( किस्त - चौदह )
हमारा शहर हो या कोई गाँव , निश्चित दिन होता है मंडी लगने का...ज़्यादातर लोग आतुर रहते हैं इस दिन के लिए...। रोज की अपेक्षा उस दिन थोक में सामान खरीदने में काफ़ी सस्ता पड़ता है । सब्ज़ी , अनाज़ , दालें...और कपड़े भी...। कई बार मेरा भी जाना हुआ है । ज़मीन पर तरह-तरह के सामानों की ढेरी , कानफाड़ू शोर , गानों की आवाज़ें...सब कुछ गडमड...। मन को काफ़ी स्थिर करके खरीददारी करनी पड़ती है ।
और यहाँ...? लगा जैसे फिर किसी मंडी में आ गई हूँ , जहाँ ज़िन्दगी नहीं , मौत के क़दमों की आहट है । जहाँ किसी गीत की धुन नहीं , कराहट का शोर है...। यहाँ कोई सामान नहीं , थोक में दर्द बिकता है और वह दर्द भी ऐसा , जिसका कोई खरीददार नहीं...। हर कोई दर्द को दूर झटक कर मुक्त होना चाहता है , पर दर्द उसे मुक्त नहीं करता...। यहाँ आमदनी कुछ नहीं , पर खर्चा हज़ारों में है...। भीतर खुशी नहीं , दुःख भरा हुआ है...। उफ़ ! यह कौन सी मंडी है दोस्तों , जहाँ दर्द...सिर्फ़ ‘ दर्द ’ बिकता है...। चीख-चीख कर गला दुख जाता है पर कोई खरीदता क्यों नहीं...?
ढेर सारा दर्द मेरे पास भी था । भाई-बहनों की सहमन , डिप्रेशन में जाती बेटी की चिन्ता और बीमार बहन की जब-तब उभरती चीख...। दर्द का बोझ इतना अधिक हो गया था कि अगर उसे कम करने का जतन न करती तो उसके बोझ तले दब जाती...। यहाँ पी.जी.आई में उसी दर्द को हल्का करने आई थी ।
दर्द का बाज़ार इमरजेन्सी वार्ड था । हर बेड के ऊपर धीमा चलता हुआ पंखा टँगा था , पर गर्मी इतनी भीषण थी कि उसकी हवा भी बेअसर...। ए.सी की हवा वहीं तक ठहर गई थी जहाँ डाक्टर और नर्स के बैठने की जगह थी...। इमरजेन्सी वार्ड की छत काली...जली हुई सी लग रही थी । शायद कुछ दिन पहले जो आग लगी थी , उसका धुँआ यहीं से उठा था...। ख़ैर , इसे अभी यहीं छोड़ती हूँ...। बात दर्द की हो रही है और दर्द है कि ढेर सारे अनजाने , पर अपने से लगने वाले लोगों के भीतर भरा हुआ है...।
रात के यही कोई दो-सवा दो बज रहे होंगे । बहन के पास छोटे भाई सुनील और उसी के साथ स्नेह को देखने आए उनके घनिष्ठ पड़ोसी इन्दर भैया को बैठा कर मैं वहीं पलंग के पास गन्दी ज़मीन पर चादर बिछा कर सोने का यत्न कर रही थी , पर आसपास भनभनाते मोटे-मोटे मच्छरों ने हमला करके नींद को काफ़ी दूर भगा दिया था । पूरा बदन लाल चकत्तों से भर गया था , साथ ही एक भय भी...यहाँ आई हूँ बहन की ज़िन्दगी की आस लेकर और कहीं खुद मेरी ही ज़िन्दगी ख़तरे में न पड़ जाए...। इमरजेन्सी वार्ड में तरह-तरह के गम्भीर रोगों से ग्रसित मरीज थे । ये मुटल्ले मच्छर पता नहीं किस-किस का खून पीकर हमारे भीतर इंजेक्ट कर दें...और...। उठ कर बैठी ही थी कि तभी एक मोटा सा चूहा पैरों के ऊपर से गुज़र गया ...नहीं , गुज़रा नहीं , निकल गया...। ( आश्चर्य ! सरकारी अस्पताल में रहकर भी वह स्वस्थ और ज़िन्दा था...। )
चूहे के निकलते ही मैं चिंहुक पड़ी । अभी कुछ अरसा पहले मेरी समधिन यहाँ भरती हुई थी । उनका सबसे छोटा बेटा , मेरा दामाद , उनकी देखभाल के लिए हफ़्तों से यहीं रुका था । कई रात के जागरण के बाद उसे सोना नसीब हुआ , मेरी ही तरह वह भी ज़मीन पर सो रहा था कि तभी किसी जंगली चूहे ने उसे काट खाया । थोड़ी देर बाद ही उसका पूरा बदन सूज गया । उसने तुरन्त ही टिटबैक का इंजेक्शन लगवाया था , पर बावजूद इसके काफ़ी दिनों तक उसकी तबियत खराब रही । वाह ! है न मज़ेदार बात...! इंसान जाए तीमारदार बन कर और लौटे खुद तीमारदार की ज़रूरत वाला बीमार बन कर...। उस घटना को याद करके मैं भी सिहर उठी । सोना तो दूर , वहाँ ज़मीन पर बैठना भी मुनासिब नहीं समझा...।
धीरे से उठ कर चादर तह कर ही रही थी कि तभी इमरजेन्सी वार्ड के दरवाज़े से दो-तीन आदमी और गँवई सी दिखने वाली एक औरत बहुत तेज़ी से भीतर आए और बहन की बगल वाली खाली पलंग के पास खड़े हो गए । एक के कन्धे पर कोई ढाई-तीन साल का बच्चा मूर्च्छित अवस्था में झूल-सा रहा था । उसने उस ब्च्चे को वहीं पलंग पर लिटा दिया । मैं अवाक...स्थिर सी चादर तह करना भूल कर उसे ही देखने लगी ।
लाल शर्ट और छोटी सी सफ़ेद निकर में वह नन्हा सा मासूम बच्चा किसी से यह सवाल करने लायक भी नहीं था कि भौतिकवादी इस युग के इस सरकारी अस्पताल के इमरजेन्सी वार्ड में पलंग इतनी जल्दी भर क्यों जाते हैं ? तकनीकीकरण ने क्या ज़िन्दगी के बगीचे को इतना जलविहीन कर दिया है कि नन्हा सा फूल भी खिलने से पहले ही मुरझा जाता है...?
" डाक्टर साहेब...मेरे बच्चे को बचा लीजिए...।" वार्ड के प्रवेश द्वार पर ही खूबसूरत सी अण्डाकार मेज थी...। मेज के पीछे कुर्सी पर दो-तीन नर्सें और शायद जूनियर डाक्टर गुफ़्तगू में मशगूल थे । आवाज़ से वे चौंके...कान में आला लगाए भीतर आए और बेड के पास खड़े होकर पूछा , " क्या हुआ ?"
" डाक्टर साहेब , ये खेलते-खेलते गिर पड़ा और बेहोश हो गया...।"
" कितनी देर से बेहोश है ? "
" आठ घण्टे से , साहेब...।"
अब चौंकने की बारी डाक्टर की थी , " आठ घण्टे से बेहोश है और तुम इलाज के लिए अब ला रहे हो...? "
" नहीं डाक्टर साहेब , हम कानपुर से आ रहे हैं...। बेहोश होने के तुरन्त बाद हम इसे मरियमपुर अस्पताल ले गए थे , पर उन्होंने मधुराज नर्सिंग होम भेज दिया । वहाँ भी उन्होंने भर्ती नहीं किया और यहाँ भेज दिया...। बस्स , हम टैक्सी से भागे-भागे चले आ रहे हैं...। डाक्टर साहबऽऽऽ , मेरे बच्चे को बचा लीजिए...। मेरा पहलौठा है ये...डाक्टर साहेब...।"
शायद वह उस बच्चे का बाप ही था । उसकी सिसकियाँ वातावरण को और भी ग़मगीन बना रही थी । थोड़ी दूर पर अवाक , मूर्तिवत खड़ी माँ इस आशा में थी कि डाक्टर साहब आ गए हैं , अभी कोई चमत्कार होगा और फिर बेसुध पड़ा उसका लाल ‘ माँ ’ कह कर उसके गले से चिपट जाएगा...।
डाक्टर ने बच्चे का मुआयना किया और भावहीन चेहरे से बाप की ओर देख कर बोला , " तुम्हारा बच्चा तो मर गया...।"
सुनते ही मूर्तिवत खड़ी माँ के भीतर हलचल हुई और वह दहाड़ मार कर रोने लगी । हम सब की आँखें भर आई...। डाक्टरों के लिए यह सब कितना सहज हो गया है...। कानपुर में ही कोई डक्टर अगर तुरन्त उस बच्चे का इलाज कर देता तो शायद वह पहलौठा अपनी माँ की झोली खुशियों से भरने के लिए ज़िन्दा होता , पर नहीं...ऐसा नहीं हुआ...। उनके लिए तो ज़िन्दगी और मौत एक ऐसा खेल हो गया है जिसमें कोई पास तो कोई फ़ेल...आखिर एक्ज़ामनर करे भी तो क्या...? पर भाई , यहाँ तो एक नन्ही सी ज़िन्दगी बिना इम्तहान दिए ही फ़ेल हो गई थी । कोई तो ढाँढस बंधाता उसके माता-पिता को...। बड़ी आशा लेकर आए थे , माँ आँचल में निराशा बाँध कर चली गई...। छिः , ऐसी डाक्टरी को धिक्कार है , जो किसी का ग़म न बाँट सके...उसे धीरज न बँधा सके...। डाक्टर व नर्स का भावहीन चेहरा मुझे इस पवित्र पेशे के प्रति वितृष्णा से भर गया । यद्यपि मैं जानती हूँ कि समाज में हर कोई ऐसा नहीं , पर उस क्षण जो देखा , उसे ही महसूस किया तो क्या ग़लत किया...?
( जारी है )
A Hindi personal blog of fiction which includes short stories and poems. Some memoirs and articles are also there written in Hindi.
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Wednesday, October 27, 2010
Saturday, October 23, 2010
और इन्तज़ार ख़त्म हुआ पर...( 4 )
( किस्त - तेरह )
उन लोगों ने बड़ा अहसान-सा किया जो जनरल वार्ड में एक बेड दे दिया , पर अब एक और इन्तज़ार ने अपना फन काढ़ लिया था...डाक्टर के आने का...।
स्नेह की पलंग के ठीक सामने बनारस ( वाराणसी ) का कोई बन्दा था...बेहद बिन्दास और हँसमुख...। उसे वहाँ आए काफ़ी दिन हो गए थे । पता नहीं किस मर्ज़ का इलाज चल रहा था , पर सामने पेशाब की थैली के पास पट्टी बँधी थी...जिस पर हल्का सा खून भी था...। अगल-बगल दो बैग लटके...एक में पेशाब तो दूसरे में शायद गन्दा खून...। दर्द के बावजूद वह हँस रहा था...ठेठ बनारसी बोली बोल कर दूसरों को हँसा रहा था...। उसको हँसते देख कर पल भर के लिए अपनी पीड़ा भूल सी गई...। दो दिन बाद -" भइयाऽऽऽ , चला-चली का बखत ( वक़्त ) है..." कहता छुट्टी पाकर घर चला गया , फिर आने के लिए...। वह दुबारा लौटा कि नहीं , नहीं जानती...। पर उसका वह हँसता , दुबला चेहरा आज भी याद है ।
दुःख के कँटीले रास्ते पर सुख की तलाश...। अपनी तलाश में उसने उस अनजान माँ को भी शामिल कर लिया था जो अपनी लम्बी बीमारी के कारण पी.जी.आई में बसेरा ही बना बैठी थी...। बेटा व पति पास थे फिर भी वह अपनी अनिश्चित ज़िन्दगी को लेकर हमेशा रोती रहती थी । उसे भी जॉन्डिस ( पीलिया ) था...लीवर में कोई और भी खराबी थी...और भी जाने क्या-क्या...। दो महीने का लम्बा वक़्त उस जगह गुज़रने को था , पर फिर भी उसके सामने आशा की एक नन्ही सी किरन भी नहीं थी...।
हर कोई एक-दूसरे की छिटपुट जानकारी लेता , सान्त्वना देता और फिर एक बार अपने की पीड़ा में गुम हो जाता । मैं भी अलग नहीं थी उनसे...। बहन की पीड़ा के आगे कुछ भी सुझाई नहीं दे रहा था...। हमें वार्ड में आए करीब दो घण्टे बीत चुके थे पर कोई आया क्यों नहीं...?
काफ़ी देर बाद एक बेहद काली - नाटी सी नर्स आराम से चलती हुई आई...। उसके साथ एक जूनियर डाक्टर...डाक्टर के साथ एक और आदमी...। डाक्टर ने बहन की फ़ाइल पर एक उचटती सी निगाह डाली , उन्हें कुछ समझाया और फिर सधे कदमों से वापस चला गया ।
पता नहीं किस जनम के पापों की सज़ा भुगत रही थी स्नेह...। दूसरों को अपनी जान में कभी दुःख नहीं दिया , पर ईश्वर उसे दुःख दे रहा था...तिस पर नीचे , धरती के कसाई...। स्नेह के हाथों की नस काफ़ी पतली थी शायद...जल्दी दिखाई नहीं दे रही थी...। उसे वीगो लगना था ग्लूकोज़ के लिए...। उन दोनो ने स्नेह का वही हाथ पकड़ कर कस कर ठोंकना शुरू किया , जिस में महीने भर पहले ही फ़्रैक्चर हुआ था । वह दर्द से एकदम चीख उठी...। मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ , " सुनिएऽऽऽ, इस हाथ में फ़्रैक्चर है , हड्डी अभी ठीक से जुड़ी नहीं है...। आप दूसरे हाथ में वीगो लगा दीजिए...।"
सहसा वह काला आदमी नाग की तरह फुंफकारा , " एई मैडमऽऽऽ , आप किनारे हटिए और हमें अपना काम करने दीजिए...।"
" पर..." होंठो को भींच कर बहन ने मुझे आँखों से इशारा किया , चुप रहने का...। मैं कसमसा कर रह गई...। जी चाहा उस आदमी की कलाई को मरोड़ कर उसकी हड्डी तोड़ दूँ और फिर कस कर मरोड़ कर कहूँ , " क्यों , अब कैसा लग रहा ? "
" दीदीऽऽऽ , यहाँ ऐसा कुछ मत करना जिससे इन लोगों को मेरी दुर्दशा करने का बहाना मिल जाए...।"
स्नेह की डरी हुई आवाज़ मुझे भीतर तक सिहरा गई थी...। कितनी-कितनी बार यही बात दोहरा कर वह मेरी मिन्नतें करती रही थी और मैं हर बार नए सिरे से पस्त हो जाती...। अन्याय को न सहने वाली मैं कितनी लाचार हो गई थी...।
पहली बार मुझे अनुभव हुआ कि जेल और अस्पताल ( खास कर सरकारी ) में कुछ खास अन्तर नहीं होता । एक में कसूरवार यातना झेलता है तो दूसरे में बेक़सूर...। जेल में नम्बर के बैरक हैं और शक्ति के अनुसार सुविधा , तो यहाँ भी शक्ति और वैभव का गठजोड़ है...। इतनी समानता...? उफ़...! यातना की इंतहा भी...!
( जारी है )
उन लोगों ने बड़ा अहसान-सा किया जो जनरल वार्ड में एक बेड दे दिया , पर अब एक और इन्तज़ार ने अपना फन काढ़ लिया था...डाक्टर के आने का...।
स्नेह की पलंग के ठीक सामने बनारस ( वाराणसी ) का कोई बन्दा था...बेहद बिन्दास और हँसमुख...। उसे वहाँ आए काफ़ी दिन हो गए थे । पता नहीं किस मर्ज़ का इलाज चल रहा था , पर सामने पेशाब की थैली के पास पट्टी बँधी थी...जिस पर हल्का सा खून भी था...। अगल-बगल दो बैग लटके...एक में पेशाब तो दूसरे में शायद गन्दा खून...। दर्द के बावजूद वह हँस रहा था...ठेठ बनारसी बोली बोल कर दूसरों को हँसा रहा था...। उसको हँसते देख कर पल भर के लिए अपनी पीड़ा भूल सी गई...। दो दिन बाद -" भइयाऽऽऽ , चला-चली का बखत ( वक़्त ) है..." कहता छुट्टी पाकर घर चला गया , फिर आने के लिए...। वह दुबारा लौटा कि नहीं , नहीं जानती...। पर उसका वह हँसता , दुबला चेहरा आज भी याद है ।
दुःख के कँटीले रास्ते पर सुख की तलाश...। अपनी तलाश में उसने उस अनजान माँ को भी शामिल कर लिया था जो अपनी लम्बी बीमारी के कारण पी.जी.आई में बसेरा ही बना बैठी थी...। बेटा व पति पास थे फिर भी वह अपनी अनिश्चित ज़िन्दगी को लेकर हमेशा रोती रहती थी । उसे भी जॉन्डिस ( पीलिया ) था...लीवर में कोई और भी खराबी थी...और भी जाने क्या-क्या...। दो महीने का लम्बा वक़्त उस जगह गुज़रने को था , पर फिर भी उसके सामने आशा की एक नन्ही सी किरन भी नहीं थी...।
हर कोई एक-दूसरे की छिटपुट जानकारी लेता , सान्त्वना देता और फिर एक बार अपने की पीड़ा में गुम हो जाता । मैं भी अलग नहीं थी उनसे...। बहन की पीड़ा के आगे कुछ भी सुझाई नहीं दे रहा था...। हमें वार्ड में आए करीब दो घण्टे बीत चुके थे पर कोई आया क्यों नहीं...?
काफ़ी देर बाद एक बेहद काली - नाटी सी नर्स आराम से चलती हुई आई...। उसके साथ एक जूनियर डाक्टर...डाक्टर के साथ एक और आदमी...। डाक्टर ने बहन की फ़ाइल पर एक उचटती सी निगाह डाली , उन्हें कुछ समझाया और फिर सधे कदमों से वापस चला गया ।
पता नहीं किस जनम के पापों की सज़ा भुगत रही थी स्नेह...। दूसरों को अपनी जान में कभी दुःख नहीं दिया , पर ईश्वर उसे दुःख दे रहा था...तिस पर नीचे , धरती के कसाई...। स्नेह के हाथों की नस काफ़ी पतली थी शायद...जल्दी दिखाई नहीं दे रही थी...। उसे वीगो लगना था ग्लूकोज़ के लिए...। उन दोनो ने स्नेह का वही हाथ पकड़ कर कस कर ठोंकना शुरू किया , जिस में महीने भर पहले ही फ़्रैक्चर हुआ था । वह दर्द से एकदम चीख उठी...। मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ , " सुनिएऽऽऽ, इस हाथ में फ़्रैक्चर है , हड्डी अभी ठीक से जुड़ी नहीं है...। आप दूसरे हाथ में वीगो लगा दीजिए...।"
सहसा वह काला आदमी नाग की तरह फुंफकारा , " एई मैडमऽऽऽ , आप किनारे हटिए और हमें अपना काम करने दीजिए...।"
" पर..." होंठो को भींच कर बहन ने मुझे आँखों से इशारा किया , चुप रहने का...। मैं कसमसा कर रह गई...। जी चाहा उस आदमी की कलाई को मरोड़ कर उसकी हड्डी तोड़ दूँ और फिर कस कर मरोड़ कर कहूँ , " क्यों , अब कैसा लग रहा ? "
" दीदीऽऽऽ , यहाँ ऐसा कुछ मत करना जिससे इन लोगों को मेरी दुर्दशा करने का बहाना मिल जाए...।"
स्नेह की डरी हुई आवाज़ मुझे भीतर तक सिहरा गई थी...। कितनी-कितनी बार यही बात दोहरा कर वह मेरी मिन्नतें करती रही थी और मैं हर बार नए सिरे से पस्त हो जाती...। अन्याय को न सहने वाली मैं कितनी लाचार हो गई थी...।
पहली बार मुझे अनुभव हुआ कि जेल और अस्पताल ( खास कर सरकारी ) में कुछ खास अन्तर नहीं होता । एक में कसूरवार यातना झेलता है तो दूसरे में बेक़सूर...। जेल में नम्बर के बैरक हैं और शक्ति के अनुसार सुविधा , तो यहाँ भी शक्ति और वैभव का गठजोड़ है...। इतनी समानता...? उफ़...! यातना की इंतहा भी...!
( जारी है )
और इन्तज़ार ख़त्म हुआ पर... ( 3 )
( किस्त - बारह )
पी.जी.आई के लम्बे-चौड़े रास्ते पर इधर से उधर...फिर उधर से इधर...न जाने कितने घण्टों का सफ़र तय किया गुड़िया और अंकुर ने , उसका कोई हिसाब नहीं , पर उनके पैर और सब्र पूरी तरह से जवाब देते , इससे पहले ही एक डाक्टर ने बड़ी दया भरी निगाह से ताकते हुए कहा , " चलिएऽऽऽ , आप इतना परेशान हो रहे हैं तो किसी तरह गैस्ट्रो विभाग के जनरल वार्ड में एक बेड दे देता हूँ...। आप मरीज को ले आइए...।"
" पर डाक्टर...प्राइवेट वार्ड का क्या हुआ...?"
