकलते ही मैं चिंहुक पड़ी । अभी कुछ अरसा पहले मेरी समधिन यहाँ भरती हुई थी । उनका सबसे छोटा बेटा , मेरा दामाद , उनकी देखभाल के लिए हफ़्तों से यहीं रुका था । कई रात के जागरण के बाद उसे सोना नसीब हुआ , मेरी ही तरह वह भी ज़मीन पर सो रहा था कि तभी किसी जंगली चूहे ने उसे काट खाया । थोड़ी देर बाद ही उसका पूरा बदन सूज गया । उसने तुरन्त ही टिटबैक का इंजेक्शन लगवाया था , पर बावजूद इसके काफ़ी दिनों तक उसकी तबियत खराब रही । वाह ! है न मज़ेदार बात...! इंसान जाए तीमारदार बन कर और लौटे खुद तीमारदार की ज़रूरत वाला बीमार बन कर...। उस घटना को याद करके मैं भी सिहर उठी । सोना तो दूर , वहाँ ज़मीन पर बैठना भी मुनासिब नहीं समझा...।
           धीरे से उठ कर चादर तह कर ही रही थी कि तभी इमरजेन्सी वार्ड के दरवाज़े से दो-तीन आदमी और गँवई सी दिखने वाली एक औरत बहुत तेज़ी से भीतर आए और बहन की बगल वाली खाली पलंग के पास खड़े हो गए । एक के कन्धे पर कोई ढाई-तीन साल का बच्चा मूर्च्छित अवस्था में झूल-सा रहा था । उसने उस ब्च्चे को वहीं पलंग पर लिटा दिया । मैं अवाक...स्थिर सी चादर तह करना भूल कर उसे ही देखने लगी ।
             लाल शर्ट और छोटी सी सफ़ेद निकर में वह नन्हा सा मासूम बच्चा किसी से यह सवाल करने लायक भी नहीं था कि भौतिकवादी इस युग के इस सरकारी अस्पताल के इमरजेन्सी वार्ड में पलंग इतनी जल्दी भर क्यों जाते हैं ? तकनीकीकरण ने क्या ज़िन्दगी के बगीचे को इतना जलविहीन कर दिया है कि नन्हा सा फूल भी खिलने से पहले ही मुरझा जाता है...?
              " डाक्टर साहेब...मेरे बच्चे को बचा लीजिए...।" वार्ड के प्रवेश द्वार पर ही खूबसूरत सी अण्डाकार मेज थी...। मेज के पीछे कुर्सी पर दो-तीन नर्सें और शायद जूनियर डाक्टर गुफ़्तगू में मशगूल थे । आवाज़ से वे चौंके...कान में आला लगाए भीतर आए और बेड के पास खड़े होकर पूछा , " क्या हुआ ?"
              " डाक्टर साहेब , ये खेलते-खेलते गिर पड़ा और बेहोश हो गया...।"
              " कितनी देर से बेहोश है ? "
              " आठ घण्टे से , साहेब...।"
               अब चौंकने की बारी डाक्टर की थी , " आठ घण्टे से बेहोश है और तुम इलाज के लिए अब ला रहे हो...? "
              " नहीं डाक्टर साहेब , हम कानपुर से आ रहे हैं...। बेहोश होने के तुरन्त बाद हम इसे मरियमपुर अस्पताल ले गए थे , पर उन्होंने मधुराज नर्सिंग होम भेज दिया । वहाँ भी उन्होंने भर्ती नहीं किया और यहाँ भेज दिया...। बस्स , हम टैक्सी से भागे-भागे चले आ रहे हैं...। डाक्टर साहबऽऽऽ , मेरे बच्चे को बचा लीजिए...। मेरा पहलौठा है ये...डाक्टर साहेब...।"
               शायद वह उस बच्चे का बाप ही था । उसकी सिसकियाँ वातावरण को और भी ग़मगीन बना रही थी । थोड़ी दूर पर अवाक , मूर्तिवत खड़ी माँ इस आशा में थी कि डाक्टर साहब आ गए हैं , अभी कोई चमत्कार होगा और फिर बेसुध पड़ा उसका लाल ‘ माँ ’ कह कर उसके गले से चिपट जाएगा...।
                डाक्टर ने बच्चे का मुआयना किया और भावहीन चेहरे से बाप की ओर देख कर बोला , " तुम्हारा बच्चा तो मर गया...।"
                सुनते ही मूर्तिवत खड़ी माँ के भीतर हलचल हुई और वह दहाड़ मार कर रोने लगी । हम सब की आँखें भर आई...। डाक्टरों के लिए यह सब कितना सहज हो गया है...। कानपुर में ही कोई डक्टर अगर तुरन्त उस बच्चे का इलाज कर देता तो शायद वह पहलौठा अपनी माँ की झोली खुशियों से भरने के लिए ज़िन्दा होता , पर नहीं...ऐसा नहीं हुआ...। उनके लिए तो ज़िन्दगी और मौत एक ऐसा खेल हो गया है जिसमें कोई पास तो कोई फ़ेल...आखिर एक्ज़ामनर करे भी तो क्या...? पर भाई , यहाँ तो एक नन्ही सी ज़िन्दगी बिना इम्तहान दिए ही फ़ेल हो गई थी । कोई तो ढाँढस बंधाता उसके माता-पिता को...। बड़ी आशा लेकर आए थे , माँ आँचल में निराशा बाँध कर चली गई...। छिः , ऐसी डाक्टरी को धिक्कार है , जो किसी का ग़म न बाँट सके...उसे धीरज न बँधा सके...। डाक्टर व नर्स का भावहीन चेहरा मुझे इस पवित्र पेशे के प्रति वितृष्णा से भर गया । यद्यपि मैं जानती हूँ कि समाज में हर कोई ऐसा नहीं , पर उस क्षण जो देखा , उसे ही महसूस किया तो क्या ग़लत किया...?
   

( जारी है )


1 comment:

  1. मार्मिक कथा है। अस्पताल स्टाफ को बहुत संवेदनशील होना चाहिये। मगर उनकी भी बहुत सी मजबूरियां होती होंगी और क्या कह सकते हैं। आज कल तो सब जगह यही हाल है। हमने भी देखा भोगा है ये सब। मार्मिक कहानी।

    ReplyDelete