अभी कुछ बरस पहले की बात है, किसी असहाय की मदद करने की इच्छा से मैं कानपुर के सरकारी अस्पताल हैलट गई (किसी से भी आर्थिक सहयोग लिए बग़ैर अपनी सामर्थ्य के अनुसार मैं अक्सर ऐसा करती हूँ...। शायद , मेरे भीतर भी इसी बहाने पुण्य कमाने की लालसा हो...)। वहाँ मैने फ़्रैक्चर विभाग के जनरल वार्ड में एक ऐसे व्यक्ति को चुना जो एक दुर्घटना में अपने दोनो पैर ही नहीं वरन याद्दाश्त भी गँवा बैठा था...। फ़र्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला वह आदमी महीनों अपने बारे में जान ही नहीं पाया कि वह कौन है और वहाँ कैसे आया ? किसी ने पता लगाने की कोशिश भी नहीं की । कोई दयावान दुर्घटनास्थल से उसे उठा कर हैलट के परिसर में डाल गया था । सैप्टिक हो जाने के कारण उसके दोनो पैर काट दिए गए थे और अब हैलट के एक कोने में पड़ा वह पूरा नर्क भोग रहा था ।
वहाँ आने वाले दूसरों के तीमारदार दया करके कभी उसे खाना दे देते तो कभी मरहमपट्टी के पैसे...। मैं जब उससे मिली तो उसकी अंग्रेजी ज़ुबान से हैरत में पड़ गई । उसकी याद्दाश्त उसका कितना साथ दे रही थी, नहीं जानती पर उसकी भरी आँखें एक सच को बयान कर रही थी...पूरी ईमानदारी के साथ...कि वह एक बड़ी कम्पनी में बड़ा अधिकारी था...। उसे मरा जान कर उसके बेटे को वह पद दे दिया गया...। उसकी याद्दाश्त वापस आ गई है, पर वह किसी को अपने घर का पता या कम्पनी का नाम नहीं बताएगा...। एक नर्क से अब वह दूसरे नर्क नहीं जाना चाहता...। बस , दूसरों के रहमोकरम पर बाकी ज़िन्दगी...नहीं, मौत से बदतर ज़िन्दगी के दिन पूरे करना चाहता है...।
उसकी पीड़ा से मैं बहुत आहत थी पर वह वहाँ अकेला नहीं था...। फ़्रैक्चर वार्ड में न जाने कितने उस जैसे थे और चाह कर भी मैं सभी की सहायता नहीं कर सकती थी । आर्थिक साधनों की कमी के अहसास ने मेरे भीतर एक बेचारगी सी भर दी थी...। कुछ रुपए , खाना-कपड़ा, दवा...जो बन पड़ा, उसे देकर चली आई पर उस दिन उस बूढ़े व्यक्ति की आँखों में जिस नर्क की यातना को मैने देखा , उसने मुझे भीतर तक हिला कर रख दिया । जनरल वार्ड इस कदर बदबुआई अव्यवस्था से भरा हुआ था कि वहाँ एक पल भी ठहरना मुश्किल लग रहा था ।
अलग-अलग मैले-कुचैले कपड़ों में पड़े मरीज , गन्दे बिस्तर...दुर्घटना के शिकार लोगों के घाव पर भिनभिनाती मक्खियाँ...घायलों या बीमारों से ज्यादा लाचार दिखते उनके तीमारदार...। कोई दर्द से चीखते अपने बच्चे को संभाल रहा है तो कोई मौत की दुआ माँगते अपने प्रियजन को सांत्वना दे रहा है । चारो तरफ़ कराहट का एक ऐसा शोर था जिसने "यम" (?) को बहरा बना दिया था...। छिः, नर्क में इतनी भीड़...? बेचारे "यम" किसकी सुनें...?
बाहर बरामदे में खूनी, बदबूदार , पीले पेशाब की नदी थी । भीतर गिनती के शौचालय थे , पर वे भीषण गन्दगी से अटे पड़े थे । घायल , टूटी हड्डियों वाले लोग तो वैसे भी वहाँ पहुँचने में असमर्थ थे । बरामदा सबसे क़रीब था । परिजनों ने इधर-उधर देखा , किसी को न देख या तो मरीज को वहीं बिठा दिया या फिर पॉट पलट दिया । बस्स...अपना तो काम हो गया भाई...। अब दूसरा कुछ भी करे...भुगते...उसे क्या ? इस "क्या" से मतलब तो डाक्टर और नर्स को भी नहीं था...। मुँह पर नक़ाब सा पहन बचते-बचाते आते , मरीज के साथ औपचारिकता निभाते, बनावटी चिन्ता से थोड़ा मुँह् बिचकाते हुए उसके परिजन को दवा का पर्चा पकड़ा कर कुछ हिदायत देते और फिर जिस अदा से अपना पार्ट निभाने आते, उसी अदा से चले भी जाते...। उस नर्क में इससे ज्यादा देर उनसे ठहरा भी कहाँ जाता था...। बाहर उनके लिए स्वर्ग-सी एक अलग दुनिया थी न...।
सच कहूँ, दुबारा उस नर्क में जाने की हिम्मत मैं भी नहीं जुटा पाई...। पर जब कोई अपना इस नर्क में अनजाने ही फँस जाए तो ? बचाव का रास्ता कहाँ से निकलता है, नहीं जानती थी । कोई भी जानबूझ कर इस नर्क में नहीं जाना चाहता । जो फँसते हैं, वे या तो मजबूर होते हैं या फिर अनजाने ही धोखा खा जाते हैं । हमारा परिवार भी अनजाने ही फँस गया था और ऐसा फँसा कि मौत को आगे कर ज़िन्दगी ने अपना दामन झटक लिया...।
( जारी है )
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