" आप प्राइवेट वार्ड तो भूल ही जाइए...। अरे यहाँ तो एक बेड के लिए भी मारामारी है और आप कमरे की बात कर रही हैं...। खाली हो जाएगा तो मैं खुद ही दे दूँगा...। आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं...।"
काला नाग ‘ इन्तज़ार ’ था , पर फुंफकार रहा था - वहाँ का स्टाफ़...। ज़िन्दगी में पहली बार शर्मिन्दगी , बेचारगी और मजबूरी का एक अजीब सा अहसास हुआ और लगा मानो हम जनरल वार्ड में नहीं , बल्कि किसी बड़े शहर के फुटपाथ पर पड़े हैं...एकदम गरीब और लाचार से दिखते हुए...। जिसका मन हुआ , आकर एक ठोकर मार कर चला गया...। शौचालय का नर्क यहाँ भी था । नर्स से लेकर झाड़ू लगाने वाली तक , सभी इस तरह डपट कर बोल रही थी जैसे वे सब बड़ी अधिकारी हों और हम सब उनके मातहत...।
आसपास कुल छः या सात बेड थे । किसी पर कोई ग्रामीण बैंक का मैनेजर भर्ती था तो किसी पर कोई बिजनेसमैन...। सबकी अपनी-अपनी प्रतिष्ठा था...। इन्हीं के बीच एक-दो सामान्य जन भी थे , पर हाँक सबके साथ एक सी थी...। कुछ इस तरह जैसे समाजवाद पूरी तरह इसी अस्पताल में उतर आया हो...। यहाँ न कोई छोटा , न कोई बड़ा...जूता एक बराबर...। इलाज कराना है तो पहला सफ़ल मन्त्र - सिर पर जूता खाओ , पर बोलना मत...बोले तो ख़ैर नहीं...।
मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था । बीमार बहन के साथ रह कर खुद भी बीमार सी हो गई थी । शरीर की ताकत निचुड़ गई थी पर भीतर की आवाज़ अब भी दबंग थी ।
बहन ( स्नेह ) डर गई...मेरी दबंगता से वह हमेशा डरती रही है...। उस दिन तो और भी डर गई , " दीदीऽऽऽ , कुछ बोलो मत...। तुम जानती नहीं , ये लोग अगर चिढ़ गए तो इलाज के बहाने ये सब मेरी दुर्दशा कर डालेंगे...। हम गन्दे बाथरूम में चले जाएँगे...तुम परेशान मत हो...।"
" नहीं ,मैं कुछ नहीं कहूँगी...पर किसी डाक्टर को तो आना चाहिए न...।" मैने उसे धीरज तो बँधा दिया पर भीतर से उबल रही थी । बाथरूम की सफ़ाई को लेकर जिस तरह से एक नर्स फुफकारी थी , कोई और जगह होती तो या तो उसके गाल लाल कर देती या घसीट कर उस नर्क में उसे ही धकेल देती , पर आह ! मेरी मजबूरी...! ज़िन्दगी में इतनी लाचार कभी नहीं हुई । उस वक़्त भी नहीं जब सिर्फ़ एक बेटी होने की वजह से मेरे तथाकथित ससुर अपशब्दों की बौछार करते किसी कटखने जीव की तरह काट खाने को दौड़ते थे...और उस समय भी नहीं जब पति नाम का जीव अपने चारित्रिक पतन को छिपाने के लिए त्रिया-च्रित्तर का रोल निभाता सारा दोष मुझपर मढ़ देता...। ज़िन्दगी मेरे लिए ईश्वर की दी हुई एक ऐसी सौगात थी जिसे हर हाल में मैं सम्हाल कर रखती थी । दूसरों के दिए ग़म को मैं झटक देती और खुद के लिए खुशी को जन्म देती । यही मेरी ताकत थी और इसी ताकत ने मुझे दबंग बनाया । पर मेरी बहन...? दुःख मैं सहती , हार वो जाती...। पर आज तो वह पूरी तरह से हारी हुई थी क्योंकि वह दुःख मेरा नहीं , पूरी तौर से उसका था और उसे सहना , न सहना उसका काम था...। शरीर से तो वह सह रही थी पर भीतर से हारती हुई दिन-ब-दिन चटक रही थी...सूखी हुई धरती की तरह...।
पर मेरी बहन ही क्यों ? रात के निपट अंधेरे में सबके अपने आँसू थे...मच्छरों की कटखनी चुभन थी और थी झींगुरों की भद्दी आवाज़...मरिजों की कराहट...ठोस ज़मीन से उपजी तन की अकड़ाहट...घोर निराशा...। क्या होगा ? स्नेह ठीक होगी या नहीं ? कानपुर के डाक्टरों ने तो जवाब दे दिया था , अगर यहाँ के डाक्टरों ने भी कुछ कह दिया तो...? आँखों में ठहरे आँसू के साथ यह सवाल भी ठहर गया था , पर इस ठहराव के बीच कोई नन्हा सा कंकड़ फेंक कर पानी में हल्की सी हलचल पैदा कर देता , " देखिएऽऽऽ , घबराइए नहीं...यहाँ काफ़ी बड़े और अनुभवी डाक्टर हैं...। जिसका कहीं इलाज नहीं , उसका यहाँ है न...। आप मेरा यक़ीन कीजिए , आपकी बहन बहुत जल्दी स्वस्थ होकर घर जाएँगी...।"
सान्त्वना मन का दर्द कुछ हद तक कम कर देती है पर तन की पीड़ा तो डाक्टर ही कम कर सकता है , दवा देकर...। स्नेह की पीठ में भयानक दर्द था । दर्द निवारक क्रीम की पूरी ट्यूब खाली हो जाती पूरे दिन में । थोड़ी देर दर्द कम रहता पर अगले ही क्षण कराहट...। मैं सारे समय खड़े रह कर या तो क्रीम मलती , या गर्म पानी की थैली देती...। छोटे से स्टूल पर बैठे-बैठे कमर टूट सी गई थी । खड़ी रहती तो टाँगें दुखने लगती...। बहन की पीड़ा के आगे अपना कष्ट कुछ भी नहीं था पर बावजूद इसके , एक अजीब सी बेचैनी थी जो जीने नहीं दे रही थी...। काश ! मेरे हाथ में कुछ होता...। बहन का ही नहीं , न जाने कितनों का कष्ट दूर कर देती...। जादू की छड़ी...कोई मन्त्र या फिर...?
( जारी है )
पी.जी.आई के लम्बे-चौड़े रास्ते पर इधर से उधर...फिर उधर से इधर...न जाने कितने घण्टों का सफ़र तय किया गुड़िया और अंकुर ने , उसका कोई हिसाब नहीं , पर उनके पैर और सब्र पूरी तरह से जवाब देते , इससे पहले ही एक डाक्टर ने बड़ी दया भरी निगाह से ताकते हुए कहा , " चलिएऽऽऽ , आप इतना परेशान हो रहे हैं तो किसी तरह गैस्ट्रो विभाग के जनरल वार्ड में एक बेड दे देता हूँ...। आप मरीज को ले आइए...।"
" पर डाक्टर...प्राइवेट वार्ड का क्या हुआ...?"
" आप प्राइवेट वार्ड तो भूल ही जाइए...। अरे यहाँ तो एक बेड के लिए भी मारामारी है और आप कमरे की बात कर रही हैं...। खाली हो जाएगा तो मैं खुद ही दे दूँगा...। आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं...।"
काला नाग ‘ इन्तज़ार ’ था , पर फुंफकार रहा था - वहाँ का स्टाफ़...। ज़िन्दगी में पहली बार शर्मिन्दगी , बेचारगी और मजबूरी का एक अजीब सा अहसास हुआ और लगा मानो हम जनरल वार्ड में नहीं , बल्कि किसी बड़े शहर के फुटपाथ पर पड़े हैं...एकदम गरीब और लाचार से दिखते हुए...। जिसका मन हुआ , आकर एक ठोकर मार कर चला गया...। शौचालय का नर्क यहाँ भी था । नर्स से लेकर झाड़ू लगाने वाली तक , सभी इस तरह डपट कर बोल रही थी जैसे वे सब बड़ी अधिकारी हों और हम सब उनके मातहत...।
आसपास कुल छः या सात बेड थे । किसी पर कोई ग्रामीण बैंक का मैनेजर भर्ती था तो किसी पर कोई बिजनेसमैन...। सबकी अपनी-अपनी प्रतिष्ठा था...। इन्हीं के बीच एक-दो सामान्य जन भी थे , पर हाँक सबके साथ एक सी थी...। कुछ इस तरह जैसे समाजवाद पूरी तरह इसी अस्पताल में उतर आया हो...। यहाँ न कोई छोटा , न कोई बड़ा...जूता एक बराबर...। इलाज कराना है तो पहला सफ़ल मन्त्र - सिर पर जूता खाओ , पर बोलना मत...बोले तो ख़ैर नहीं...।
मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था । बीमार बहन के साथ रह कर खुद भी बीमार सी हो गई थी । शरीर की ताकत निचुड़ गई थी पर भीतर की आवाज़ अब भी दबंग थी ।
बहन ( स्नेह ) डर गई...मेरी दबंगता से वह हमेशा डरती रही है...। उस दिन तो और भी डर गई , " दीदीऽऽऽ , कुछ बोलो मत...। तुम जानती नहीं , ये लोग अगर चिढ़ गए तो इलाज के बहाने ये सब मेरी दुर्दशा कर डालेंगे...। हम गन्दे बाथरूम में चले जाएँगे...तुम परेशान मत हो...।"
" नहीं ,मैं कुछ नहीं कहूँगी...पर किसी डाक्टर को तो आना चाहिए न...।" मैने उसे धीरज तो बँधा दिया पर भीतर से उबल रही थी । बाथरूम की सफ़ाई को लेकर जिस तरह से एक नर्स फुफकारी थी , कोई और जगह होती तो या तो उसके गाल लाल कर देती या घसीट कर उस नर्क में उसे ही धकेल देती , पर आह ! मेरी मजबूरी...! ज़िन्दगी में इतनी लाचार कभी नहीं हुई । उस वक़्त भी नहीं जब सिर्फ़ एक बेटी होने की वजह से मेरे तथाकथित ससुर अपशब्दों की बौछार करते किसी कटखने जीव की तरह काट खाने को दौड़ते थे...और उस समय भी नहीं जब पति नाम का जीव अपने चारित्रिक पतन को छिपाने के लिए त्रिया-च्रित्तर का रोल निभाता सारा दोष मुझपर मढ़ देता...। ज़िन्दगी मेरे लिए ईश्वर की दी हुई एक ऐसी सौगात थी जिसे हर हाल में मैं सम्हाल कर रखती थी । दूसरों के दिए ग़म को मैं झटक देती और खुद के लिए खुशी को जन्म देती । यही मेरी ताकत थी और इसी ताकत ने मुझे दबंग बनाया । पर मेरी बहन...? दुःख मैं सहती , हार वो जाती...। पर आज तो वह पूरी तरह से हारी हुई थी क्योंकि वह दुःख मेरा नहीं , पूरी तौर से उसका था और उसे सहना , न सहना उसका काम था...। शरीर से तो वह सह रही थी पर भीतर से हारती हुई दिन-ब-दिन चटक रही थी...सूखी हुई धरती की तरह...।
पर मेरी बहन ही क्यों ? रात के निपट अंधेरे में सबके अपने आँसू थे...मच्छरों की कटखनी चुभन थी और थी झींगुरों की भद्दी आवाज़...मरिजों की कराहट...ठोस ज़मीन से उपजी तन की अकड़ाहट...घोर निराशा...। क्या होगा ? स्नेह ठीक होगी या नहीं ? कानपुर के डाक्टरों ने तो जवाब दे दिया था , अगर यहाँ के डाक्टरों ने भी कुछ कह दिया तो...? आँखों में ठहरे आँसू के साथ यह सवाल भी ठहर गया था , पर इस ठहराव के बीच कोई नन्हा सा कंकड़ फेंक कर पानी में हल्की सी हलचल पैदा कर देता , " देखिएऽऽऽ , घबराइए नहीं...यहाँ काफ़ी बड़े और अनुभवी डाक्टर हैं...। जिसका कहीं इलाज नहीं , उसका यहाँ है न...। आप मेरा यक़ीन कीजिए , आपकी बहन बहुत जल्दी स्वस्थ होकर घर जाएँगी...।"
सान्त्वना मन का दर्द कुछ हद तक कम कर देती है पर तन की पीड़ा तो डाक्टर ही कम कर सकता है , दवा देकर...। स्नेह की पीठ में भयानक दर्द था । दर्द निवारक क्रीम की पूरी ट्यूब खाली हो जाती पूरे दिन में । थोड़ी देर दर्द कम रहता पर अगले ही क्षण कराहट...। मैं सारे समय खड़े रह कर या तो क्रीम मलती , या गर्म पानी की थैली देती...। छोटे से स्टूल पर बैठे-बैठे कमर टूट सी गई थी । खड़ी रहती तो टाँगें दुखने लगती...। बहन की पीड़ा के आगे अपना कष्ट कुछ भी नहीं था पर बावजूद इसके , एक अजीब सी बेचैनी थी जो जीने नहीं दे रही थी...। काश ! मेरे हाथ में कुछ होता...। बहन का ही नहीं , न जाने कितनों का कष्ट दूर कर देती...। जादू की छड़ी...कोई मन्त्र या फिर...?
( जारी है )
Thursday, October 21, 2010
और इन्तज़ार ख़त्म हुआ पर...( 2 )
( किस्त - ग्यारह )
मन में एक भ्रम था कि शायद नर्क जनरल वार्ड तक ही सीमित है...। आगे प्राइवेट वार्ड है , उसमें साफ़-सुथरा शौचालय , ए.सी की ठण्डी हवा , साफ़-सुथरा बिस्तर और सही देखभाल...। वहाँ जाकर हम नर्क की ओर देखेंगे भी नहीं...। किसी भी तरह पैसे का जुगाड़ करके भीषण दुःख के बीच सुख की एक नन्हीं सी लहर भी स्पर्श कर ली तो काफ़ी है , पर वाह रे अस्पताल...! वहाँ प्राइवेट वार्ड की कौन कहे , जनरल वार्ड में भी कोई बेड नहीं मिला...। प्राइवेट वार्ड के लिए रुपया जमा करने पर भी सिर्फ़ आश्वासन , " देखिएऽऽऽ , आज तो कहीं कोई बेड खाली नहीं है...। आप डाक्टर को दिखा लीजिए...वे रिफ़र करेंगे तो भर्ती तो कर लेंगे , पर फिर भी बेड के लिए आप को इन्तज़ार करना होगा...।"
थोड़ी देर बाद डाक्टर के कमरे के बाहर पस्त पड़े पसीने से बदबुआते मरीजों और तीमारदारों के साथ हम भी थे...। गुड़िया और सुनील कभी बेड का इन्तज़ाम करने बाहर भागते , डाक्टरों की मिन्नतें करते , तो कभी वापस फिर उस लम्बी लाइन की कतार में आ खड़े होते , जहाँ से उन्हें डाक्टर के पास जाना था...। स्नेह अपनी बीमारी की गम्भीरता का अहसास करती आँखें बन्द किए पड़ी थी । चारो तरफ़ से सवालों की बौछार लगी थी . " क्यों , क्या हुआ है इन्हें...?"
छोटी सी कहानी की तरह चन्द लाइनें दोहरा देती पर अब ऊब सी होने लगी थी...दूसरों से क्या मतलब...? वे अपने मरीज को क्यों नहीं देखते...? क्यों बार-बार मुड़ कर बेचारगी भरी आँखों से मेरी बहन की ओर इस तरह देखते हैं जैसे उससे कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया हो और अब बस्स...सज़ा सुनाए जाने भर की देर है...।
सज़ा में जैसे देर थी , पर इसे ख़त्म तो होना ही था...। करीब चार या पाँच बजे डाक्टर के यहाँ से खाली हुए तो फिर हॉल में आकर बैठ गए । अब तन की पूरी शक्ति निचुड़ चुकी थी...। हम सब भी शक्ल से बेहद कमज़ोर और बीमार से दिख रहे थे । थोड़ी देर की मशक्कत के बाद पास के एक होटल में कमरा मिला...। वहाँ जाकर राहत की साँस तो ली पर वह राहत स्थायी नहीं थी । मरीज के साथ कभी भी , कुछ भी हो सकता था । ईश्वर पर विश्वास अभी ज़र्रा भर बाकी था , सो उन्हीं के भरोसे रात काटी , पर सुबह होते ही...।
( जारी है )
मन में एक भ्रम था कि शायद नर्क जनरल वार्ड तक ही सीमित है...। आगे प्राइवेट वार्ड है , उसमें साफ़-सुथरा शौचालय , ए.सी की ठण्डी हवा , साफ़-सुथरा बिस्तर और सही देखभाल...। वहाँ जाकर हम नर्क की ओर देखेंगे भी नहीं...। किसी भी तरह पैसे का जुगाड़ करके भीषण दुःख के बीच सुख की एक नन्हीं सी लहर भी स्पर्श कर ली तो काफ़ी है , पर वाह रे अस्पताल...! वहाँ प्राइवेट वार्ड की कौन कहे , जनरल वार्ड में भी कोई बेड नहीं मिला...। प्राइवेट वार्ड के लिए रुपया जमा करने पर भी सिर्फ़ आश्वासन , " देखिएऽऽऽ , आज तो कहीं कोई बेड खाली नहीं है...। आप डाक्टर को दिखा लीजिए...वे रिफ़र करेंगे तो भर्ती तो कर लेंगे , पर फिर भी बेड के लिए आप को इन्तज़ार करना होगा...।"
थोड़ी देर बाद डाक्टर के कमरे के बाहर पस्त पड़े पसीने से बदबुआते मरीजों और तीमारदारों के साथ हम भी थे...। गुड़िया और सुनील कभी बेड का इन्तज़ाम करने बाहर भागते , डाक्टरों की मिन्नतें करते , तो कभी वापस फिर उस लम्बी लाइन की कतार में आ खड़े होते , जहाँ से उन्हें डाक्टर के पास जाना था...। स्नेह अपनी बीमारी की गम्भीरता का अहसास करती आँखें बन्द किए पड़ी थी । चारो तरफ़ से सवालों की बौछार लगी थी . " क्यों , क्या हुआ है इन्हें...?"
