कविता
भीतर की बाढ़
अभी तक
किताबों में पढ़ा था
फ़िल्मों में देखा था
और
ज़ुबानी सुना था
गाँव में जब बाढ़ आती है
उजड़ जाती है
ज़िन्दगी
चील-कौओं का ग्रास बनता
ठहरता आदमी
मौत के जलाशय में
हरी काई सी जमी निराशा
पर कहीं
आकाश में
दीप सा जला सूरज
और इन सबके बीच
एक मनुआ है...
दिदियाऽऽऽ...,
सुना है
इस बार सहर मा बाढ़ आई है
और
तटवा किनारे पूरा सहर जमा है
तब,
पता नहीं क्यों
मेरे अंदर की जंगली बिल्ली ने
अपने पंजों को खोल दिया
तट किनारे जाकर देखा तो भूल गई
किताबों में पढ़ी
बाढ़ की त्रासद-कथा
याद रहा तो सिर्फ़
सदियों पूर्व का जल-प्रलय
और उस प्रलय के बीच
जन्मित सृष्टि
पर आज,
तट के किनारे
प्रलय का मुँह चिढ़ाती
सृष्टि आह्लादित थी
दृश्य सटीक था और अधुनातन भी
मेरी काली आँखों का लेंस सक्रिय हो उठा
मन ने कहा,
कोई दृश्य छूटने न पाए
जर्जर झोपडियों में
मौत की काली परछाई सा
ठहरा अंधेरा
और,
उस अंधेरे के बीच
चीथड़ों में लिपटा
दूधिया बदन
गंदलाए फेनियल पानी में
गले तक डूबे घर
घर की छत से चिपकी
ज़िन्दगी की भीख माँगती
कातर आँखें,
पर,
उन आँखों से बेख़बर
नपुंसकों की भीड़
जब-तब किसी पाजी बच्चे सी
ताली बजा रही थी
और बच्चा?
पता नहीं किसका
गंदे पानी के भंवर में था
रुकी ताली के बीच
कोई चीखा
उफ़...
वह डूब रहा है
और तभी कैमरा क्लिक हो गया
ओह!
कितनी खूबसूरत बात
ज़िन्दगी और मौत एक साथ?
(सभी चित्र गूगल से साभार)