( क़िश्त- तीन )
कहते हैं कि जब कोई अनिष्ट होने वाला होता है तो उसके संकेत किसी न् किसी बहाने सामने आने लगते हैं...। कभी शब्दों के माध्यम से, तो कभी हल्की-फुल्की घटना के माध्यम से...। समय कहीं अटकने लगता है...और लगता है जैसे ज़िन्दगी से कुछ निचुड़ने लगा हो...। अपने परिवार में सहसा ही हम सब को ऐसा ही महसूस होने लगा था ।
शायद वह दिन ही अभागा था जब वह छोटी सी घटना घटी । दिन के यही कोई दस-सवा दस बजे होंगे...। हमेशा की तरह उसने सबको नाश्ता कराया , खुद किया और फिर रोजमर्रा की आदत के चलते बाहर लॉन में आ गई , पेड़ों पर पानी का छिड़काव करने...। सहसा उसकी निगाह् बाउन्ड्री पर रखे मनीप्लान्ट के गमलों पर गई । उसके कुछ पत्ते मुरझा से गए थे । शायद उस ज़िन्दगी की तरह जो धीरे-धीरे , पर चुपके से , मुरझा रही थी । मनीप्लान्ट के मुरझित पत्ते जब झर जाते तो उसकी जगह नए पत्ते आ जाते...यही तो पत्तों की प्रकृति है...। पानी पाकर वे फिर् अपनी डाली पर नए रूप में जीवन्त हो उठते हैं , पर मनुष्य...?
इन्सान का जीवन भी जब इन पत्तों की तरह मुरझा कर अपनी डाली से अलग हो ज़मींदोज हो जाता है तो दूसरी ज़िन्दगी नए पत्तों की तरह उग आती है...। हर कोई जानता है कि मुरझित पत्ता फिर डाली पर नहीं लगता पर फिर भी , पता नहीं क्यों जी चाहता है कि काश ! डाली से अलग हुआ पत्ता एक बार फिर ज़िन्दगी की डाली से चिपट कर ताज़ादम हो जाए...पर जानती हूँ , प्रकृति अपना कानून नहीं बदलती...उसकी तरह इन्सान की प्रकृति भी नहीं बदलती...।
पेड़ों की देखभाल करते समय अपनी प्रकृति के अनुसार ही वह बड़बड़ाती जाती, " ये लोग ज़रा भी ध्यान नहीं देते...। अगर हम पानी न डालें तो सारे पेड़ ही मुरझा जाएँ...।"
परिवार रूपी पेड़ को वह पानी ही तो दे रही थी पर खुद अपने मुरझाते जाने का उसे ज़रा भी अहसास नहीं था । हल्की-फुल्की परेशानी तो लगी ही रहती थी...। कभी पेट में हल्का दर्द...तो कभी गैस की शिकायत...। कमज़ोरी भीतर जड़ जमा रही थी पर उसने इसे ज्यादा गम्भीरता से नहीं लिया । बस डाक्टर को दिखाया , दवा ली , तबियत सुधर गई...। परिवार में अक्सर ऐसी लापरवाहियाँ होती रहती हैं...। जब तक कोई गम्भीर घटना नहीं घटती , हम सब ज़िन्दगी को बहुत हल्के रूप में लेते हैं...। न डाक्टर रोग की गहराई में जाने की कोशिश करते हैं और न ही भुक्तभोगी इसे गम्भीरता से लेता है । स्नेह से जब भी चेक-अप कराने को कहती , वह बस यह कह कर चुप करा देती ," अरे समझती नहीं हो...घर में इतना काम रहता है...थकान तो होगी न...। फिर कई बार अंट-शंट भी तो खा लेते हैं , वही नुकसान कर जाता है...। जानती हो , ज्यादा दवा नहीं खानी चाहिए...इसके साइड इफ़ेक्ट फ़ायदा कम और नुकसान अधिक कर देते हैं...।"
उसे क्या पता था कि दवा बिना भी उसका जो नुकसान होना था , वह हो चुका था । उस दिन न तो दवा का असर था , न बद-दुआ का...जब स्टूल पर खड़ी हो कर वह मुरझाए पत्तों को डाली से अलग कर रही थी । बेध्यानी में उसका पैर कोने पर गया और वह धड़ाम से मुँह के बल ज़मीन पर गिरी । बचने के लिए हाथ का सहारा लिया तो सीधे हाथ की हड्डी टूट गई । उस वक़्त वह उठ तो गई पर वक़्त ने उसी जगह चुपके से एक अनकही-अनसुलझी कहानी उसके नाम लिख दी...कुछ ही दिनों में उसी जगह उसकी अर्थी सजाने के लिए...। माता-पिता और छोटी बहन की असमय मौत ने डोली सजाने का उसका इरादा तो बदल दिया था पर अर्थी सजने-उठने पर उसका वश नहीं चला...। काश ! वक़्त उसका यह इरादा भी बदल देता...। तीन मौतों के बाद उसके माथे पर छोटे भाई-बहनों की देखभाल की चिन्ता की जो रेखाएँ उभरी थी , वह उसकी अपनी बीमारी के वक़्त चरम पर थी...।