छोटी सी कहानी की तरह चन्द लाइनें दोहरा देती पर अब ऊब सी होने लगी थी...दूसरों से क्या मतलब...? वे अपने मरीज को क्यों नहीं देखते...? क्यों बार-बार मुड़ कर बेचारगी भरी आँखों से मेरी बहन की ओर इस तरह देखते हैं जैसे उससे कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया हो और अब बस्स...सज़ा सुनाए जाने भर की देर है...।
सज़ा में जैसे देर थी , पर इसे ख़त्म तो होना ही था...। करीब चार या पाँच बजे डाक्टर के यहाँ से खाली हुए तो फिर हॉल में आकर बैठ गए । अब तन की पूरी शक्ति निचुड़ चुकी थी...। हम सब भी शक्ल से बेहद कमज़ोर और बीमार से दिख रहे थे । थोड़ी देर की मशक्कत के बाद पास के एक होटल में कमरा मिला...। वहाँ जाकर राहत की साँस तो ली पर वह राहत स्थायी नहीं थी । मरीज के साथ कभी भी , कुछ भी हो सकता था । ईश्वर पर विश्वास अभी ज़र्रा भर बाकी था , सो उन्हीं के भरोसे रात काटी , पर सुबह होते ही...।
( जारी है )
Tuesday, October 19, 2010
और इन्तज़ार ख़त्म हुआ पर...( 1 )
( किस्त - दस )
सुबह के सात बजे के खड़े-खड़े आखिर बारह बजे रजिस्ट्रेशन की बारी आ ही गई...। लगा , इंतज़ार की घड़ी खत्म हो गई पर उस ख़त्म होने के बीच में कई चीजें टूटी-बिखरी...। कईयों की आस टूट गई तो कई हताशा में खुद बिखर गए...। हर कोई जल्दी-से-जल्दी निजात पाना चाहता था वहाँ से...उस लम्बी जानलेवा लाइन से...और इसी आशा में कोई कभी लाइन तोड़ कर आगे पहुँच जाता तो कभी दूसरी , बन्द खिड़की की ओर भागता , यह सुन कर कि वह भी भीड़ को देखते हुए बस खोली ही जाने वाली है । पर उसकी आशा निराशा में तब बदल जाती , जब गार्ड के साथ-साथ आगे खड़े लोग भी उसे अपशब्द कहते हुए पीछे धकिया देते...। धक्का-मुक्की के बीच इन्सानों का रेला चेन टूटे डिब्बों की तरह इधर-उधर डोलता...फिर स्थिर होता...।
शुक्र था कि भयंकर उमस , धक्का-मुक्की और लम्बे इन्तज़ार के कारण पैरों में बढ़ते दर्द के बावजूद अंकुर ने अपनी जगह नहीं बदली और कछुए की चाल से आगे बढ़ती लाइन के साथ ही आगे बढ़ा ।
रजिस्ट्रेशन होने के बाद हमने राहत की साँस ली , पर यह क्या ? अंकुर और गुड़िया तो भीड़ के साथ ही अन्दर की ओर भागे । वहाँ डाक्टर को दिखाने के लिए नम्बर लेना था , फिर मरीज को लेकर जाना । एक और राक्षसी इन्तज़ार...? हताशा के काले बादल हमारी आँखों में उमड़-घुमड़ रहे थे पर बरस नहीं पा रहे थे...।
पी.जी.आई पहली बार आए थे इसी लिए पता नहीं था कि घर से निकलते वक़्त ही हमने अनजाने ही एक ऐसे अंधेरे रास्ते पर अपने कदम डाल दिए हैं जो आगे चल कर संकरा...और संकरा होता चला जाएगा...। कभी फुरसत मिले तो दूसरे से मिलने के बहाने ही सही , ऐसे संकरे रास्ते से गुज़रिएगा जरूर...जिसके आजू-बाजू गन्दगी से बजबजाती नालियाँ हों , कुत्ते...भेड़-बकरियाँ...नंग-धड़ंग बच्चे छुट्टे घूम रहे हों और बीच में गढ्ढों से भरी ऊबड़-खाबड़ सड़क...एक-दूसरे से टकराते-धकियाते वाहन और आसपास गूँजती माँ-बहन की गालियाँ...। शायद यह गुज़रना आज के असंवेदनशील होते जा रहे मन को हल्के से दर्द का अहसास कराए...और साथ ही सोचने पर मजबूर भी करे कि एक तरफ़ दुनिया बेहद रंगीन और रोशनी से भरी हुई है , पर दूसरी तरफ़ एक ऐसा गहरा अंधेरा है जिसे देख कर रुह भी काँप जाती है...।
कानपुर के हैलट और उर्सला अस्पताल का नर्क अपनी आँखों से देख कर मैं सिहर गई थी और उस सिहरन से बचने के लिए ही समाज-सेवा का भूत अपने सिर से उतार लिया था , पर उस वक़्त , जब मेरी अपनी बहन को मेरी सेवा की जरूरत थी , उससे कैसे दामन छुड़ाती...? नर्क इस कदर मेरे पीछे पड़ गया था कि उसने भागने का कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा था...।
( जारी है )
सुबह के सात बजे के खड़े-खड़े आखिर बारह बजे रजिस्ट्रेशन की बारी आ ही गई...। लगा , इंतज़ार की घड़ी खत्म हो गई पर उस ख़त्म होने के बीच में कई चीजें टूटी-बिखरी...। कईयों की आस टूट गई तो कई हताशा में खुद बिखर गए...। हर कोई जल्दी-से-जल्दी निजात पाना चाहता था वहाँ से...उस लम्बी जानलेवा लाइन से...और इसी आशा में कोई कभी लाइन तोड़ कर आगे पहुँच जाता तो कभी दूसरी , बन्द खिड़की की ओर भागता , यह सुन कर कि वह भी भीड़ को देखते हुए बस खोली ही जाने वाली है । पर उसकी आशा निराशा में तब बदल जाती , जब गार्ड के साथ-साथ आगे खड़े लोग भी उसे अपशब्द कहते हुए पीछे धकिया देते...। धक्का-मुक्की के बीच इन्सानों का रेला चेन टूटे डिब्बों की तरह इधर-उधर डोलता...फिर स्थिर होता...।
शुक्र था कि भयंकर उमस , धक्का-मुक्की और लम्बे इन्तज़ार के कारण पैरों में बढ़ते दर्द के बावजूद अंकुर ने अपनी जगह नहीं बदली और कछुए की चाल से आगे बढ़ती लाइन के साथ ही आगे बढ़ा ।
रजिस्ट्रेशन होने के बाद हमने राहत की साँस ली , पर यह क्या ? अंकुर और गुड़िया तो भीड़ के साथ ही अन्दर की ओर भागे । वहाँ डाक्टर को दिखाने के लिए नम्बर लेना था , फिर मरीज को लेकर जाना । एक और राक्षसी इन्तज़ार...? हताशा के काले बादल हमारी आँखों में उमड़-घुमड़ रहे थे पर बरस नहीं पा रहे थे...।
पी.जी.आई पहली बार आए थे इसी लिए पता नहीं था कि घर से निकलते वक़्त ही हमने अनजाने ही एक ऐसे अंधेरे रास्ते पर अपने कदम डाल दिए हैं जो आगे चल कर संकरा...और संकरा होता चला जाएगा...। कभी फुरसत मिले तो दूसरे से मिलने के बहाने ही सही , ऐसे संकरे रास्ते से गुज़रिएगा जरूर...जिसके आजू-बाजू गन्दगी से बजबजाती नालियाँ हों , कुत्ते...भेड़-बकरियाँ...नंग-धड़ंग बच्चे छुट्टे घूम रहे हों और बीच में गढ्ढों से भरी ऊबड़-खाबड़ सड़क...एक-दूसरे से टकराते-धकियाते वाहन और आसपास गूँजती माँ-बहन की गालियाँ...। शायद यह गुज़रना आज के असंवेदनशील होते जा रहे मन को हल्के से दर्द का अहसास कराए...और साथ ही सोचने पर मजबूर भी करे कि एक तरफ़ दुनिया बेहद रंगीन और रोशनी से भरी हुई है , पर दूसरी तरफ़ एक ऐसा गहरा अंधेरा है जिसे देख कर रुह भी काँप जाती है...।
कानपुर के हैलट और उर्सला अस्पताल का नर्क अपनी आँखों से देख कर मैं सिहर गई थी और उस सिहरन से बचने के लिए ही समाज-सेवा का भूत अपने सिर से उतार लिया था , पर उस वक़्त , जब मेरी अपनी बहन को मेरी सेवा की जरूरत थी , उससे कैसे दामन छुड़ाती...? नर्क इस कदर मेरे पीछे पड़ गया था कि उसने भागने का कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा था...।
( जारी है )
रोइए...कि आप नर्क में हैं
( किस्त - नौ )
लखनऊ के पी.जी.आई में कहाँ-कहाँ से तो लोग आते हैं...बक्सर , गोण्डा , गोरखपुर , लखीमपुर , देवरिया और बिल्कुल पास के शहर कानपुर से भी...। कुछ ऐसे गाँव या शहर जहाँ या तो छोटे-मोटे डाक्टर हैं या फिर मुन्नाभाई छाप...। हार कर उनके पास ज़िन्दगी की आस का एक आखिरी सिरा बचता है और वह है सरकारी अस्पताल...। प्राइवेट अस्पताल के लिए सबकी औकात नहीं होती...वहाँ ज्यादा तोड़फोड़ की भी संभावना नहीं होती...। रही सरकारी अस्पताल की बात...मरीज के मर जाने पर जी भर कर तोड़-फोड़ कीजिए...डाक्टर को गाली दीजिए और फिर खुद भी जी भर कर गाली और लात-घूँसे खाइए...अपने बाप का क्या जाता है...। सरकारी है सब...सरकार जाने...। मरीज तो मर गया न...दो-चार घण्टे बवाल हुआ , फिर शान्त...। घर जाइए , मातम मनाइए...। डाक्टर को कृपया बख़्श दीजिए...। एक आपका ही तो प्रिय नहीं यहाँ मरने के लिए...अभी औरों को भी तो मरना है जनाब...। थोड़ा समझदारी से काम लीजिए ...। डेरा जमाया नर्क में और सुविधाएँ चाहते हैं स्वर्ग की ?
हाँ , यह सरकारी अस्पताल है भैयाऽऽऽ , सारी सुविधा है...जहाँ चाहो , हग-मूत लो...चाहो , थूक लो...जहाँ चाहो , डेरा जमा लो...कोई कुछ नहीं कहेगा , और अगर कहे भी तो क्या ? इतनी बेहयाई तो इलाज के वक़्त हर कोई साथ लाता ही है...।
ख़ैर , भीतर नर्क में चार-पाँच शौचालय बने थे...भीषण गन्दगी से अटे पड़े...। पीछे प्याला था , नल था चूता हुआ पर डिब्बा नहीं था । पूरी आज़ादी थी...। कोई पायदान पर गन्दगी कर गया था तो कोई उसके आगे...। शौचालय अच्छा-खासा खेत सरीखा था...जहाँ चाहो बैठ लो...। मुझे लगा कि देश कि देश की एक-तिहाई आबादी नर्क में जीने की आदी है और जो नहीं हैं उन्हें सरकार बना रही है...पर नर्क के पहरेदार...? उनकी भी तो कोई जिम्मेदारी बनती है । माना कि नर्क मरीज और उनके तीमारदार बनाते हैं पर उनसे आप मोटी फीस भी तो वसूलते हैं किसी न किसी बहाने...। तो क्या उस फीस का एक अंश उस नर्क की सफ़ाई में नहीं खर्च किया जा सकता ? बाहर बार-बार चकाचक पोंछा मार कर आनेवालों को आकर्षित करने की बजाए यदि दस-पन्द्रह बार शौचालय की सफ़ाई की जाए , वहाँ ठीक से पानी-रोशनी की व्यवस्था की जाए तो इसमें हर्ज ही क्या है ? हमारे शॉपिंग मॉल में भी तो हर तरह की , अच्छे-बुरों की भीड़ उमड़ती है पर उनके शौचालय में ज़रा भी गन्दगी नहीं...। शॉपिंग मॉल्स की तरह अस्पतालों को भी भव्य आकार देकर भीड़ तो जुटा ली पर उससे उत्पन्न गन्दगी को दूर करने का रास्ता अपनाना कठिन लगा ?
यहाँ पैर रखने की जगह नहीं थी पर मरता क्या न करता ? एक छोटा सा कोना देख कर मैं और स्नेह दोनो ही फ़ारिग हुए , पानी कहीं नहीं था अतः दूसरों की तरह हम भी अपना काम कर बाहर आ गए पर उस एक क्षण में गन्दगी में खड़े जैसे सदियाँ बीत गई...छिः...।
बेहद लम्बे-चौड़े हॉल के एक किनारे रखे सोफ़े पर गुड़िया ने एक कोना किसी तरह छेंक रखा था । उस पर स्नेह को बैठा कर बड़ी बेचारगी से अंकुर की ओर देखा...। वह काफ़ी देर से खड़े-खड़े जैसे पस्त सा हो गया था । सभी के माथे से पसीने की धार बह रही थी । ऊपर छत पर टँगा पंखा भीड़ के आगे हार गया था ।
अंकुर हार मानने को तैयार नहीं था । वह उन लोगों में से नहीं था जो अच्छे वक़्त में प्यार का डंका बजाते गले लग जाते हैं , पर दुःख के समय खाली हाथ होने के भय से साथ छोड़ देते हैं । स्नेह ने अपनी जमा-पूँजी में से कफ़ी हिस्सा अपनी सबसे बड़ी बहन के चारों बच्चों पर भी क़ुर्बान किया था पर अपनी नानी की मौत के बाद उन्होंने ननिहाल की ओर मुड़ कर भी नहीं देखा...। उन्होंने तो यह भी नहीं सोचा कि जिन मौसियों माया और स्नेह ने रात-रात भर जाग कर उनके लिए स्वेटर बुने , जिन्होंने उनकी हथेली पर शगुन के नाम पर ढेरों रुपया रखा और जिन्होंने उनकी शादी में रात-दिन नहीं देखा , एक बार...बस एक बार उनकी ओर मुड़ कर देखते तो कि नानी के न रहने पर वह अकेली तो नहीं ?
पर अंकुर उनकी तरह स्वार्थी नहीं...। जिस बुआ ने उसे पाल-पोस कर इतना बड़ा किया , उनके लिए यह मेहनत कुछ भी नहीं...। उसके खून की एक-एक बूँद भी अगर उनके काम आई तो वह देगा । रजिस्ट्रेशन की तो औक़ात ही क्या ? कितनी भी परेशानी हो , रजिस्ट्रेशन तो वह करा कर ही दम लेगा...( और बाद में खून की जरूरत पड़ने पर अंकुर के अलावा छोटे भाइयों सुनील और विवेक ने अपना खून दिया भी...। )
( जारी है )
लखनऊ के पी.जी.आई में कहाँ-कहाँ से तो लोग आते हैं...बक्सर , गोण्डा , गोरखपुर , लखीमपुर , देवरिया और बिल्कुल पास के शहर कानपुर से भी...। कुछ ऐसे गाँव या शहर जहाँ या तो छोटे-मोटे डाक्टर हैं या फिर मुन्नाभाई छाप...। हार कर उनके पास ज़िन्दगी की आस का एक आखिरी सिरा बचता है और वह है सरकारी अस्पताल...। प्राइवेट अस्पताल के लिए सबकी औकात नहीं होती...वहाँ ज्यादा तोड़फोड़ की भी संभावना नहीं होती...। रही सरकारी अस्पताल की बात...मरीज के मर जाने पर जी भर कर तोड़-फोड़ कीजिए...डाक्टर को गाली दीजिए और फिर खुद भी जी भर कर गाली और लात-घूँसे खाइए...अपने बाप का क्या जाता है...। सरकारी है सब...सरकार जाने...। मरीज तो मर गया न...दो-चार घण्टे बवाल हुआ , फिर शान्त...। घर जाइए , मातम मनाइए...। डाक्टर को कृपया बख़्श दीजिए...। एक आपका ही तो प्रिय नहीं यहाँ मरने के लिए...अभी औरों को भी तो मरना है जनाब...। थोड़ा समझदारी से काम लीजिए ...। डेरा जमाया नर्क में और सुविधाएँ चाहते हैं स्वर्ग की ?
हाँ , यह सरकारी अस्पताल है भैयाऽऽऽ , सारी सुविधा है...जहाँ चाहो , हग-मूत लो...चाहो , थूक लो...जहाँ चाहो , डेरा जमा लो...कोई कुछ नहीं कहेगा , और अगर कहे भी तो क्या ? इतनी बेहयाई तो इलाज के वक़्त हर कोई साथ लाता ही है...।
ख़ैर , भीतर नर्क में चार-पाँच शौचालय बने थे...भीषण गन्दगी से अटे पड़े...। पीछे प्याला था , नल था चूता हुआ पर डिब्बा नहीं था । पूरी आज़ादी थी...। कोई पायदान पर गन्दगी कर गया था तो कोई उसके आगे...। शौचालय अच्छा-खासा खेत सरीखा था...जहाँ चाहो बैठ लो...। मुझे लगा कि देश कि देश की एक-तिहाई आबादी नर्क में जीने की आदी है और जो नहीं हैं उन्हें सरकार बना रही है...पर नर्क के पहरेदार...? उनकी भी तो कोई जिम्मेदारी बनती है । माना कि नर्क मरीज और उनके तीमारदार बनाते हैं पर उनसे आप मोटी फीस भी तो वसूलते हैं किसी न किसी बहाने...। तो क्या उस फीस का एक अंश उस नर्क की सफ़ाई में नहीं खर्च किया जा सकता ? बाहर बार-बार चकाचक पोंछा मार कर आनेवालों को आकर्षित करने की बजाए यदि दस-पन्द्रह बार शौचालय की सफ़ाई की जाए , वहाँ ठीक से पानी-रोशनी की व्यवस्था की जाए तो इसमें हर्ज ही क्या है ? हमारे शॉपिंग मॉल में भी तो हर तरह की , अच्छे-बुरों की भीड़ उमड़ती है पर उनके शौचालय में ज़रा भी गन्दगी नहीं...। शॉपिंग मॉल्स की तरह अस्पतालों को भी भव्य आकार देकर भीड़ तो जुटा ली पर उससे उत्पन्न गन्दगी को दूर करने का रास्ता अपनाना कठिन लगा ?
यहाँ पैर रखने की जगह नहीं थी पर मरता क्या न करता ? एक छोटा सा कोना देख कर मैं और स्नेह दोनो ही फ़ारिग हुए , पानी कहीं नहीं था अतः दूसरों की तरह हम भी अपना काम कर बाहर आ गए पर उस एक क्षण में गन्दगी में खड़े जैसे सदियाँ बीत गई...छिः...।
बेहद लम्बे-चौड़े हॉल के एक किनारे रखे सोफ़े पर गुड़िया ने एक कोना किसी तरह छेंक रखा था । उस पर स्नेह को बैठा कर बड़ी बेचारगी से अंकुर की ओर देखा...। वह काफ़ी देर से खड़े-खड़े जैसे पस्त सा हो गया था । सभी के माथे से पसीने की धार बह रही थी । ऊपर छत पर टँगा पंखा भीड़ के आगे हार गया था ।
अंकुर हार मानने को तैयार नहीं था । वह उन लोगों में से नहीं था जो अच्छे वक़्त में प्यार का डंका बजाते गले लग जाते हैं , पर दुःख के समय खाली हाथ होने के भय से साथ छोड़ देते हैं । स्नेह ने अपनी जमा-पूँजी में से कफ़ी हिस्सा अपनी सबसे बड़ी बहन के चारों बच्चों पर भी क़ुर्बान किया था पर अपनी नानी की मौत के बाद उन्होंने ननिहाल की ओर मुड़ कर भी नहीं देखा...। उन्होंने तो यह भी नहीं सोचा कि जिन मौसियों माया और स्नेह ने रात-रात भर जाग कर उनके लिए स्वेटर बुने , जिन्होंने उनकी हथेली पर शगुन के नाम पर ढेरों रुपया रखा और जिन्होंने उनकी शादी में रात-दिन नहीं देखा , एक बार...बस एक बार उनकी ओर मुड़ कर देखते तो कि नानी के न रहने पर वह अकेली तो नहीं ?
पर अंकुर उनकी तरह स्वार्थी नहीं...। जिस बुआ ने उसे पाल-पोस कर इतना बड़ा किया , उनके लिए यह मेहनत कुछ भी नहीं...। उसके खून की एक-एक बूँद भी अगर उनके काम आई तो वह देगा । रजिस्ट्रेशन की तो औक़ात ही क्या ? कितनी भी परेशानी हो , रजिस्ट्रेशन तो वह करा कर ही दम लेगा...( और बाद में खून की जरूरत पड़ने पर अंकुर के अलावा छोटे भाइयों सुनील और विवेक ने अपना खून दिया भी...। )
( जारी है )
Wednesday, October 13, 2010
रोइए...कि आप नर्क में हैं
( किस्त- आठ )
तीखी धूप में हम सब का पूरा बदन जैसे जल रहा था और हम सब बेहद थके हुए थे , पर बावजूद इसके कोई किसी को दोष नहीं दे रहा था । गुड़िया और भतीजा अंकुर चुपचाप रजिस्ट्रेशन खिड़की की ओर चले गए । करीब सत्तर-अस्सी लोगों के बाद कहीं जाकर अंकुर को खड़े होने की जगह मिली । माथे का पसीना पोंछते वह चुपचाप लम्बी लाइन के पीछे खड़ा हो गया और बेचैनी से अपनी बारी का इंतज़ार करने लगा । स्नेह को बीच-बीच में दो-चार घूँट पानी के पिला देते...। वह पीती , फिर आँखें बन्द कर लेती कुछ इस तरह जैसे अनन्त आकाश का जायजा ले रही हो बन्द आँखों से...।
छोटे भाई राजू की आँखें भरी हुई थी । वह स्नेह का पैर सहला रहा था । मेरे भीतर भी जैसे रुलाई फूट रही थी । कैसे होगा इलाज...? अपने ही शहर में इलाज हो जा्ता तो ज़्यादा अच्छा था...इस कष्टप्रद प्रक्रिया से गुज़रना तो न पड़ता...। अपने शहर में क्या कोई भी ऐसा योग्य डाक्टर नहीं जो इस तरह के गम्भीर रोगियों के इलाज करने का जिम्मा ले सके ? बड़े-बड़े गैस्ट्रोलॉजिस्ट का नाम तो सुना है , फिर क्यों हमारे डाक्टर ने यहाँ भेजा...?
ये कई सवाल थे जो वक़्त के साथ आगे सरक तो रहे थे पर बीच में ठहर भी जाते...ठीक उस लाइन की तरह जो रजिस्ट्रेशन खिड़की से लेकर बाहर सड़क पर जाकर ठहर सी गई थी...न आगे खिसक रही थी और न पीछे...।
समय सात बजे का पर खिड़की खुली बड़े आराम से आठ बजे...। उसके खुलते ही धक्का-मुक्की...रेलमपेल...। हर कोई आगे जाना चाह रहा था । जितनी जल्दी हो सके , रजिस्ट्रेशन करवा कर भर्ती कर दें । देर हो गई तो दूर ज़मीन पर , टैक्सी की खौलती चादर के नीचे या फिर खुले आसमान तले गर्म , सूखी घास पर लेटा मरीज कहीं सरक न जाए...। पर उन्हें क्या पता था कि यहाँ मरीज का सरकना या न सरकना उतना महत्वपूर्ण नहीं था , जितना महत्वपूर्ण था एक और लम्बी , उबाऊ , दर्दभरी प्रक्रिया से गुज़रना...और यह कष्टप्रद प्रक्रिया थी , डाक्टर को दिखाना...भर्ती होने के लिए उनकी रज़ामन्दी लेना...। हज़ारों की संख्या में मरीज...डाक्टर करे भी तो क्या करे...? उनके लिए अपनी खुशियाँ तो तबाह नहीं कर सकते न...। वे आराम से आएँगे...उसके बाद नम्बर पुकारा जाएगा...एक-एक कर आराम से आइए...एक-दूसरे को धक्का मत दीजिए । आपका प्रिय इतना कमज़ोर नहीं कि बिना इलाज के मर जाए...। अरे , अभी तो उसका लम्बा इलाज होगा , फिर मरेगा न...।
बगल में पसीने से बदबुआता एक ठिगना सा आदमी खड़ा बड़बड़ा रहा था , " कल से दौड़ रहे हैं रजिस्ट्रेशन के लिए...साला नम्बर आने से पहले ही खिड़की बन्द हो गई...। यहाँ तो..." एक भद्दी सी गाली हवा में तैरी कि तभी...
" दीदी...बाथरूम जाना है...।" टैक्सी में काफ़ी देर से लेटी स्नेह सहारा लेकर धीरे से उठ बैठी थी । भीतर हॉल में बैठने की जगह तलाशने गुड़िया और सुनील गए थे । उन्हें फोन किया तो उसने कहा ," दीदी , भीतर आ जाओ...यहाँ थोड़ी सी जगह मिल गई है । अगर हम बाहर आएँगे तो यह भी छिन जाएगी और हाँ , यहाँ सामने ही बाथरूम भी है...।"
मन दुविधा में पड़ गया । स्नेह का अशक्त शरीर और इतना लम्बा रास्ता...। क्या वह पैदल चलकर मीलों लम्बाई का अहसास कराने वाले रास्ते को पार कर पाएगी ? भीतर सैकड़ों की भीड़ में गिनती की कुर्सियों के लिए मारामारी थी , फिर...?
फिर क्या...बहन के तो अभी हाथ-पैर सलामत थे । जो एकदम टूटे-फूटे थे , वे भी अपनी टूट-फूट के लिए लिखा-पढ़ी करके कुर्सियाँ ले रहे थे और हम...।
बहन को दोनो तरफ़ से पकड़ कर चल तो सकते थे...हमने वह किया भी...। हाँफ़ते-काँपते किसी तरह बाथरूम पहुँच ही गए और फिर भीतर...? नर्क की ज़मीन पर हमने पूरी तरह पाँव रख दिया था...। छिः , इतनी गन्दगी...? इतनी गन्दगी तो शायद असली नर्क में भी नहीं होगी पर यह गन्दगी करता कौन है...?
मेरे मुँह बिचकाने पर प्याले के बाहर धार छोड़ता शख़्स बड़ी बुद्धिमत्ता से बोला ," हम ही न...हम क्यों नहीं बाथरूम को साफ़-सुथरा रखते...? क्यों नहीं प्याले को ठीक से इस्तेमाल करते...? क्यों नहीं ठीक से पानी डालते...?" प्रलाप-सा करता , भीतर गन्दगी छोड़ कर बिना पानी डाले वह बाहर चला गया । जी चाहा अभी दौड़ कर उसे कॉलर समेत भीतर घसीट लाऊँ और उसके थुलथुले गाल पर एक जोरदार झापड़ रसीद कर कहूँ , " हरामज़ादेऽऽऽ , लेक्चर देना बहुत आता है , पर करना कुछ नहीं...। तेरे जैसे जानवर ही यहाँ गन्दगी फैलाते हैं और भोगते हैं हम जैसे साफ़-सुथरे लोग...।" बाद में किसी ने बताया कि वह वहीं का आदमी था...सफ़ाई कर्मचारी या और कोई...???
सरकारी अस्पताल में अगर डाक्टर , नर्स या अन्य कर्मचारी लापरवाह हो जाते हैं तो क्या मरीज और उसके तीमारदार भी इतने लापरवाह हो जाते हैं कि बेशर्मी की हद पार कर इधर-उधर गन्दगी फैलाते हैं और फिर उसी गन्दगी में पाँव धर कर बाहर जाते हैं...। ऐसा करते समय क्या उन्हें ज़रा भी घिन नहीं आती ?
( जारी है )
Monday, October 11, 2010
रोइए...कि आप नर्क में हैं
( किस्त - सात )
मौत से हाथ मिला लेने वाले इंसान और सरकारी अस्पताल का रिश्ता बेहद अजीब और क़रीबी है...। अजीब इसलिए क्योंकि कोई भी वहाँ ख़ुशी से नहीं जाना चाहता ...एक विचित्र सी आवाज़ होती है जो चुपके से तीमारदारों से कहती है कि चलो , नर्क का द्वार खुद अपने हाथों से अपने प्रिय के लिए खोलो...। यह आवाज़ का ही सम्मोहन होता है कि सबका दिमाग़ काम करना बन्द कर देता है । ऊहापोह के फिसलन भरे रास्ते पर वह बस फिसलता ही चला जाता है...और जब होश आता है तो वह अपने को एक ऐसी खाई में पाता है जहाँ चारो तरफ़ बस अंधकार ही अंधकार है । सच , अजीब रिश्ते की यह अजीब दास्तान है । अब बात है , क़रीबी रिश्ते की...तो वह् इस लिए कि चारो तरफ़ से द्वार बंद हो जाने पर एक यही अस्पताल ऐसा होता है , जो क़रीबी रिश्तेदार की तरह जल्दी स्वीकार तो लेता है , पर ज़्यादा दिन ठहरने पर ऊब भी जाता है । मेहमान कम ही दिन का अच्छा लगता है...जिसके ज़्यादा दिन ठहरने की उम्मीद हो , उसकी ओर ध्यान देना बन्द कर दो , वह परेशान हो कर खुद ही चला जाएगा ।
पी.जी.आई अपने क़रीबियों से बड़ा अच्छा रिश्ता निभाता है...किसी को पता भी नहीं चलता...। कुछ दिन और ठहर जाने के भय से जब यह क़रीबी रिश्तेदार पर ध्यान देना बन्द कर देता है तब हारकर मेहमान चला ही जाता है ।
लगभग आधे शहर को अपने भीतर समाए यह अस्पताल लखनऊ में ही नहीं बल्कि बाहर भी अपने नाम को ले जाकर एक अजब किरदार निभा रहा है । एक ही प्लेटफ़ार्म पर न जाने कितनी गाड़ियाँ रुकती हैं । टिकट ( रजिस्ट्रेशन) खिड़की खुलने का समय सात से बारह बजे तक...पर भीड़ और देरी से बचने के लिए लोग सुबह पाँच बजे से ही डट जाते हैं । मरीज लम्बे-चौड़े , विशालकाय हॉल में रखे दो-चार पलंगनुमा सोफ़े पर पस्त पड़ जाते हैं , घर का कोई सदस्य उनके पास , तो कोई लाइन में धक्का खाता हुआ...। चारो तरफ़ भीड़ ही भीड़...झाँव-झाँव...एक अजीब सी उथल-पुथल...। किसी बड़े शहर का बड़ा स्टेशन...?
हम लोगों का कभी इससे वास्ता नहीं पड़ा था । यद्यपि दूर-दराज के कई रिश्तेदार वहाँ जाकर वापस अपने घर आए थे और कुछ समय बाद लम्बे सफ़र पर निकल गए , पर किसी ने कभी गहराई से वहाँ की स्थिति को नापा ही नहीं...नापा तो अपनी कमी को...अन्तिम मोड़ पर हैं , डाक्टर कोई भगवान तो नहीं...।
दोस्तों , मानती हूँ कि डाक्टर भगवान नहीं , पर एक अच्छे इंसान तो हो सकते हैं न ? ख़ैर छोड़िए...हमारे समाज की अच्छाई-बुराई इस पेशे में भी है , पर रंज तब होता है जब आप इसके बुरे पहलू में फँस जाते हैं ।
वहाँ अच्छे इंसान भी बसते हैं पर उनसे वास्ता पड़ता तो इन पन्नों की शक़्ल कुछ और होती...। मैने तो जो देखा , जो भुगता , उससे एक ऐसी कड़वाहट घुल गई है मन में जो शायद ताउम्र धुल न पाए ।
वहाँ पाँव धरते ही अपरिचित कष्ट से दो-दो हाथ...पहुँचते ही कराहते , धक्का खाते , इधर-उधर पस्त पड़े लोगों से सामना , आसपास खड़ी ढेर सारी कारें , टैम्पो , टैक्सियाँ...हर कोई हाँफता-काँपता , ढेर सारे सामानों से लँदा-फँदा...। यात्रा कितनी लम्बी है , कोई नहीं जानता । पड़ाव आएगा भी कि नहीं , कोई नहीं जानता । हम भी नहीं जानते थे...जानते थे तो सिर्फ़ इतना कि जल्दी से जल्दी वहाँ पहुँचना है । पर बावजूद इसके यह नहीं पता था कि ज़रा सी देरी हो जाने पर इस क़दर तपना पड़ सकता है चिटकती धूप में कि नानी याद आ जाए...।
हम लोग अपनी समझ से सुबह के साढ़े तीन बजे ही टैक्सी से चल दिए थे पर वाह रे जाम...! रोज हज़ारों की संख्या में घटते हैं लोग , पर फिर भी इतनी भीड़...?
कानपुर से लखनऊ पहुँचते-पहुँचते सात बज गए । टैक्सी सीधे जाकर पी.जी.आई के गेट पर रुकी । रजिस्ट्रेशन खिड़की से सटते हुए बाहर गेट तक एक लम्बी लाइन लग चुकी थी । उसे देखते ही हमारे पसीने छूट गए । आसमान पर सूरज अपने पूरे तीखे तेवर दिखा रहा था और नीचे हॉल में सिक्योरिटी गार्ड...। दोनो तरफ़ आग थी...।
तीन घण्टे की यात्रा में हम लोग तो थक ही गए थे पर बहन का तो बहुत बुरा हाल था । उसकी पीली और कमज़ोर सी आँखों में एक ऐसी बेचारगी भरी थी कि उधर देखा नहीं जा रहा था । मेरी गोद में सिर और छोटे भाई की गोद में पैर रखे वह सोने का बहाना करती आई थी , पर बावजूद इसके , उसकी थकान साफ़ दिखाई पड़ रही थी । सुबह से न उसने कुछ मुँह में डाला था , न हमने...। वक़्त हाथ से सरकता जा रहा था । शायद उसे भी अहसास था , तभी हमारा सहारा लेकर वह धीरे से उठी , खिड़की के बाहर की लम्बी लाइन देखी और घबरा कर बोली ," दीदीऽऽऽ , घर वापस चलो...यहाँ तो तुम लोग भी बीमार हो जाओगी...।"
" नहीं स्नेह...यह बहुत बड़ा अस्पताल है , यहाँ बहुत बड़े और अनुभवी डाक्टर हैं...वह तुम्हारा अच्छे से इलाज कर दें , फिर घर चलते हैं...।"
" दीदी..." उसे बोलने में काफ़ी कष्ट हो रहा था फिर भी हमारी परेशानी , थकान , भूख-प्यास देख कर फुसला रही थी ," बड़ा तो रामा अस्पताल भी है , वहीं इलाज करा दो...। घर से दूर..." उसकी आँखें पता नहीं क्यों भर आई थी...शायद हमारी परेशानी को उसने भाँप लिया था ।
आँखें तो हमारी भी भरी हुई थी पर हमने जबरिया भीतर की बरसात को रोक रखा था , उसे बरसने नहीं दिया । नहीं चाहते थे कि ऐसी गर्म बरसात के पानी में वह भीगे ।
हमने पी.जी.आई के गेट से एक उचटती निगाह भीतर डाली और सहम गए । उफ़ ! इतनी भयानक भीड़...? क्या आधे से अधिक आबादी बीमार ही है ? इतने मरीजों के बीच क्या डाक्टर स्नेह पर ध्यान दे पाएगा ? कई सवाल हमारे भीतर काले-बदसूरत बादल की तरह उमड़-घुमड़ रहे थे , पर हमारे डाक्टर की बात ,"...रोग काफ़ी गम्भीर हो चुका है । पी.जी.आई ही एक ऐसा अस्पताल है जहाँ इसका इलाज हो सकता है...।"
स्नेह ने एक घूँट पानी पिया और फिर हमारी गोद में लेट गई , सोने का बहाना करते हुए...। लगा , जैसे किसी ने कलेजा चाक कर दिया हो...। उसके घर जाती थी तो अक्सर दोपहर को वह आँख मूंदे लेटी हुई मिलती थी , पर जैसे ही हमें देखती , फटाक से उठ बैठती । पाँच-दस मिनट इधर-उधर की बातें करने के बाद सीधे रसोई में...। मेरा पसंदीदा नमकीन परांठा . अचार और चाय पल भर में मेरे सामने होता । एक तरफ़ नाश्ता करने का आग्रह करती जाती तो दूसरी तरफ़ आराम फ़रमा रही सबसे छोटी बहन गुड़िया पर बड़बड़ाती जाती ," यह बहुत आलसी हो गई है...यह नहीं कि कोई आ जाए तो उसे नाश्ता-पानी दे...।"
" दीदी ‘ कोई ’ हैं क्या...? और तुम कौन सी तीसमारखाँ हो...। मम्मी के समय तुम भी तो इसी तरह आराम फ़रमाती थी...। अरे , हमें सब याद है...।"
" तो ठीक हैऽऽऽ...। मम्मी की तरह जब हम भी नहीं रहेंगे तो फिर हमारी जगह तुम घर सम्हालना...।"
बड़े-छोटे का भेद भूलकर घर के काम को लेकर अक्सर दोनो बहनों में छिटपुट तकरार होती रहती थी । उस समय तो मैं बात सम्हाल लेती ," अरे परेशान क्यों होती हो...अभी ही तो घर से खाकर आए हैं...।"
वह चुप हो जाती यह कहकर ," अरे दिया ही क्या है...? सिर्फ़ ज़रा सा नाश्ता ही न...। इसे यही समझाते हैं कि अभी से आदत डालो किसी को खिलाने-पिलाने की...हम कोई हमेशा तो बैठे नहीं रहेंगे...।"
" क्यों...? कहीं जा रही हो क्या...?" एक ठहाका गूँजता और बात खत्म...।
उस ठहाके में मैं भी शामिल रहती पर आज उसकी बीमारी की गंभीरता को देखते हुए न जाने क्यों मन काँप रहा था और उसे देखते हुए सारी बातें याद आ रही थी । वह कहे हुए शब्द कहीं किसी आगम के संकेत तो नहीं थे...?
( जारी है )
Sunday, October 10, 2010
रोइए...कि आप नर्क में हैं
( किस्त छह )
कानपुर का एक बड़ा नामी-दामी आस्पताल है - रामा हास्पिटल । यहाँ हर तरह की सुविधाएँ हैं...उच्च तकनीकों से युक्त मशीनें हैं...बड़े-बड़े अनुभवी डाक्टर हैं । कोई भी कमी नहीं है इस अस्पताल में । डाक्टर भी अपने पेशे के प्रति ईमानदार हैं । गरीब-अमीर यहाँ सब बराबर...उनकी जो देखभाल की जाती है , वह प्रशंसनीय है । पर कभी-कभी एक छोटी सी लापरवाही मरीज के परिजनों को किसी डाक्टर के प्रति किस तरह आक्रोश से भर देती है , यह वही महसूस कर सकता है जिसका कोई प्रिय ख़तरे में चला गया हो ।
डाक्टर एस.के. कटियार , उम्र बहुत छोटी , पर अनुभव बहुत बड़ा । हमारे परिवार के दुर्भाग्यजनित रोग पथरी का उन्होंने चार सदस्यों का सफ़ल आपरेशन किया । जितना हमारा उनके ऊपर विश्वास बढ़ा , उतने ही वे सहज हो गए । पाँचवे आपरेशन के वक़्त वे इतने सहज थे कि उन्होंने आनन-फानन में अपने असिस्टेन्ट को बाहर भेज कर बहन को आपरेशन थियेटर में बुलवा लिया । उन्होंने मेरी किसी भी बात को गम्भीरता से लेने की कोशिश ही नहीं की ।
घर से चलते वक़्त सब कुछ ठीक था पर अस्पताल पहुँच कर सहसा ही न जाने कैसे मेरी बहन की आँखों में एक गहरा पीलापन उतर आया । उस पीलेपन को देख कर मैं परेशान हो गई । उस परेशानी के चलते मैं अपनी बात बार-बार कह रही थी...नर्स से...असिस्टेन्ट से...। डाक्टर आए नहीं थे या अन्दर ओ.टी में थे , नहीं जानती थी । अन्दर जाना मना था । क्या असिस्टेन्ट का यह फ़र्ज़ नहीं था कि वह डाक्टर से मेरी बात कहता ? या क्या डाक्टर ने उसकी पीली आँखें नहीं देखी ? ये बहुत से ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब मुझे चाहिए ।
आपरेशन के बाद किसी ने मुझसे कहा कि पीलिया में कभी भी आपरेशन नहीं कराना चाहिए...। आपरेशन से नसें खुल जाती हैं और खून में विषाक्तता घुल जाती है । पहले पीलिया का इलाज कराना चाहिए , फिर आगे की सोचे । पर कहते हैं न कि ‘ होनी बहुत बलवान होती है ’। इतनी कि बुद्धि को कुन्द कर देती है । अगर ऐसा न होता तो अपनी बहन को ओ.टी में जाने से मैं जबरिया रोक न लेती ?
पेट के अन्दर चुपके से क्या पनप रहा है , कोई कैसे जान सकता है ? सदियों पहले तो कोई सुविधा भी नहीं थी । साथ ही शुद्ध चीजों के कारण रोगों की इतनी भरमार भी नहीं थी , पर आज ?
जितने रोग बढ़े हैं , उतनी ही तकनीकी प्रगति भी , पर बावजूद इसके कुछ रोग इतने चुपके से पनपते हुए अपने ख़तरनाक मोड़ पर पहुँच जाते हैं कि कोई जान नहीं पाता...। अल्ट्रासाउण्ड , कैट स्कैनिंग या अन्य किसी तरीके से रोग पकड़ में आने पर सब कुछ डाक्टर के हाथ में चला जाता है । अब एक योग्य डाक्टर उसे दूर करने के लिए कितनी मशक्कत करता है , यह उसके स्वभाव और कर्तव्य-भावना पर निर्भर करता है , पर आज के इस आधुनिकीकरण के युग में कर्तव्य-भावना लगभग ज़ीरो हो गई है ।
पीलिया में ही आपरेशन हो जाने के कारण स्नेह की ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ गई । डाक्टर ने तरह-तरह की आशंका जता कर हम सब के मन में एक अनकहा-अनजाना भय तो बैठा दिया पर यह नहीं कहा कि उसके सही इलाज का रास्ता क्या है ? घर ले जाना उचित होगा या नहीं ? जिस आशंका को उन्होंने जाहिर किया , क्या उसके लिए उस अस्पताल में या इतने बड़े शहर में कोई भी योग्य डाक्टर नहीं था ?
क्या आपरेशन करके , दो-तीन दिन अपनी निगरानी में रख कर डाक्टर का फ़र्ज़ पूरा हो गया ? परिजन डाक्टरी क्या जाने...आप उन्हें सही राय तो दे सकते थे । मैं डाक्टर से पूछना चाहती हूँ कि यदि उनके परिवार में कोई इस तरह फँस जाए तो वे क्या करेंगे ?