दिन भर की भाग-दौड़ की थकान से भारी हो मेरी पलकें पल भर के लिए झपकती और फिर क्षणांश ही चौंक कर मैं उठ जाती , यह देखने के लिए कि उसे किसी चीज़ की जरूरत तो नहीं...।
इस " क्षणांश " में ही मुझे उसकी चिन्ताग्रस्त आँखें दिख जाती पर मुझे जागते देख वह सहज दिखने की कोशिश करने लगती । मैं जानती थी कि भीतर से टूटते चले जाने के बावजूद हम सब सहज दिखने का नाटक करते...। वह् सहज दिखने की कोशिश इस लिए करती कि हम सबको दुःख न हो और हम सब इसलिए , कि उसे अपनी आने वाली मौत का अहसास न हो...। जीने की जिजीविषा कभी-कभी मौत के मुँह से भी इन्सान को खींच लाती है और इसी जिजीविषा को ही हम जगाना चाहते थे...। धोखा वह भी खा गई और धोखा हम भी खा गए...। वक़्त हाथ से जब सरकने लगा तब दिमाग़ ने जैसे काम् करना ही बन्द कर दिया...। समझ ही नहीं पा रहे थे कि किस डाक्टर के पास जाएँ...। डाक्टर जो भी टेस्ट लिखते , तुरन्त कराते...और हर टेस्ट के बाद वक़्त एक इंच और सरक चुका होता...। कुछ डाक्टरों की लापरवाही तो कुछ हमारी नासमझी ने उसकी बीमारी को गम्भीर बना दिया था...। जो कोई भी सलाह् देता , हम रात-दिन की परवाह किए बग़ैर भाग खड़े होते उस ओर...। दिल्ली...नासिक...मुम्बई...कहाँ-कहाँ से दवा नहीं आई...। उसे बचा लेने का आश्वासन हर किसी ने दिया पर बचाया किसी ने नहीं...। यह किसकी भूल थी...? हमारी...डाक्टर की या खुद उसकी...?
एक दिन दुःखी हो मैने उसे एक मीठी झिड़की दी थी ," यह क्या किया तुमने ? सारे भाई-बहनों का पूरा ध्यान रखती थी पर सिर्फ़् अपना नहीं रख पाई...। तुम्हें कोई अन्दरूनी परेशानी थी तो बताया क्यों नहीं...? क्यों ऐसा किया...? रोग को छिपाते वक़्त यह नहीं सोचा कि तुम्हारे बीमार पड़ जाने पर उनका क्या होगा ?"
प्रत्युत्तर में उसकी आँखें एक मासूम असहायता से भर गई थी ," दीदी...हम खुद धोखा खा गए...।"
और फिर मुझ से एक पल भी वहाँ रुका नहीं गया...। डाक्टर जवाब दे चुके थे । उसे क्या बताती...बस अपने को किसी तरह जब्त कर बाहर आते-आते इतना ही कहा ," ख़ैर , जो होना था , हो गया...। तुम घबराओ मत...जल्दी ही ठीक हो जाओगी...।"
पर बाहर आकर बाँध जैसे टूट गया । मुश्किल घड़ी में इस छोटे से वाक्य को बोलने में जैसे सदियाँ गुज़र गई...। काश ! प्रकृति का कानून बदल जाता...। इस सदी के गुज़रने का अहसास किसी को भी न हो...। इन्सान का शरीर उस मशीन की तरह न हो जिसमें ज़रा पानी पड़ जाने पर धीरे-धीरे जंग लग जाता है...। अगर प्रकृति का कानून नहीं बदल सकता तो ठीक है , पर वक़्त तो पूरा हो...। टिक-टिक चलती घड़ी चाहे अचानक बन्द हो जाए , पर उसमें जंग न लगे...।
उस जंग लगती मशीन का पुर्जा-पुर्जा टूट-बिखर गया पर जाते-जाते एक बात अच्छी तरह समझा गया कि मुश्किल घड़ी में किसी बुजुर्ग का सहारा मिले न मिले , पर एक बौद्धिक सलाह की बहुत ज्यादा जरूरत होती है...। ऐसे वक़्त अनुभव और समझ वाले किसी ऐसे का सहारा मिल जाए तो किसी भी परिवार के लिए वह सबसे बड़ी नेमत साबित होती है...। मेरा अपना यह अनुभव यदि भविष्य में किसी के काम आता है , तो मैं इसे सार्थक समझूँगी , क्योंकि अक्सर हम सब रोजमर्रा की ज़िन्दगी में व्यस्त होकर अच्छे-बुरे की पहचान करना भूल जाते हैं और यह भी विस्मृत कर देते हैं कि अच्छे वक़्त के सब साथी होते हैं पर बुरे वक़्त में अपनी परछाई भी साथ छोड़ देती है ।
( जारी है...)
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