पर डाक्टर ने तो आपरेशन करके अपना कर्तव्य निभा दिया । अस्पताल से यह कह कर छुट्टी भी दे दी कि अब जैसा चाहे , इलाज कराइए । साधारण पीलिया समझ कर उसका इलाज चलता रहा । किसी ने कुछ सलाह दी तो किसी ने कुछ...। रोग बढ़ता जा रहा था और उसके साथ हम सब के समझने की शक्ति भी गुम होती जा रही थी ।
कहते हैं कि मुसीबत के समय ही आदमी की परख होती है । सुख के समय जो भीड़ आपके साथ खड़ी होगी , दुःख के समय वह भीड़ कब छँट गई , आपको पता भी नहीं चलेगा...और जब पता चलेगा तो आप पाएँगे कि आप तो बिल्कुल अकेले हैं...। जिसके लिए आपने बहुत कुछ किया , वह भागदौड़ की मेहनत और पैसा खर्च होने के भय से गायब हो जाएगा । पर बावजूद इसके , जब अपना दिमाग़ काम करना बन्द कर देता है तो किसी सशक्त सहारे की बहुत ज़रूरत होती है ।
ऐसे में डाक्टर अनूप अग्रवाल के रूप में हमें एक ऐसे इंसान मिले जो इलाज के साथ-साथ दूसरों की मदद करने को भी तत्पर रहते हैं । वे हमारे परिवार के लिए बहुत बड़ा सम्बल थे । उन्होंने रोग को हाथ से बाहर जाते देख पी.जी.आई रिफ़र कर दिया , पर शायद उन्हें भी आभास नहीं था कि अनजाने ही उन्हों ने एक इंसान को जीते-जी नर्क की ओर धकेल दिया है...।
‘ संजय गाँधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ’...जितना भारी-भरकम नाम है , उतना ही भारी-भरकम इसका डील-डौल भी है । जिस समय संजय गाँधी के नाम पर इसकी स्थापना की गई थी , सरकार ने जनता से बहुत बड़े-बड़े वायदे किए थे । देश के नामी-गिरामी ( अब गिरहकट् ) डाक्टरों को जगह दी थी , शानदार और जानदार उसका ढाँचा खड़ा किया था व और भी कई ऐसी सुविधाएँ तकनीकी रूप से इस अस्पताल को मुहैया कराई जो कम-से-कम उत्तर प्रदेश के अस्पतालों में उस स्तर तक नहीं थी । सरकार के इस कदम से जनता में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई । अब कम-से-कम गम्भीर रोगों के लिए अपने घर से दूर दिल्ली-मुम्बई तो नहीं जाना पड़ेगा । जिस मर्ज़ का इलाज अपने शहर में नहीं , वह यहाँ है और वह भी कम खर्च में...। कम खर्च में खाने-रहने की भी व्यवस्था...। आसपास न जाने कितने होटल , मोटल खुल गए...एक आश्रम की भी स्थापना हुई । अस्पताल में ही कैण्टीन है यानि खाने के लिए परिजनों को परिसर से बाहर जाने का कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा । ( अब यह बात दूसरी है कि कैण्टीन का खाना जल्दी गले से नहीं उतरता , पर कोई भूखा रह कर अपने प्रिय मरीज के साथ मर तो नहीं जाएगा न...सो मजबूरी में पेट भर लिया जाता है...। )
आह ! और वाह ! के साथ टूटे हुए लोगों की भीड़ उधर खिंचने लगी । वाह ! उत्तर प्रदेश की शान लखनऊ और वहाँ की...? पी.जी.आई...। ‘ मुस्कराइए कि आप लखनऊ में हैं...’ पर जनाब , रोइए भी कि आप पी.जी.आई में हैं । आज ये अस्पताल लखनऊ का कलंक बनने की ओर पूरी तौर से अग्रसर् है । अफ़सोस...सरकार की नाक के नीचे ये नर्क फल-फूल रहा है और उन्हें सुध नहीं...?
पर इसमें उनका क्या दोष ? सरकारी कामकाज़ का भारी-भरकम बोझ और विपक्षी नेताओं का वार उन्हें इतनी फुर्सत ही नहीं देता कि वे तड़पते-कलपते मरीजों और उनका इलाज करते आकाओं (?) की सुध ले सकें । अब यह बात दूसरी है कि किसी आला अधिकारी के आने पर वहाँ ऐसा शानदार भूकम्प आता है कि सब कुछ उल्टा-पुल्टा होने की बजाय सीधा-सीधा हो जाता है । वी.आई.पी कमरे तक जाने का रास्ता हो या आसपास का वातावरण...सब साफ़-सफ़ाई , रंग-रोगन से लेकर खुशबुओं से इस क़दर भर जाता है कि हमारे वी.आई.पी ही नहीं , कुछ पल के लिए मरीज के परिजन भी भावविभोर हो उठते हैं और ये भूल जाते हैं कि इस धरती पर जगह की कमी की वजह से एक ही जगह को दो हिस्सों में बाँट दिया गया है...आधा नर्क...आधा स्वर्ग...।
पर यह स्वर्ग-दर्शन कुछ ही दिनों का होता है । वी.आई.पी स्वस्थ तो बाकी अस्वस्थ...फिर नर्क में रहो...। कोई पूछने नहीं आएगा कि भैया , कितने महीनों से इस नर्क में हो और कब इससे मुक्ति मिलेगी...?
पी.जी.आई में जब स्नेह को लेकर गए तो एक तरह से कमरे के लिए , बेड के लिए गिड़गिड़ाना ही पड़ा , पर बावजूद इसके , किसी का भी दिल नहीं पसीजा । उनके पास सिर्फ़ बहाना ही था...कोई कमरा खाली नहीं...जनरल वार्ड में भी कोई बेड नहीं...। बहन की गम्भीर हालत में भी उसे लेकर दो दिन होटल में गुज़ारने पड़े । पी.जी.आई की इस तथाकथित व्यस्ततम हालत के बारे में जानती तो शायद वहाँ का रुख़ कभी न करती...।
आज सोच कर दिल काँप जाता है कि वह वक़्त हमने कैसे गुज़ारा ? बहन की चिन्तनीय स्थिति...कानपुर से तीन घण्टे का सफ़र...सुबह चार बजे के बाद से मुँह में अन्न के एक भी दाने का न जाना...सात बजे के पहुँचे बारह बजे तक रजिस्ट्रेशन हो पाना और फिर डाक्टर के कमरे के बाहर मरीजों की लम्बी लाइन...। पसीने से गंधाता पूरा वातावरण...भीषण कराहट के साथ पथराती आँखें...साथ आए रिश्तेदारों की बेचैनी और इससे ज़्यादा मरीज की पस्त होती हालत...। उफ़ ! यह दशा सिर्फ़ हमारी ही नहीं थी । न जाने कितने अनजाने सांझे दुःख के भागीदार बन गए थे ," बहन जी , उन्हें क्या हुआ ? " सारी कहानी दोहराई जाती और् उस कहानी के दरमियान रोगी की आशा-निराशा के बीच कभी झूलती तो कभी स्थिर होती आँखें...। लगता , जैसे एक सवाल उसकी आँखों में आँसू की बूँद की तरह ठहर गया हो ," क्या होगा मेरा ? अगर मुझे कुछ हो गया तो क्या होगा मेरे परिवार का...? कहीं मेरी दुर्दशा तो नहीं होगी...?"
मेरी बहन का सिर मेरी गोद में था...। सुबह से बिना कुछ खाए-पिए एक मासूम बच्ची सी दिख रही थी वह और हम सबके पूरा साथ देने के बावजूद जैसे एकदम अनाथ - असहाय सी...। नाथ (ईश्वर) जिसका साथ छोड़ दे , वह अनाथ ही तो हो जाता है...।
पर वह वहाँ अकेली तो नहीं थी । न जाने कितने अनाथों की आँखों में मेरी बहन की हल्दी-घुली आँखों की तरह ही एक अबूझा सवाल अटका हुआ था ," मेरा क्या होगा , और...?"
( जारी है )
कानपुर का एक बड़ा नामी-दामी आस्पताल है - रामा हास्पिटल । यहाँ हर तरह की सुविधाएँ हैं...उच्च तकनीकों से युक्त मशीनें हैं...बड़े-बड़े अनुभवी डाक्टर हैं । कोई भी कमी नहीं है इस अस्पताल में । डाक्टर भी अपने पेशे के प्रति ईमानदार हैं । गरीब-अमीर यहाँ सब बराबर...उनकी जो देखभाल की जाती है , वह प्रशंसनीय है । पर कभी-कभी एक छोटी सी लापरवाही मरीज के परिजनों को किसी डाक्टर के प्रति किस तरह आक्रोश से भर देती है , यह वही महसूस कर सकता है जिसका कोई प्रिय ख़तरे में चला गया हो ।
डाक्टर एस.के. कटियार , उम्र बहुत छोटी , पर अनुभव बहुत बड़ा । हमारे परिवार के दुर्भाग्यजनित रोग पथरी का उन्होंने चार सदस्यों का सफ़ल आपरेशन किया । जितना हमारा उनके ऊपर विश्वास बढ़ा , उतने ही वे सहज हो गए । पाँचवे आपरेशन के वक़्त वे इतने सहज थे कि उन्होंने आनन-फानन में अपने असिस्टेन्ट को बाहर भेज कर बहन को आपरेशन थियेटर में बुलवा लिया । उन्होंने मेरी किसी भी बात को गम्भीरता से लेने की कोशिश ही नहीं की ।
घर से चलते वक़्त सब कुछ ठीक था पर अस्पताल पहुँच कर सहसा ही न जाने कैसे मेरी बहन की आँखों में एक गहरा पीलापन उतर आया । उस पीलेपन को देख कर मैं परेशान हो गई । उस परेशानी के चलते मैं अपनी बात बार-बार कह रही थी...नर्स से...असिस्टेन्ट से...। डाक्टर आए नहीं थे या अन्दर ओ.टी में थे , नहीं जानती थी । अन्दर जाना मना था । क्या असिस्टेन्ट का यह फ़र्ज़ नहीं था कि वह डाक्टर से मेरी बात कहता ? या क्या डाक्टर ने उसकी पीली आँखें नहीं देखी ? ये बहुत से ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब मुझे चाहिए ।
आपरेशन के बाद किसी ने मुझसे कहा कि पीलिया में कभी भी आपरेशन नहीं कराना चाहिए...। आपरेशन से नसें खुल जाती हैं और खून में विषाक्तता घुल जाती है । पहले पीलिया का इलाज कराना चाहिए , फिर आगे की सोचे । पर कहते हैं न कि ‘ होनी बहुत बलवान होती है ’। इतनी कि बुद्धि को कुन्द कर देती है । अगर ऐसा न होता तो अपनी बहन को ओ.टी में जाने से मैं जबरिया रोक न लेती ?
पेट के अन्दर चुपके से क्या पनप रहा है , कोई कैसे जान सकता है ? सदियों पहले तो कोई सुविधा भी नहीं थी । साथ ही शुद्ध चीजों के कारण रोगों की इतनी भरमार भी नहीं थी , पर आज ?
जितने रोग बढ़े हैं , उतनी ही तकनीकी प्रगति भी , पर बावजूद इसके कुछ रोग इतने चुपके से पनपते हुए अपने ख़तरनाक मोड़ पर पहुँच जाते हैं कि कोई जान नहीं पाता...। अल्ट्रासाउण्ड , कैट स्कैनिंग या अन्य किसी तरीके से रोग पकड़ में आने पर सब कुछ डाक्टर के हाथ में चला जाता है । अब एक योग्य डाक्टर उसे दूर करने के लिए कितनी मशक्कत करता है , यह उसके स्वभाव और कर्तव्य-भावना पर निर्भर करता है , पर आज के इस आधुनिकीकरण के युग में कर्तव्य-भावना लगभग ज़ीरो हो गई है ।
पीलिया में ही आपरेशन हो जाने के कारण स्नेह की ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ गई । डाक्टर ने तरह-तरह की आशंका जता कर हम सब के मन में एक अनकहा-अनजाना भय तो बैठा दिया पर यह नहीं कहा कि उसके सही इलाज का रास्ता क्या है ? घर ले जाना उचित होगा या नहीं ? जिस आशंका को उन्होंने जाहिर किया , क्या उसके लिए उस अस्पताल में या इतने बड़े शहर में कोई भी योग्य डाक्टर नहीं था ?
क्या आपरेशन करके , दो-तीन दिन अपनी निगरानी में रख कर डाक्टर का फ़र्ज़ पूरा हो गया ? परिजन डाक्टरी क्या जाने...आप उन्हें सही राय तो दे सकते थे । मैं डाक्टर से पूछना चाहती हूँ कि यदि उनके परिवार में कोई इस तरह फँस जाए तो वे क्या करेंगे ?
पर डाक्टर ने तो आपरेशन करके अपना कर्तव्य निभा दिया । अस्पताल से यह कह कर छुट्टी भी दे दी कि अब जैसा चाहे , इलाज कराइए । साधारण पीलिया समझ कर उसका इलाज चलता रहा । किसी ने कुछ सलाह दी तो किसी ने कुछ...। रोग बढ़ता जा रहा था और उसके साथ हम सब के समझने की शक्ति भी गुम होती जा रही थी ।
कहते हैं कि मुसीबत के समय ही आदमी की परख होती है । सुख के समय जो भीड़ आपके साथ खड़ी होगी , दुःख के समय वह भीड़ कब छँट गई , आपको पता भी नहीं चलेगा...और जब पता चलेगा तो आप पाएँगे कि आप तो बिल्कुल अकेले हैं...। जिसके लिए आपने बहुत कुछ किया , वह भागदौड़ की मेहनत और पैसा खर्च होने के भय से गायब हो जाएगा । पर बावजूद इसके , जब अपना दिमाग़ काम करना बन्द कर देता है तो किसी सशक्त सहारे की बहुत ज़रूरत होती है ।
ऐसे में डाक्टर अनूप अग्रवाल के रूप में हमें एक ऐसे इंसान मिले जो इलाज के साथ-साथ दूसरों की मदद करने को भी तत्पर रहते हैं । वे हमारे परिवार के लिए बहुत बड़ा सम्बल थे । उन्होंने रोग को हाथ से बाहर जाते देख पी.जी.आई रिफ़र कर दिया , पर शायद उन्हें भी आभास नहीं था कि अनजाने ही उन्हों ने एक इंसान को जीते-जी नर्क की ओर धकेल दिया है...।
‘ संजय गाँधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ’...जितना भारी-भरकम नाम है , उतना ही भारी-भरकम इसका डील-डौल भी है । जिस समय संजय गाँधी के नाम पर इसकी स्थापना की गई थी , सरकार ने जनता से बहुत बड़े-बड़े वायदे किए थे । देश के नामी-गिरामी ( अब गिरहकट् ) डाक्टरों को जगह दी थी , शानदार और जानदार उसका ढाँचा खड़ा किया था व और भी कई ऐसी सुविधाएँ तकनीकी रूप से इस अस्पताल को मुहैया कराई जो कम-से-कम उत्तर प्रदेश के अस्पतालों में उस स्तर तक नहीं थी । सरकार के इस कदम से जनता में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई । अब कम-से-कम गम्भीर रोगों के लिए अपने घर से दूर दिल्ली-मुम्बई तो नहीं जाना पड़ेगा । जिस मर्ज़ का इलाज अपने शहर में नहीं , वह यहाँ है और वह भी कम खर्च में...। कम खर्च में खाने-रहने की भी व्यवस्था...। आसपास न जाने कितने होटल , मोटल खुल गए...एक आश्रम की भी स्थापना हुई । अस्पताल में ही कैण्टीन है यानि खाने के लिए परिजनों को परिसर से बाहर जाने का कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा । ( अब यह बात दूसरी है कि कैण्टीन का खाना जल्दी गले से नहीं उतरता , पर कोई भूखा रह कर अपने प्रिय मरीज के साथ मर तो नहीं जाएगा न...सो मजबूरी में पेट भर लिया जाता है...। )
आह ! और वाह ! के साथ टूटे हुए लोगों की भीड़ उधर खिंचने लगी । वाह ! उत्तर प्रदेश की शान लखनऊ और वहाँ की...? पी.जी.आई...। ‘ मुस्कराइए कि आप लखनऊ में हैं...’ पर जनाब , रोइए भी कि आप पी.जी.आई में हैं । आज ये अस्पताल लखनऊ का कलंक बनने की ओर पूरी तौर से अग्रसर् है । अफ़सोस...सरकार की नाक के नीचे ये नर्क फल-फूल रहा है और उन्हें सुध नहीं...?
पर इसमें उनका क्या दोष ? सरकारी कामकाज़ का भारी-भरकम बोझ और विपक्षी नेताओं का वार उन्हें इतनी फुर्सत ही नहीं देता कि वे तड़पते-कलपते मरीजों और उनका इलाज करते आकाओं (?) की सुध ले सकें । अब यह बात दूसरी है कि किसी आला अधिकारी के आने पर वहाँ ऐसा शानदार भूकम्प आता है कि सब कुछ उल्टा-पुल्टा होने की बजाय सीधा-सीधा हो जाता है । वी.आई.पी कमरे तक जाने का रास्ता हो या आसपास का वातावरण...सब साफ़-सफ़ाई , रंग-रोगन से लेकर खुशबुओं से इस क़दर भर जाता है कि हमारे वी.आई.पी ही नहीं , कुछ पल के लिए मरीज के परिजन भी भावविभोर हो उठते हैं और ये भूल जाते हैं कि इस धरती पर जगह की कमी की वजह से एक ही जगह को दो हिस्सों में बाँट दिया गया है...आधा नर्क...आधा स्वर्ग...।
पर यह स्वर्ग-दर्शन कुछ ही दिनों का होता है । वी.आई.पी स्वस्थ तो बाकी अस्वस्थ...फिर नर्क में रहो...। कोई पूछने नहीं आएगा कि भैया , कितने महीनों से इस नर्क में हो और कब इससे मुक्ति मिलेगी...?
पी.जी.आई में जब स्नेह को लेकर गए तो एक तरह से कमरे के लिए , बेड के लिए गिड़गिड़ाना ही पड़ा , पर बावजूद इसके , किसी का भी दिल नहीं पसीजा । उनके पास सिर्फ़ बहाना ही था...कोई कमरा खाली नहीं...जनरल वार्ड में भी कोई बेड नहीं...। बहन की गम्भीर हालत में भी उसे लेकर दो दिन होटल में गुज़ारने पड़े । पी.जी.आई की इस तथाकथित व्यस्ततम हालत के बारे में जानती तो शायद वहाँ का रुख़ कभी न करती...।
आज सोच कर दिल काँप जाता है कि वह वक़्त हमने कैसे गुज़ारा ? बहन की चिन्तनीय स्थिति...कानपुर से तीन घण्टे का सफ़र...सुबह चार बजे के बाद से मुँह में अन्न के एक भी दाने का न जाना...सात बजे के पहुँचे बारह बजे तक रजिस्ट्रेशन हो पाना और फिर डाक्टर के कमरे के बाहर मरीजों की लम्बी लाइन...। पसीने से गंधाता पूरा वातावरण...भीषण कराहट के साथ पथराती आँखें...साथ आए रिश्तेदारों की बेचैनी और इससे ज़्यादा मरीज की पस्त होती हालत...। उफ़ ! यह दशा सिर्फ़ हमारी ही नहीं थी । न जाने कितने अनजाने सांझे दुःख के भागीदार बन गए थे ," बहन जी , उन्हें क्या हुआ ? " सारी कहानी दोहराई जाती और् उस कहानी के दरमियान रोगी की आशा-निराशा के बीच कभी झूलती तो कभी स्थिर होती आँखें...। लगता , जैसे एक सवाल उसकी आँखों में आँसू की बूँद की तरह ठहर गया हो ," क्या होगा मेरा ? अगर मुझे कुछ हो गया तो क्या होगा मेरे परिवार का...? कहीं मेरी दुर्दशा तो नहीं होगी...?"
मेरी बहन का सिर मेरी गोद में था...। सुबह से बिना कुछ खाए-पिए एक मासूम बच्ची सी दिख रही थी वह और हम सबके पूरा साथ देने के बावजूद जैसे एकदम अनाथ - असहाय सी...। नाथ (ईश्वर) जिसका साथ छोड़ दे , वह अनाथ ही तो हो जाता है...।
पर वह वहाँ अकेली तो नहीं थी । न जाने कितने अनाथों की आँखों में मेरी बहन की हल्दी-घुली आँखों की तरह ही एक अबूझा सवाल अटका हुआ था ," मेरा क्या होगा , और...?"
( जारी है )
Thursday, October 7, 2010
रोइए...कि आप नर्क में हैं
( किस्त पांच )
हम सारी ज़िन्दगी अपने बड़ों से यही बात सुनते आ रहे थे कि " तन्दुरुस्ती हज़ार नियामत है..." बावजूद इसके हम तरह-तरह की बीमारियों से ग्रसित होने पर मजबूर हैं । हमें पता ही नहीं चलता और शरीर के भीतर ‘ साइलेंट किलर ’ अपना काम दिखा देता है...। तन के बाहर की बीमारी अक्सर आसानी से पकड़ में आ जाती है पर अन्दर के कुछ रोग बड़े चुपके से पनपते हैं औए आदमी जब तक कुछ समझ पाता है , उसकी जान पर बन आती है...।
गाँवों की बात छोड़ दीजिए...शहरों में भी स्वास्थ्य सेवाएँ और उत्कृष्ट तकनीक विकसित होने के बाद भी लापरवाही के चलते कभी प्रसव के दौरान तो कभी कैंसर तो कभी अन्य गम्भीर रोगों के कारण न जाने कितने लोग मौत के मुँह में समा जाते हैं ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक " स्वास्थ्य का अर्थ मात्र निरोग होना नहीं है , बल्कि मानसिक और शारीरिक तंदुरस्ती का संतुलन होना है ।"
संगठन की बात पूरी तरह् दुरुस्त है पर बढ़ती मँहगाई , प्रदूषण से बढ़ती शारीरिक और मानसिक विकृति , एकल परिवार की समस्याएँ और सबसे बड़ी बात , दुनिया में असंख्य उपायों के बावजूद भीड़ का बढ़ते चले जाना इन्सान को अस्वस्थ बना रहा है । हर तरह से स्वस्थ रहने के लिए आदमी मेडिटेशन , योग , सुबह की सैर , कसरत...सब कुछ कर रहा है , पर परेशानी के बादल हैं कि छँटते ही नहीं...।
इसी सन्दर्भ में कभी प्रदेश के सेवानिवृत स्वास्थ्य निदेशक डा. रामबाबू ( २४ अप्रैल् , २०१० ) ने बड़ी नेक सलाह् दी थी (कुछ करने की पहल नहीं ) कि चिकित्सीय उपचार से पहले पोषण , स्वच्छता , पर्यावरण पर ध्यान दिया जाए तो कैंसर , मधुमेह , हृदयरोग , मोटापा , कई नान-कम्यूनिकेबिल डिज़ीज़ ( गैर संचारी बीमारियों ) से बचा जा सकता है । वाह निदेशक महोदय ! बचने की बड़ी नेक सलाह दी है - पोषण- पर यह तो बताइए कि पोषण करें कैसे ?
आज खाद्य वस्तुओं में इतने धड़ल्ले से मिलावट की जा रही है , खाद्यान्नों में कीटनाशकों का छिड़काव ज़रूरत से ज्यादा है , बेमौसम सब्जियों की ग़लत तरीके से उपलब्धता है और यही नहीं , अब तो मेवे भी इसकी चपेट में हैं । किसी टी.वी चैनल पर दिखाया गया था कि गंधक से छुआरे और काजू को बड़ा व चमकीला बनाया जाता है । इन्हें रोकने के लिए छापे भी पड़े पर होगा क्या ? हमेशा की तरह सब टाँय-टाँय फिस्स...हम फिर ज़हर खाने को मजबूर...। कुछ चन्द रिश्वतख़ोर लोग न खुद चैन से जीते हैं न हमें जीने देते हैं । आम , केला , सेब , खरबूज़ा...सारे फल भी ज़हर हो गए हैं...आदमी कैसे सेहत बनाए...?
साँसों में ज़हर घुल रहा है और पानी ? वह भी तो ज़हरीला है । पहले गंगा का जल इतना साफ़ और पवित्र था कि उसके पीने से ही कई बीमारियों का अन्त हो जाता था , पर आज गंगा में पड़े जानवरों , आदमियों के शव , कूड़ा-कचरा , उसमें गिरता नाले का गन्दा पानी , फ़ैक्ट्रियों-टैनरियों का ज़हरीला रसायन ,और भी पता नहीं क्या-क्या...। सरकारी विभागों की लापरवाही कई बार इन्सान को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है , जहाँ से रास्ता सीधे मौत की ओर जाता है...। गंगा की सफ़ाई का अभियान अक्सर चलता है , पर जब कुछ लोग सिर्फ़ अपनी भलाई सोचते हैं तो दूसरा चाहे जिए या मरे...उनका क्या ? भ्रष्टाचार ने ज्यादातर लोगों की आँखें बन्द कर रखी है । उनकी नींद तब खुलती है जब खुद उनपर ही ग़ाज़ गिरती है । हमारी सरकार आम आदमियों से ही बनी है पर उनके लिए है नहीं ।
आम आदमी का खुद पर से भरोसा उठ गया है तो गानों के माध्यम से ख़ुदा का पता पूछ रहा है ( ऐ ख़ुदा , मुझको बता...तू रहता कहाँ , क्या तेरा पता...?) , पर शायद पता पूछने वाला यह नहीं जानता कि उस तक पहुँचने का रास्ता आसान नहीं रह गया है...।
पहले के हमारे बढ़े-बूढ़े शुद्ध चीजें खाकर , अपनी पूरी उम्र जीकर खुशी-खुशी ईश्वर के पास जाते थे , पर अब उम्र पूरी भी नहीं हो पाती कि ईश्वर तक पहुँचने के रास्ते पर खड़े ‘ यम ’ उन्हें बीच में ही लपक लेते हैं और फिर नर्क का रास्ता दिखा देते हैं । ये ‘ यम ’ इतने भयानक हैं कि ईश्वर भी जैसे पीछे हट जाता है , फिर आदमी की बिसात ही क्या ? मरे क्या न करे भाई ? शक्तिशाली बन्दा ईश्वर के दर्शन करके भी अपनी लक्ज़री गाड़ी से वापस आ जाता है , एक और स्वस्थ ज़िन्दगी जीने के लिए पर कमज़ोर-असहाय तो इस वाक्य को भूल ही गया है कि " सेहत ही सबसे बड़ी नेमत है "। उसे अब याद है तो बस इतना कि ज़िन्दा रहने के लिए , यमों की यातना से बचने के लिए और चिन्ता-चिता से उठकर वापस अपने डेरे पर जाने के लिए जिन बातों की ज़रूरत पड़ती है वह है- अपार धन , सोर्स , राजनैतिक-सामाजिक शक्ति , सरोकार तथा गहन जानकारी...इनके अभाव में यातनाभरी मौत पक्की...।
कितने लोग...? शायद लाखों-करोड़ों लोग भरसक इस अंधेरी , यातनाभरी सुरंग से बाहर आने की कोशिश करते हैं पर उपरोक्त चीजों के अभाव में बाहर आने से पहले ही दम तोड़ देते हैं । सिर्फ़ उपरोक्त बातें ही क्यों...आज के इस प्रगतिशील और तकनीकीकरण के इस युग में मुन्नाभाई छाप डाक्टरों की बढ़ती तादाद , उनकी धन-लोलुपता , संवेदनहीनता , सरकारी अस्पतालों की लापरवाही , कुव्यवस्था आदि इसके लिए और भी ज़िम्मेदार हैं । काश ! ख़ुदा एक बार तो इनसे कहे कि कभी तुम्हारे ऊपर भी ग़ाज़ गिर सकती है ।
रही सरकार की बात...वह तो मासूम है...। उसे तो गोबरछत्ते की तरह उगी विपक्षी पार्टियाँ ही इतना अधिक परेशान किए रहती हैं कि वह करे तो क्या...? कीड़े-मकोड़ों की सुरक्षा करे कि अपनी कुर्सी बचाए ? जनता खुद समझदार है...अपनी सुरक्षा स्वयं क्यों नहीं करती...?
मूर्ख जनता में हम भी तो शुमार हैं । अपनी रक्षा नहीं कर पाए और हमारा एक प्रिय ‘ यम ’ के चंगुल में फँस कर अंधेरी सुरंग में कहीं खो गया...।
भ्रम में थे । घर में पानी को शुद्ध् करने के लिए वाटर प्योरिफ़ायर लगा था...अच्छे स्टोर से राशन आता था...दूषित फल-सब्ज़ी से भरसक दूर रहते...परिवार में कोई बुरी लत नहीं...। दूसरों की बीमारी की गंभीरता को भाँप कर सहम से जाते और ईश्वर से प्रार्थना करते कि ऐसी मुसीबतों से हम किसी तरह् बचे रहें...। पर यह जो तन है न , उसका कोई न कोई पुर्जा जाने-अनजाने खराब हो ही जाता है । लाख कोशिशों के बावजूद होनी से टक्कर लेना कठिन हो जाता है । होनी बहुत बलवान है । इसे हम सब ने महसूस किया है...उसी दिन से...उसी क्षण से...।
हाथ में प्लास्टर चढ़ने के चन्द दिनों बाद ही उसकी कमर व पीठ में तीव्र दर्द रहने लगा । सोचा शायद गिरने की धसक की वजह से ऐसा है...। दर्द लगाता बढ़ता ही जा रहा था । चिन्तित हो अल्ट्रासाउन्ड करवाया तो पता लगा कि गॉल ब्लेडर ( पित्त की थैली ) में पथरी है...पथरी ?
पत्थर हो चुके इस युग की यह सबसे बड़ी देन है । हर दूसरे-तीसरे घर में सुनाई पड़ता है कि फलां को पथरी है...उसका आपरेशन हुआ है । ज़्यादातर लोग इससे सुरक्षित ही निकल आते हैं , शायद भविष्य में किसी दूसरी बीमारी से मरने के लिए...और जो नहीं निकल पाते , वे कभी भाग्य को तो कभी डाक्टर को कोसते हुए चले जाते हैं किसी अनन्त यात्रा पर...। पथरी का आपरेशन कराओ तो मुश्किल...न कराओ तो और भी मुश्किल...। आपरेशन कराने पर न सौ प्रतिशत , पर फिर भी चाँस तो रहता है बच कर बाहर आने का , पर उसे नज़र-अन्दाज़ कर देने पर तो भविष्य में और भी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है । किडनी की पथरी तो दवा से निकलती सुनी है , पर पित्त की थैली के लिए ऐसी कोई कारगर दवा है , नहीं जानती पर इतना समझती हूँ कि अगर होती तो हज़ारों की संख्या में मरीज डाक्टरों की क्लीनिक में लाइन न लगाते...।
एक आम इंसान के लिए यह समझना मुश्किल है कि शरीर के भीतर इतने पत्थर इकठ्ठे कैसे हो जाते हैं ? कोई कहता है इसके लिए गंदा पानी ज़िम्मेदार है , तो कोई मिलावटी खाने को इसका कारण बताता है...। अभी हाल ही में मेरे एक परिचित को एक डाक्टर ने सलाह दी कि बन्द डिब्बे का सरसों का तेल खाना बन्द कर दीजिए...। मिलावटी खाद्यान्न...दूषित पानी...ज़हरीली हवा...किस-किस से बचा जाए...? आज इस प्रदूषित समाज में सभी जी रहे हैं पर हर किसी को एक ही रोग तो नहीं जकड़ता । मैं समझती हूँ कि हर किसी के स्वभाव की तरह ही उसके तन की प्रकृति भी होती है...और इसी कारण वह अलग-अलग रोगों की जकड़ में आते हैं । सावधानी कुछ हद तक सुरक्षित कर सकती है , पर पूर्णतया करेगी ही , इसकी कोई गारण्टी नहीं...।
कोई भी आपरेशन करने से पूर्व मरीज की ज़िन्दगी की गारण्टी डाक्टर भी नहीं लेता और इसी लिए परिजनों से एक फ़ार्म भरवा लिया जाता है ।
मेरी शिकायत गारण्टी लेने या न लेने पर नहीं है...रंज इस बात का भी नहीं है कि किसी आपरेशन में वे असफ़ल हो गए क्योंकि कोई डाक्टर जानबूझ कर अपने नाम पर बट्टा नहीं लगने देगा और न यह चाहेगा कि उसका मरीज ज़िन्दगी का दाँव हार जाए ।
मेरा आक्रोश उन डाक्टरों पर है जो ढेर सारे सफ़ल आपरेशन करने के बाद इतने आत्मविश्वासी हो जाते हैं कि उनके लिए तन के किसी भी हिस्से की काँट-छाँट बेहद मामूली बात हो जाती है और अतिरिक्त उत्साह में भर कर अनजाने ही वे बीमार की ज़िन्दगी से खेल जाते हैं । क्या डाक्टरों को यह् बात पता नहीं होनी चाहिए कि हर इंसान की शारीरिक और मानसिक प्रकृति अलग-अलग होती है और इसी के तहत उस पर बीमारी की प्रतिक्रिया भी होती है । डाक्टरों को इसी बात का ध्यान रखते हुए मरीज की पूरी केस हिस्ट्री ही नहीं बल्कि विगत में उसे क्या परेशानी थी , इस बारे में भी आपरेशन पूर्व जान लेना चाहिए ।
हर डाक्टर का यह फ़र्ज़ बनता है कि आपरेशन थियेटर में ले जाने से पहले मरीज का एक बार पूरा परीक्षण कर ले । जो ऐसा नहीं करते , उन्हें कुरेदने-कोसने का पूरा अधिकार है हमें...।
हम सारी ज़िन्दगी अपने बड़ों से यही बात सुनते आ रहे थे कि " तन्दुरुस्ती हज़ार नियामत है..." बावजूद इसके हम तरह-तरह की बीमारियों से ग्रसित होने पर मजबूर हैं । हमें पता ही नहीं चलता और शरीर के भीतर ‘ साइलेंट किलर ’ अपना काम दिखा देता है...। तन के बाहर की बीमारी अक्सर आसानी से पकड़ में आ जाती है पर अन्दर के कुछ रोग बड़े चुपके से पनपते हैं औए आदमी जब तक कुछ समझ पाता है , उसकी जान पर बन आती है...।
गाँवों की बात छोड़ दीजिए...शहरों में भी स्वास्थ्य सेवाएँ और उत्कृष्ट तकनीक विकसित होने के बाद भी लापरवाही के चलते कभी प्रसव के दौरान तो कभी कैंसर तो कभी अन्य गम्भीर रोगों के कारण न जाने कितने लोग मौत के मुँह में समा जाते हैं ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक " स्वास्थ्य का अर्थ मात्र निरोग होना नहीं है , बल्कि मानसिक और शारीरिक तंदुरस्ती का संतुलन होना है ।"
संगठन की बात पूरी तरह् दुरुस्त है पर बढ़ती मँहगाई , प्रदूषण से बढ़ती शारीरिक और मानसिक विकृति , एकल परिवार की समस्याएँ और सबसे बड़ी बात , दुनिया में असंख्य उपायों के बावजूद भीड़ का बढ़ते चले जाना इन्सान को अस्वस्थ बना रहा है । हर तरह से स्वस्थ रहने के लिए आदमी मेडिटेशन , योग , सुबह की सैर , कसरत...सब कुछ कर रहा है , पर परेशानी के बादल हैं कि छँटते ही नहीं...।
इसी सन्दर्भ में कभी प्रदेश के सेवानिवृत स्वास्थ्य निदेशक डा. रामबाबू ( २४ अप्रैल् , २०१० ) ने बड़ी नेक सलाह् दी थी (कुछ करने की पहल नहीं ) कि चिकित्सीय उपचार से पहले पोषण , स्वच्छता , पर्यावरण पर ध्यान दिया जाए तो कैंसर , मधुमेह , हृदयरोग , मोटापा , कई नान-कम्यूनिकेबिल डिज़ीज़ ( गैर संचारी बीमारियों ) से बचा जा सकता है । वाह निदेशक महोदय ! बचने की बड़ी नेक सलाह दी है - पोषण- पर यह तो बताइए कि पोषण करें कैसे ?
आज खाद्य वस्तुओं में इतने धड़ल्ले से मिलावट की जा रही है , खाद्यान्नों में कीटनाशकों का छिड़काव ज़रूरत से ज्यादा है , बेमौसम सब्जियों की ग़लत तरीके से उपलब्धता है और यही नहीं , अब तो मेवे भी इसकी चपेट में हैं । किसी टी.वी चैनल पर दिखाया गया था कि गंधक से छुआरे और काजू को बड़ा व चमकीला बनाया जाता है । इन्हें रोकने के लिए छापे भी पड़े पर होगा क्या ? हमेशा की तरह सब टाँय-टाँय फिस्स...हम फिर ज़हर खाने को मजबूर...। कुछ चन्द रिश्वतख़ोर लोग न खुद चैन से जीते हैं न हमें जीने देते हैं । आम , केला , सेब , खरबूज़ा...सारे फल भी ज़हर हो गए हैं...आदमी कैसे सेहत बनाए...?
साँसों में ज़हर घुल रहा है और पानी ? वह भी तो ज़हरीला है । पहले गंगा का जल इतना साफ़ और पवित्र था कि उसके पीने से ही कई बीमारियों का अन्त हो जाता था , पर आज गंगा में पड़े जानवरों , आदमियों के शव , कूड़ा-कचरा , उसमें गिरता नाले का गन्दा पानी , फ़ैक्ट्रियों-टैनरियों का ज़हरीला रसायन ,और भी पता नहीं क्या-क्या...। सरकारी विभागों की लापरवाही कई बार इन्सान को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है , जहाँ से रास्ता सीधे मौत की ओर जाता है...। गंगा की सफ़ाई का अभियान अक्सर चलता है , पर जब कुछ लोग सिर्फ़ अपनी भलाई सोचते हैं तो दूसरा चाहे जिए या मरे...उनका क्या ? भ्रष्टाचार ने ज्यादातर लोगों की आँखें बन्द कर रखी है । उनकी नींद तब खुलती है जब खुद उनपर ही ग़ाज़ गिरती है । हमारी सरकार आम आदमियों से ही बनी है पर उनके लिए है नहीं ।
आम आदमी का खुद पर से भरोसा उठ गया है तो गानों के माध्यम से ख़ुदा का पता पूछ रहा है ( ऐ ख़ुदा , मुझको बता...तू रहता कहाँ , क्या तेरा पता...?) , पर शायद पता पूछने वाला यह नहीं जानता कि उस तक पहुँचने का रास्ता आसान नहीं रह गया है...।
पहले के हमारे बढ़े-बूढ़े शुद्ध चीजें खाकर , अपनी पूरी उम्र जीकर खुशी-खुशी ईश्वर के पास जाते थे , पर अब उम्र पूरी भी नहीं हो पाती कि ईश्वर तक पहुँचने के रास्ते पर खड़े ‘ यम ’ उन्हें बीच में ही लपक लेते हैं और फिर नर्क का रास्ता दिखा देते हैं । ये ‘ यम ’ इतने भयानक हैं कि ईश्वर भी जैसे पीछे हट जाता है , फिर आदमी की बिसात ही क्या ? मरे क्या न करे भाई ? शक्तिशाली बन्दा ईश्वर के दर्शन करके भी अपनी लक्ज़री गाड़ी से वापस आ जाता है , एक और स्वस्थ ज़िन्दगी जीने के लिए पर कमज़ोर-असहाय तो इस वाक्य को भूल ही गया है कि " सेहत ही सबसे बड़ी नेमत है "। उसे अब याद है तो बस इतना कि ज़िन्दा रहने के लिए , यमों की यातना से बचने के लिए और चिन्ता-चिता से उठकर वापस अपने डेरे पर जाने के लिए जिन बातों की ज़रूरत पड़ती है वह है- अपार धन , सोर्स , राजनैतिक-सामाजिक शक्ति , सरोकार तथा गहन जानकारी...इनके अभाव में यातनाभरी मौत पक्की...।
कितने लोग...? शायद लाखों-करोड़ों लोग भरसक इस अंधेरी , यातनाभरी सुरंग से बाहर आने की कोशिश करते हैं पर उपरोक्त चीजों के अभाव में बाहर आने से पहले ही दम तोड़ देते हैं । सिर्फ़ उपरोक्त बातें ही क्यों...आज के इस प्रगतिशील और तकनीकीकरण के इस युग में मुन्नाभाई छाप डाक्टरों की बढ़ती तादाद , उनकी धन-लोलुपता , संवेदनहीनता , सरकारी अस्पतालों की लापरवाही , कुव्यवस्था आदि इसके लिए और भी ज़िम्मेदार हैं । काश ! ख़ुदा एक बार तो इनसे कहे कि कभी तुम्हारे ऊपर भी ग़ाज़ गिर सकती है ।
रही सरकार की बात...वह तो मासूम है...। उसे तो गोबरछत्ते की तरह उगी विपक्षी पार्टियाँ ही इतना अधिक परेशान किए रहती हैं कि वह करे तो क्या...? कीड़े-मकोड़ों की सुरक्षा करे कि अपनी कुर्सी बचाए ? जनता खुद समझदार है...अपनी सुरक्षा स्वयं क्यों नहीं करती...?
मूर्ख जनता में हम भी तो शुमार हैं । अपनी रक्षा नहीं कर पाए और हमारा एक प्रिय ‘ यम ’ के चंगुल में फँस कर अंधेरी सुरंग में कहीं खो गया...।
भ्रम में थे । घर में पानी को शुद्ध् करने के लिए वाटर प्योरिफ़ायर लगा था...अच्छे स्टोर से राशन आता था...दूषित फल-सब्ज़ी से भरसक दूर रहते...परिवार में कोई बुरी लत नहीं...। दूसरों की बीमारी की गंभीरता को भाँप कर सहम से जाते और ईश्वर से प्रार्थना करते कि ऐसी मुसीबतों से हम किसी तरह् बचे रहें...। पर यह जो तन है न , उसका कोई न कोई पुर्जा जाने-अनजाने खराब हो ही जाता है । लाख कोशिशों के बावजूद होनी से टक्कर लेना कठिन हो जाता है । होनी बहुत बलवान है । इसे हम सब ने महसूस किया है...उसी दिन से...उसी क्षण से...।
हाथ में प्लास्टर चढ़ने के चन्द दिनों बाद ही उसकी कमर व पीठ में तीव्र दर्द रहने लगा । सोचा शायद गिरने की धसक की वजह से ऐसा है...। दर्द लगाता बढ़ता ही जा रहा था । चिन्तित हो अल्ट्रासाउन्ड करवाया तो पता लगा कि गॉल ब्लेडर ( पित्त की थैली ) में पथरी है...पथरी ?
पत्थर हो चुके इस युग की यह सबसे बड़ी देन है । हर दूसरे-तीसरे घर में सुनाई पड़ता है कि फलां को पथरी है...उसका आपरेशन हुआ है । ज़्यादातर लोग इससे सुरक्षित ही निकल आते हैं , शायद भविष्य में किसी दूसरी बीमारी से मरने के लिए...और जो नहीं निकल पाते , वे कभी भाग्य को तो कभी डाक्टर को कोसते हुए चले जाते हैं किसी अनन्त यात्रा पर...। पथरी का आपरेशन कराओ तो मुश्किल...न कराओ तो और भी मुश्किल...। आपरेशन कराने पर न सौ प्रतिशत , पर फिर भी चाँस तो रहता है बच कर बाहर आने का , पर उसे नज़र-अन्दाज़ कर देने पर तो भविष्य में और भी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है । किडनी की पथरी तो दवा से निकलती सुनी है , पर पित्त की थैली के लिए ऐसी कोई कारगर दवा है , नहीं जानती पर इतना समझती हूँ कि अगर होती तो हज़ारों की संख्या में मरीज डाक्टरों की क्लीनिक में लाइन न लगाते...।
एक आम इंसान के लिए यह समझना मुश्किल है कि शरीर के भीतर इतने पत्थर इकठ्ठे कैसे हो जाते हैं ? कोई कहता है इसके लिए गंदा पानी ज़िम्मेदार है , तो कोई मिलावटी खाने को इसका कारण बताता है...। अभी हाल ही में मेरे एक परिचित को एक डाक्टर ने सलाह दी कि बन्द डिब्बे का सरसों का तेल खाना बन्द कर दीजिए...। मिलावटी खाद्यान्न...दूषित पानी...ज़हरीली हवा...किस-किस से बचा जाए...? आज इस प्रदूषित समाज में सभी जी रहे हैं पर हर किसी को एक ही रोग तो नहीं जकड़ता । मैं समझती हूँ कि हर किसी के स्वभाव की तरह ही उसके तन की प्रकृति भी होती है...और इसी कारण वह अलग-अलग रोगों की जकड़ में आते हैं । सावधानी कुछ हद तक सुरक्षित कर सकती है , पर पूर्णतया करेगी ही , इसकी कोई गारण्टी नहीं...।
कोई भी आपरेशन करने से पूर्व मरीज की ज़िन्दगी की गारण्टी डाक्टर भी नहीं लेता और इसी लिए परिजनों से एक फ़ार्म भरवा लिया जाता है ।
मेरी शिकायत गारण्टी लेने या न लेने पर नहीं है...रंज इस बात का भी नहीं है कि किसी आपरेशन में वे असफ़ल हो गए क्योंकि कोई डाक्टर जानबूझ कर अपने नाम पर बट्टा नहीं लगने देगा और न यह चाहेगा कि उसका मरीज ज़िन्दगी का दाँव हार जाए ।
मेरा आक्रोश उन डाक्टरों पर है जो ढेर सारे सफ़ल आपरेशन करने के बाद इतने आत्मविश्वासी हो जाते हैं कि उनके लिए तन के किसी भी हिस्से की काँट-छाँट बेहद मामूली बात हो जाती है और अतिरिक्त उत्साह में भर कर अनजाने ही वे बीमार की ज़िन्दगी से खेल जाते हैं । क्या डाक्टरों को यह् बात पता नहीं होनी चाहिए कि हर इंसान की शारीरिक और मानसिक प्रकृति अलग-अलग होती है और इसी के तहत उस पर बीमारी की प्रतिक्रिया भी होती है । डाक्टरों को इसी बात का ध्यान रखते हुए मरीज की पूरी केस हिस्ट्री ही नहीं बल्कि विगत में उसे क्या परेशानी थी , इस बारे में भी आपरेशन पूर्व जान लेना चाहिए ।
हर डाक्टर का यह फ़र्ज़ बनता है कि आपरेशन थियेटर में ले जाने से पहले मरीज का एक बार पूरा परीक्षण कर ले । जो ऐसा नहीं करते , उन्हें कुरेदने-कोसने का पूरा अधिकार है हमें...।
( जारी है )
Sunday, October 3, 2010
रोइए...कि आप नर्क में हैं
( किस्त चार )
यह वक़्त न पुरानी बातों को याद करने का है और न मन में किसी प्रकार की कड़वाहट घोलने का...पर दुःख के समय कुछ बातें जरूर पीड़ा देती हैं , जिसे कह देने से मन हल्का होता है...। हर आदमी यह जानता है कि एक न एक दिन उसे भी इस संसार से विदा होना है पर बावजूद इसके नफ़रत , द्वेष , बदले की भावना , कटुता और जलन आदि को अपने भीतर से नहीं निकाल पाता...। इन सब बुराइयों का कारण है - स्वार्थ...। अपना काम सधना चाहिए , बाकी दुनिया जाए भाड़ में...। स्वार्थ की इस भावना ने ही हर पेशे को प्रभावित किया है...। इसी के कारण चारो तरफ़ प्रलय सी है...। आदमी की ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ रही है, पर परवाह किसी को नहीं...। हर आदमी ज्यादा से ज्यादा पैसे कमा कर सुख भोग लेना चाहता है...। इस प्रक्रिया में भले ही दूसरों को पीड़ा पहुँचती हो , उसकी जान पर बन आती हो , कोई परवाह नहीं...बस अपनी ज़िन्दगी ऐशगाह में बीतनी चाहिए...।
ढेरों लोग जो बौद्धिकता का शानदार मुखौटा पहने हुए हैं , इससे अछूते नहीं हैं...बल्कि मैं तो कहूँगी कि उनमें आम आदमियों से ज्यादा स्वार्थ भरा हुआ है । जब तक आपके पास देने को बहुत कुछ है , भीड़ आपके साथ है पर जहाँ आप अपने स्तर पर थोड़ा भी खामोश हुए , भीड़ कब छँट जाएगी , आपको पता भी नहीं चलेगा...। जो कुछ भी आपने सार्थक किया था , कमज़ोर पड़ते ही सब निरर्थक हो जाएगा...। सोचती हूँ कि काश ! दुनिया ऐसी न होती...।
और रिश्ते...? कुछ रिश्तों पर हमें बड़ा नाज़ होता है क्योंकि वे रिश्ते हमारे खून में घुले-मिले होते हैं पर सच तो यही है कि खून भी कभी-कभी पानी सरीखा हो जाता है...। साफ़ नहीं , गंदला पानी...।
मिर्ज़ापुर में रहने वाली अपनी सबसे बड़ी बहन के चारों बच्चों के लिए रात-रात भर जाग कर जब स्नेह छोटी बहन माया के साथ मिल कर स्वेटर बुनती थी , उनके लिए जगह-जगह से ढूँढ-ढूँढ कर उपहार खरीदती थी या अपनी देने की प्रवृति के चलते नौकर-चाकर या आसपास के ग़रीबों के लिए कुछ करती थी , तो उसकी ज़ुबान पर बस एक ही वाक्य होता था ," इन सब के प्यार और आशीर्वाद में बहुत ताकत होती है...। मुझसे पाकर ये सब मुझ पर ही तो प्यार लुटाते हैं...।" पैसा , रुपया , कपड़ा पाने के बाद उस पर जो प्यार लुटता था , भोली और कुछ मायनों में बेवकूफ़ स्नेह उसे निस्वार्थ प्यार समझ बैठी थी , पर बुरे वक़्त में जब वह अशक्त हो गई तो अपने परिवार के प्यार और सहयोग के सिवा उसके पास कुछ भी नहीं था ।
उसने मेरी समझ में कोई ऐसा जघन्य पाप नहीं किया था , तो ऐसी लड़की को , कुछ महीनों की ही सही , नर्क की पीड़ा मिली ही क्यों ?
यह सवाल मेरा ईश्वर से भी है...अपने पौराणिक ग्रन्थों से है...उन सरकारी अस्पतालों से है और है उन धन-लोलुप इन्सानों से , जिन्होंने नर्क को इस धरती पर उतार दिया है और मेरे उस विश्वास को और मजबूत कर दिया है कि मरने के बाद न तो कोई स्वर्ग जाता है और न नर्क...। वह दोनो तो यहीं हैं...इसी धरती पर हैं...हम सब का बनाया हुआ...।
यह नर्क सदियों से यहीं था । बाकी उन्नतियों के साथ हम उसे भी उन्नत करते चले गए...। फल , अन्न , जल , हवा...यहाँ तक कि जीवन शैली में भी हम ज़हर भरते गए । यह ज़हर हमें किसी दिन तो तड़पाएगा...ज़हर देने वाले को भी और अनजाने ही ज़हर खाने वाले को भी...। अस्पताल चाहे सरकारी हो चाहे प्राइवेट...यहाँ रसूख वाले सुख की नींद सोते हैं , महंगा इलाज करा कर मौत के जबड़े से निकल आते हैं और इससे भी बड़ी बात...ईश्वर भी उनकी गुहार सुन लेता है...। अगर ऐसा न होता तो लाचार अक्सर उसकी अदालत से मायूस होकर क्यों लौटते ? क्या वहाँ भी कोई दमदार वकील चाहिए जिरह करने के लिए ?
हमारे पास दमदार वकील नहीं था । ग़लत ढंग से उगाई गई ताकत नहीं थी...और वह रसूख़ नहीं था जो लखनऊ के पी.जी.आई के डाक्टरों को प्रभावित करता और शायद इसी लिए मेरी आवाज़ न " ईश्वर (?)" तक पहुँची और न " यमों (?)" तक ...दोनो ने मेरी बहन की ज़िन्दगी ख़त्म कर दी...।
यद्यपि धरती के नर्क को मैने बहुत पास से देखा है , उसे उर्सला या हैलट जैसे अस्पतालों में जनरल वार्ड के बेड पर लाचार पड़े मरीजों और उनके तीमारदारों की आँखों में देख कर महसूस किया है पर पता नहीं था कि वह ‘नर्क’ जिसे देख कर मैं सिहर उठी थी , कभी मेरे इतने करीब आ जाएगा कि उससे पीछा छुड़ाने का कोई ‘आप्शन’ ही नहीं रहेगा मेरे पास...।
हम सब अनजान थे आगम से...। जिस दिन स्नेह गिरी , नर्क उसके पास आ गया था ( जो भी कभी दुर्घटनाग्रस्त होता है या हो चुका है , उसके पास इस नर्क का अनुभव इफ़रात में है )। नहाने-धोने से लेकर पूरी दिनचर्या बिताने में कष्ट ही कष्ट तो था , पर जीवट की थी वह...ऐसे कष्ट में भी दूसरों को सुख देने की कामना...?
परिवार के सदस्यों से लेकर नौकर-चाकर को खाना मिला कि नहीं , इसकी चिन्ता करना , मना करने के बावजूद अपना सारा काम खुद तो करना ही , साथ ही रसोई में भी एक ही हाथ से कुछ न कुछ करना...बड़ी बहन से घण्टों फोन पर बतियाने पर भी अपना दुःख छिपा कर बस उनका हाल जानना...। सबको परेशानी से दूर रखने का पूरा जतन करती थी पर उसे नहीं पता था कि ‘होनी’ उसकी एक अलग ही कहानी लिख रही है...।
( जारी है )
यह वक़्त न पुरानी बातों को याद करने का है और न मन में किसी प्रकार की कड़वाहट घोलने का...पर दुःख के समय कुछ बातें जरूर पीड़ा देती हैं , जिसे कह देने से मन हल्का होता है...। हर आदमी यह जानता है कि एक न एक दिन उसे भी इस संसार से विदा होना है पर बावजूद इसके नफ़रत , द्वेष , बदले की भावना , कटुता और जलन आदि को अपने भीतर से नहीं निकाल पाता...। इन सब बुराइयों का कारण है - स्वार्थ...। अपना काम सधना चाहिए , बाकी दुनिया जाए भाड़ में...। स्वार्थ की इस भावना ने ही हर पेशे को प्रभावित किया है...। इसी के कारण चारो तरफ़ प्रलय सी है...। आदमी की ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ रही है, पर परवाह किसी को नहीं...। हर आदमी ज्यादा से ज्यादा पैसे कमा कर सुख भोग लेना चाहता है...। इस प्रक्रिया में भले ही दूसरों को पीड़ा पहुँचती हो , उसकी जान पर बन आती हो , कोई परवाह नहीं...बस अपनी ज़िन्दगी ऐशगाह में बीतनी चाहिए...।
ढेरों लोग जो बौद्धिकता का शानदार मुखौटा पहने हुए हैं , इससे अछूते नहीं हैं...बल्कि मैं तो कहूँगी कि उनमें आम आदमियों से ज्यादा स्वार्थ भरा हुआ है । जब तक आपके पास देने को बहुत कुछ है , भीड़ आपके साथ है पर जहाँ आप अपने स्तर पर थोड़ा भी खामोश हुए , भीड़ कब छँट जाएगी , आपको पता भी नहीं चलेगा...। जो कुछ भी आपने सार्थक किया था , कमज़ोर पड़ते ही सब निरर्थक हो जाएगा...। सोचती हूँ कि काश ! दुनिया ऐसी न होती...।
और रिश्ते...? कुछ रिश्तों पर हमें बड़ा नाज़ होता है क्योंकि वे रिश्ते हमारे खून में घुले-मिले होते हैं पर सच तो यही है कि खून भी कभी-कभी पानी सरीखा हो जाता है...। साफ़ नहीं , गंदला पानी...।
मिर्ज़ापुर में रहने वाली अपनी सबसे बड़ी बहन के चारों बच्चों के लिए रात-रात भर जाग कर जब स्नेह छोटी बहन माया के साथ मिल कर स्वेटर बुनती थी , उनके लिए जगह-जगह से ढूँढ-ढूँढ कर उपहार खरीदती थी या अपनी देने की प्रवृति के चलते नौकर-चाकर या आसपास के ग़रीबों के लिए कुछ करती थी , तो उसकी ज़ुबान पर बस एक ही वाक्य होता था ," इन सब के प्यार और आशीर्वाद में बहुत ताकत होती है...। मुझसे पाकर ये सब मुझ पर ही तो प्यार लुटाते हैं...।" पैसा , रुपया , कपड़ा पाने के बाद उस पर जो प्यार लुटता था , भोली और कुछ मायनों में बेवकूफ़ स्नेह उसे निस्वार्थ प्यार समझ बैठी थी , पर बुरे वक़्त में जब वह अशक्त हो गई तो अपने परिवार के प्यार और सहयोग के सिवा उसके पास कुछ भी नहीं था ।
उसने मेरी समझ में कोई ऐसा जघन्य पाप नहीं किया था , तो ऐसी लड़की को , कुछ महीनों की ही सही , नर्क की पीड़ा मिली ही क्यों ?
यह सवाल मेरा ईश्वर से भी है...अपने पौराणिक ग्रन्थों से है...उन सरकारी अस्पतालों से है और है उन धन-लोलुप इन्सानों से , जिन्होंने नर्क को इस धरती पर उतार दिया है और मेरे उस विश्वास को और मजबूत कर दिया है कि मरने के बाद न तो कोई स्वर्ग जाता है और न नर्क...। वह दोनो तो यहीं हैं...इसी धरती पर हैं...हम सब का बनाया हुआ...।
यह नर्क सदियों से यहीं था । बाकी उन्नतियों के साथ हम उसे भी उन्नत करते चले गए...। फल , अन्न , जल , हवा...यहाँ तक कि जीवन शैली में भी हम ज़हर भरते गए । यह ज़हर हमें किसी दिन तो तड़पाएगा...ज़हर देने वाले को भी और अनजाने ही ज़हर खाने वाले को भी...। अस्पताल चाहे सरकारी हो चाहे प्राइवेट...यहाँ रसूख वाले सुख की नींद सोते हैं , महंगा इलाज करा कर मौत के जबड़े से निकल आते हैं और इससे भी बड़ी बात...ईश्वर भी उनकी गुहार सुन लेता है...। अगर ऐसा न होता तो लाचार अक्सर उसकी अदालत से मायूस होकर क्यों लौटते ? क्या वहाँ भी कोई दमदार वकील चाहिए जिरह करने के लिए ?
हमारे पास दमदार वकील नहीं था । ग़लत ढंग से उगाई गई ताकत नहीं थी...और वह रसूख़ नहीं था जो लखनऊ के पी.जी.आई के डाक्टरों को प्रभावित करता और शायद इसी लिए मेरी आवाज़ न " ईश्वर (?)" तक पहुँची और न " यमों (?)" तक ...दोनो ने मेरी बहन की ज़िन्दगी ख़त्म कर दी...।
यद्यपि धरती के नर्क को मैने बहुत पास से देखा है , उसे उर्सला या हैलट जैसे अस्पतालों में जनरल वार्ड के बेड पर लाचार पड़े मरीजों और उनके तीमारदारों की आँखों में देख कर महसूस किया है पर पता नहीं था कि वह ‘नर्क’ जिसे देख कर मैं सिहर उठी थी , कभी मेरे इतने करीब आ जाएगा कि उससे पीछा छुड़ाने का कोई ‘आप्शन’ ही नहीं रहेगा मेरे पास...।
हम सब अनजान थे आगम से...। जिस दिन स्नेह गिरी , नर्क उसके पास आ गया था ( जो भी कभी दुर्घटनाग्रस्त होता है या हो चुका है , उसके पास इस नर्क का अनुभव इफ़रात में है )। नहाने-धोने से लेकर पूरी दिनचर्या बिताने में कष्ट ही कष्ट तो था , पर जीवट की थी वह...ऐसे कष्ट में भी दूसरों को सुख देने की कामना...?
परिवार के सदस्यों से लेकर नौकर-चाकर को खाना मिला कि नहीं , इसकी चिन्ता करना , मना करने के बावजूद अपना सारा काम खुद तो करना ही , साथ ही रसोई में भी एक ही हाथ से कुछ न कुछ करना...बड़ी बहन से घण्टों फोन पर बतियाने पर भी अपना दुःख छिपा कर बस उनका हाल जानना...। सबको परेशानी से दूर रखने का पूरा जतन करती थी पर उसे नहीं पता था कि ‘होनी’ उसकी एक अलग ही कहानी लिख रही है...।
( जारी है )
रोइए...कि आप नर्क में हैं
( क़िश्त- तीन )
कहते हैं कि जब कोई अनिष्ट होने वाला होता है तो उसके संकेत किसी न् किसी बहाने सामने आने लगते हैं...। कभी शब्दों के माध्यम से, तो कभी हल्की-फुल्की घटना के माध्यम से...। समय कहीं अटकने लगता है...और लगता है जैसे ज़िन्दगी से कुछ निचुड़ने लगा हो...। अपने परिवार में सहसा ही हम सब को ऐसा ही महसूस होने लगा था ।
शायद वह दिन ही अभागा था जब वह छोटी सी घटना घटी । दिन के यही कोई दस-सवा दस बजे होंगे...। हमेशा की तरह उसने सबको नाश्ता कराया , खुद किया और फिर रोजमर्रा की आदत के चलते बाहर लॉन में आ गई , पेड़ों पर पानी का छिड़काव करने...। सहसा उसकी निगाह् बाउन्ड्री पर रखे मनीप्लान्ट के गमलों पर गई । उसके कुछ पत्ते मुरझा से गए थे । शायद उस ज़िन्दगी की तरह जो धीरे-धीरे , पर चुपके से , मुरझा रही थी । मनीप्लान्ट के मुरझित पत्ते जब झर जाते तो उसकी जगह नए पत्ते आ जाते...यही तो पत्तों की प्रकृति है...। पानी पाकर वे फिर् अपनी डाली पर नए रूप में जीवन्त हो उठते हैं , पर मनुष्य...?
इन्सान का जीवन भी जब इन पत्तों की तरह मुरझा कर अपनी डाली से अलग हो ज़मींदोज हो जाता है तो दूसरी ज़िन्दगी नए पत्तों की तरह उग आती है...। हर कोई जानता है कि मुरझित पत्ता फिर डाली पर नहीं लगता पर फिर भी , पता नहीं क्यों जी चाहता है कि काश ! डाली से अलग हुआ पत्ता एक बार फिर ज़िन्दगी की डाली से चिपट कर ताज़ादम हो जाए...पर जानती हूँ , प्रकृति अपना कानून नहीं बदलती...उसकी तरह इन्सान की प्रकृति भी नहीं बदलती...।
पेड़ों की देखभाल करते समय अपनी प्रकृति के अनुसार ही वह बड़बड़ाती जाती, " ये लोग ज़रा भी ध्यान नहीं देते...। अगर हम पानी न डालें तो सारे पेड़ ही मुरझा जाएँ...।"
परिवार रूपी पेड़ को वह पानी ही तो दे रही थी पर खुद अपने मुरझाते जाने का उसे ज़रा भी अहसास नहीं था । हल्की-फुल्की परेशानी तो लगी ही रहती थी...। कभी पेट में हल्का दर्द...तो कभी गैस की शिकायत...। कमज़ोरी भीतर जड़ जमा रही थी पर उसने इसे ज्यादा गम्भीरता से नहीं लिया । बस डाक्टर को दिखाया , दवा ली , तबियत सुधर गई...। परिवार में अक्सर ऐसी लापरवाहियाँ होती रहती हैं...। जब तक कोई गम्भीर घटना नहीं घटती , हम सब ज़िन्दगी को बहुत हल्के रूप में लेते हैं...। न डाक्टर रोग की गहराई में जाने की कोशिश करते हैं और न ही भुक्तभोगी इसे गम्भीरता से लेता है । स्नेह से जब भी चेक-अप कराने को कहती , वह बस यह कह कर चुप करा देती ," अरे समझती नहीं हो...घर में इतना काम रहता है...थकान तो होगी न...। फिर कई बार अंट-शंट भी तो खा लेते हैं , वही नुकसान कर जाता है...। जानती हो , ज्यादा दवा नहीं खानी चाहिए...इसके साइड इफ़ेक्ट फ़ायदा कम और नुकसान अधिक कर देते हैं...।"
उसे क्या पता था कि दवा बिना भी उसका जो नुकसान होना था , वह हो चुका था । उस दिन न तो दवा का असर था , न बद-दुआ का...जब स्टूल पर खड़ी हो कर वह मुरझाए पत्तों को डाली से अलग कर रही थी । बेध्यानी में उसका पैर कोने पर गया और वह धड़ाम से मुँह के बल ज़मीन पर गिरी । बचने के लिए हाथ का सहारा लिया तो सीधे हाथ की हड्डी टूट गई । उस वक़्त वह उठ तो गई पर वक़्त ने उसी जगह चुपके से एक अनकही-अनसुलझी कहानी उसके नाम लिख दी...कुछ ही दिनों में उसी जगह उसकी अर्थी सजाने के लिए...। माता-पिता और छोटी बहन की असमय मौत ने डोली सजाने का उसका इरादा तो बदल दिया था पर अर्थी सजने-उठने पर उसका वश नहीं चला...। काश ! वक़्त उसका यह इरादा भी बदल देता...। तीन मौतों के बाद उसके माथे पर छोटे भाई-बहनों की देखभाल की चिन्ता की जो रेखाएँ उभरी थी , वह उसकी अपनी बीमारी के वक़्त चरम पर थी...।
दिन भर की भाग-दौड़ की थकान से भारी हो मेरी पलकें पल भर के लिए झपकती और फिर क्षणांश ही चौंक कर मैं उठ जाती , यह देखने के लिए कि उसे किसी चीज़ की जरूरत तो नहीं...।
इस " क्षणांश " में ही मुझे उसकी चिन्ताग्रस्त आँखें दिख जाती पर मुझे जागते देख वह सहज दिखने की कोशिश करने लगती । मैं जानती थी कि भीतर से टूटते चले जाने के बावजूद हम सब सहज दिखने का नाटक करते...। वह् सहज दिखने की कोशिश इस लिए करती कि हम सबको दुःख न हो और हम सब इसलिए , कि उसे अपनी आने वाली मौत का अहसास न हो...। जीने की जिजीविषा कभी-कभी मौत के मुँह से भी इन्सान को खींच लाती है और इसी जिजीविषा को ही हम जगाना चाहते थे...। धोखा वह भी खा गई और धोखा हम भी खा गए...। वक़्त हाथ से जब सरकने लगा तब दिमाग़ ने जैसे काम् करना ही बन्द कर दिया...। समझ ही नहीं पा रहे थे कि किस डाक्टर के पास जाएँ...। डाक्टर जो भी टेस्ट लिखते , तुरन्त कराते...और हर टेस्ट के बाद वक़्त एक इंच और सरक चुका होता...। कुछ डाक्टरों की लापरवाही तो कुछ हमारी नासमझी ने उसकी बीमारी को गम्भीर बना दिया था...। जो कोई भी सलाह् देता , हम रात-दिन की परवाह किए बग़ैर भाग खड़े होते उस ओर...। दिल्ली...नासिक...मुम्बई...कहाँ-कहाँ से दवा नहीं आई...। उसे बचा लेने का आश्वासन हर किसी ने दिया पर बचाया किसी ने नहीं...। यह किसकी भूल थी...? हमारी...डाक्टर की या खुद उसकी...?
एक दिन दुःखी हो मैने उसे एक मीठी झिड़की दी थी ," यह क्या किया तुमने ? सारे भाई-बहनों का पूरा ध्यान रखती थी पर सिर्फ़् अपना नहीं रख पाई...। तुम्हें कोई अन्दरूनी परेशानी थी तो बताया क्यों नहीं...? क्यों ऐसा किया...? रोग को छिपाते वक़्त यह नहीं सोचा कि तुम्हारे बीमार पड़ जाने पर उनका क्या होगा ?"
प्रत्युत्तर में उसकी आँखें एक मासूम असहायता से भर गई थी ," दीदी...हम खुद धोखा खा गए...।"
और फिर मुझ से एक पल भी वहाँ रुका नहीं गया...। डाक्टर जवाब दे चुके थे । उसे क्या बताती...बस अपने को किसी तरह जब्त कर बाहर आते-आते इतना ही कहा ," ख़ैर , जो होना था , हो गया...। तुम घबराओ मत...जल्दी ही ठीक हो जाओगी...।"
पर बाहर आकर बाँध जैसे टूट गया । मुश्किल घड़ी में इस छोटे से वाक्य को बोलने में जैसे सदियाँ गुज़र गई...। काश ! प्रकृति का कानून बदल जाता...। इस सदी के गुज़रने का अहसास किसी को भी न हो...। इन्सान का शरीर उस मशीन की तरह न हो जिसमें ज़रा पानी पड़ जाने पर धीरे-धीरे जंग लग जाता है...। अगर प्रकृति का कानून नहीं बदल सकता तो ठीक है , पर वक़्त तो पूरा हो...। टिक-टिक चलती घड़ी चाहे अचानक बन्द हो जाए , पर उसमें जंग न लगे...।
उस जंग लगती मशीन का पुर्जा-पुर्जा टूट-बिखर गया पर जाते-जाते एक बात अच्छी तरह समझा गया कि मुश्किल घड़ी में किसी बुजुर्ग का सहारा मिले न मिले , पर एक बौद्धिक सलाह की बहुत ज्यादा जरूरत होती है...। ऐसे वक़्त अनुभव और समझ वाले किसी ऐसे का सहारा मिल जाए तो किसी भी परिवार के लिए वह सबसे बड़ी नेमत साबित होती है...। मेरा अपना यह अनुभव यदि भविष्य में किसी के काम आता है , तो मैं इसे सार्थक समझूँगी , क्योंकि अक्सर हम सब रोजमर्रा की ज़िन्दगी में व्यस्त होकर अच्छे-बुरे की पहचान करना भूल जाते हैं और यह भी विस्मृत कर देते हैं कि अच्छे वक़्त के सब साथी होते हैं पर बुरे वक़्त में अपनी परछाई भी साथ छोड़ देती है ।
( जारी है...)
कहते हैं कि जब कोई अनिष्ट होने वाला होता है तो उसके संकेत किसी न् किसी बहाने सामने आने लगते हैं...। कभी शब्दों के माध्यम से, तो कभी हल्की-फुल्की घटना के माध्यम से...। समय कहीं अटकने लगता है...और लगता है जैसे ज़िन्दगी से कुछ निचुड़ने लगा हो...। अपने परिवार में सहसा ही हम सब को ऐसा ही महसूस होने लगा था ।
शायद वह दिन ही अभागा था जब वह छोटी सी घटना घटी । दिन के यही कोई दस-सवा दस बजे होंगे...। हमेशा की तरह उसने सबको नाश्ता कराया , खुद किया और फिर रोजमर्रा की आदत के चलते बाहर लॉन में आ गई , पेड़ों पर पानी का छिड़काव करने...। सहसा उसकी निगाह् बाउन्ड्री पर रखे मनीप्लान्ट के गमलों पर गई । उसके कुछ पत्ते मुरझा से गए थे । शायद उस ज़िन्दगी की तरह जो धीरे-धीरे , पर चुपके से , मुरझा रही थी । मनीप्लान्ट के मुरझित पत्ते जब झर जाते तो उसकी जगह नए पत्ते आ जाते...यही तो पत्तों की प्रकृति है...। पानी पाकर वे फिर् अपनी डाली पर नए रूप में जीवन्त हो उठते हैं , पर मनुष्य...?
इन्सान का जीवन भी जब इन पत्तों की तरह मुरझा कर अपनी डाली से अलग हो ज़मींदोज हो जाता है तो दूसरी ज़िन्दगी नए पत्तों की तरह उग आती है...। हर कोई जानता है कि मुरझित पत्ता फिर डाली पर नहीं लगता पर फिर भी , पता नहीं क्यों जी चाहता है कि काश ! डाली से अलग हुआ पत्ता एक बार फिर ज़िन्दगी की डाली से चिपट कर ताज़ादम हो जाए...पर जानती हूँ , प्रकृति अपना कानून नहीं बदलती...उसकी तरह इन्सान की प्रकृति भी नहीं बदलती...।
पेड़ों की देखभाल करते समय अपनी प्रकृति के अनुसार ही वह बड़बड़ाती जाती, " ये लोग ज़रा भी ध्यान नहीं देते...। अगर हम पानी न डालें तो सारे पेड़ ही मुरझा जाएँ...।"
परिवार रूपी पेड़ को वह पानी ही तो दे रही थी पर खुद अपने मुरझाते जाने का उसे ज़रा भी अहसास नहीं था । हल्की-फुल्की परेशानी तो लगी ही रहती थी...। कभी पेट में हल्का दर्द...तो कभी गैस की शिकायत...। कमज़ोरी भीतर जड़ जमा रही थी पर उसने इसे ज्यादा गम्भीरता से नहीं लिया । बस डाक्टर को दिखाया , दवा ली , तबियत सुधर गई...। परिवार में अक्सर ऐसी लापरवाहियाँ होती रहती हैं...। जब तक कोई गम्भीर घटना नहीं घटती , हम सब ज़िन्दगी को बहुत हल्के रूप में लेते हैं...। न डाक्टर रोग की गहराई में जाने की कोशिश करते हैं और न ही भुक्तभोगी इसे गम्भीरता से लेता है । स्नेह से जब भी चेक-अप कराने को कहती , वह बस यह कह कर चुप करा देती ," अरे समझती नहीं हो...घर में इतना काम रहता है...थकान तो होगी न...। फिर कई बार अंट-शंट भी तो खा लेते हैं , वही नुकसान कर जाता है...। जानती हो , ज्यादा दवा नहीं खानी चाहिए...इसके साइड इफ़ेक्ट फ़ायदा कम और नुकसान अधिक कर देते हैं...।"
उसे क्या पता था कि दवा बिना भी उसका जो नुकसान होना था , वह हो चुका था । उस दिन न तो दवा का असर था , न बद-दुआ का...जब स्टूल पर खड़ी हो कर वह मुरझाए पत्तों को डाली से अलग कर रही थी । बेध्यानी में उसका पैर कोने पर गया और वह धड़ाम से मुँह के बल ज़मीन पर गिरी । बचने के लिए हाथ का सहारा लिया तो सीधे हाथ की हड्डी टूट गई । उस वक़्त वह उठ तो गई पर वक़्त ने उसी जगह चुपके से एक अनकही-अनसुलझी कहानी उसके नाम लिख दी...कुछ ही दिनों में उसी जगह उसकी अर्थी सजाने के लिए...। माता-पिता और छोटी बहन की असमय मौत ने डोली सजाने का उसका इरादा तो बदल दिया था पर अर्थी सजने-उठने पर उसका वश नहीं चला...। काश ! वक़्त उसका यह इरादा भी बदल देता...। तीन मौतों के बाद उसके माथे पर छोटे भाई-बहनों की देखभाल की चिन्ता की जो रेखाएँ उभरी थी , वह उसकी अपनी बीमारी के वक़्त चरम पर थी...।
दिन भर की भाग-दौड़ की थकान से भारी हो मेरी पलकें पल भर के लिए झपकती और फिर क्षणांश ही चौंक कर मैं उठ जाती , यह देखने के लिए कि उसे किसी चीज़ की जरूरत तो नहीं...।
इस " क्षणांश " में ही मुझे उसकी चिन्ताग्रस्त आँखें दिख जाती पर मुझे जागते देख वह सहज दिखने की कोशिश करने लगती । मैं जानती थी कि भीतर से टूटते चले जाने के बावजूद हम सब सहज दिखने का नाटक करते...। वह् सहज दिखने की कोशिश इस लिए करती कि हम सबको दुःख न हो और हम सब इसलिए , कि उसे अपनी आने वाली मौत का अहसास न हो...। जीने की जिजीविषा कभी-कभी मौत के मुँह से भी इन्सान को खींच लाती है और इसी जिजीविषा को ही हम जगाना चाहते थे...। धोखा वह भी खा गई और धोखा हम भी खा गए...। वक़्त हाथ से जब सरकने लगा तब दिमाग़ ने जैसे काम् करना ही बन्द कर दिया...। समझ ही नहीं पा रहे थे कि किस डाक्टर के पास जाएँ...। डाक्टर जो भी टेस्ट लिखते , तुरन्त कराते...और हर टेस्ट के बाद वक़्त एक इंच और सरक चुका होता...। कुछ डाक्टरों की लापरवाही तो कुछ हमारी नासमझी ने उसकी बीमारी को गम्भीर बना दिया था...। जो कोई भी सलाह् देता , हम रात-दिन की परवाह किए बग़ैर भाग खड़े होते उस ओर...। दिल्ली...नासिक...मुम्बई...कहाँ-कहाँ से दवा नहीं आई...। उसे बचा लेने का आश्वासन हर किसी ने दिया पर बचाया किसी ने नहीं...। यह किसकी भूल थी...? हमारी...डाक्टर की या खुद उसकी...?
एक दिन दुःखी हो मैने उसे एक मीठी झिड़की दी थी ," यह क्या किया तुमने ? सारे भाई-बहनों का पूरा ध्यान रखती थी पर सिर्फ़् अपना नहीं रख पाई...। तुम्हें कोई अन्दरूनी परेशानी थी तो बताया क्यों नहीं...? क्यों ऐसा किया...? रोग को छिपाते वक़्त यह नहीं सोचा कि तुम्हारे बीमार पड़ जाने पर उनका क्या होगा ?"
प्रत्युत्तर में उसकी आँखें एक मासूम असहायता से भर गई थी ," दीदी...हम खुद धोखा खा गए...।"
और फिर मुझ से एक पल भी वहाँ रुका नहीं गया...। डाक्टर जवाब दे चुके थे । उसे क्या बताती...बस अपने को किसी तरह जब्त कर बाहर आते-आते इतना ही कहा ," ख़ैर , जो होना था , हो गया...। तुम घबराओ मत...जल्दी ही ठीक हो जाओगी...।"
पर बाहर आकर बाँध जैसे टूट गया । मुश्किल घड़ी में इस छोटे से वाक्य को बोलने में जैसे सदियाँ गुज़र गई...। काश ! प्रकृति का कानून बदल जाता...। इस सदी के गुज़रने का अहसास किसी को भी न हो...। इन्सान का शरीर उस मशीन की तरह न हो जिसमें ज़रा पानी पड़ जाने पर धीरे-धीरे जंग लग जाता है...। अगर प्रकृति का कानून नहीं बदल सकता तो ठीक है , पर वक़्त तो पूरा हो...। टिक-टिक चलती घड़ी चाहे अचानक बन्द हो जाए , पर उसमें जंग न लगे...।
उस जंग लगती मशीन का पुर्जा-पुर्जा टूट-बिखर गया पर जाते-जाते एक बात अच्छी तरह समझा गया कि मुश्किल घड़ी में किसी बुजुर्ग का सहारा मिले न मिले , पर एक बौद्धिक सलाह की बहुत ज्यादा जरूरत होती है...। ऐसे वक़्त अनुभव और समझ वाले किसी ऐसे का सहारा मिल जाए तो किसी भी परिवार के लिए वह सबसे बड़ी नेमत साबित होती है...। मेरा अपना यह अनुभव यदि भविष्य में किसी के काम आता है , तो मैं इसे सार्थक समझूँगी , क्योंकि अक्सर हम सब रोजमर्रा की ज़िन्दगी में व्यस्त होकर अच्छे-बुरे की पहचान करना भूल जाते हैं और यह भी विस्मृत कर देते हैं कि अच्छे वक़्त के सब साथी होते हैं पर बुरे वक़्त में अपनी परछाई भी साथ छोड़ देती है ।
( जारी है...)
Saturday, October 2, 2010
रोइए...कि आप नर्क में हैं...
किश्त - दो
अभी कुछ बरस पहले की बात है, किसी असहाय की मदद करने की इच्छा से मैं कानपुर के सरकारी अस्पताल हैलट गई (किसी से भी आर्थिक सहयोग लिए बग़ैर अपनी सामर्थ्य के अनुसार मैं अक्सर ऐसा करती हूँ...। शायद , मेरे भीतर भी इसी बहाने पुण्य कमाने की लालसा हो...)। वहाँ मैने फ़्रैक्चर विभाग के जनरल वार्ड में एक ऐसे व्यक्ति को चुना जो एक दुर्घटना में अपने दोनो पैर ही नहीं वरन याद्दाश्त भी गँवा बैठा था...। फ़र्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला वह आदमी महीनों अपने बारे में जान ही नहीं पाया कि वह कौन है और वहाँ कैसे आया ? किसी ने पता लगाने की कोशिश भी नहीं की । कोई दयावान दुर्घटनास्थल से उसे उठा कर हैलट के परिसर में डाल गया था । सैप्टिक हो जाने के कारण उसके दोनो पैर काट दिए गए थे और अब हैलट के एक कोने में पड़ा वह पूरा नर्क भोग रहा था ।
वहाँ आने वाले दूसरों के तीमारदार दया करके कभी उसे खाना दे देते तो कभी मरहमपट्टी के पैसे...। मैं जब उससे मिली तो उसकी अंग्रेजी ज़ुबान से हैरत में पड़ गई । उसकी याद्दाश्त उसका कितना साथ दे रही थी, नहीं जानती पर उसकी भरी आँखें एक सच को बयान कर रही थी...पूरी ईमानदारी के साथ...कि वह एक बड़ी कम्पनी में बड़ा अधिकारी था...। उसे मरा जान कर उसके बेटे को वह पद दे दिया गया...। उसकी याद्दाश्त वापस आ गई है, पर वह किसी को अपने घर का पता या कम्पनी का नाम नहीं बताएगा...। एक नर्क से अब वह दूसरे नर्क नहीं जाना चाहता...। बस , दूसरों के रहमोकरम पर बाकी ज़िन्दगी...नहीं, मौत से बदतर ज़िन्दगी के दिन पूरे करना चाहता है...।
उसकी पीड़ा से मैं बहुत आहत थी पर वह वहाँ अकेला नहीं था...। फ़्रैक्चर वार्ड में न जाने कितने उस जैसे थे और चाह कर भी मैं सभी की सहायता नहीं कर सकती थी । आर्थिक साधनों की कमी के अहसास ने मेरे भीतर एक बेचारगी सी भर दी थी...। कुछ रुपए , खाना-कपड़ा, दवा...जो बन पड़ा, उसे देकर चली आई पर उस दिन उस बूढ़े व्यक्ति की आँखों में जिस नर्क की यातना को मैने देखा , उसने मुझे भीतर तक हिला कर रख दिया । जनरल वार्ड इस कदर बदबुआई अव्यवस्था से भरा हुआ था कि वहाँ एक पल भी ठहरना मुश्किल लग रहा था ।
अलग-अलग मैले-कुचैले कपड़ों में पड़े मरीज , गन्दे बिस्तर...दुर्घटना के शिकार लोगों के घाव पर भिनभिनाती मक्खियाँ...घायलों या बीमारों से ज्यादा लाचार दिखते उनके तीमारदार...। कोई दर्द से चीखते अपने बच्चे को संभाल रहा है तो कोई मौत की दुआ माँगते अपने प्रियजन को सांत्वना दे रहा है । चारो तरफ़ कराहट का एक ऐसा शोर था जिसने "यम" (?) को बहरा बना दिया था...। छिः, नर्क में इतनी भीड़...? बेचारे "यम" किसकी सुनें...?
बाहर बरामदे में खूनी, बदबूदार , पीले पेशाब की नदी थी । भीतर गिनती के शौचालय थे , पर वे भीषण गन्दगी से अटे पड़े थे । घायल , टूटी हड्डियों वाले लोग तो वैसे भी वहाँ पहुँचने में असमर्थ थे । बरामदा सबसे क़रीब था । परिजनों ने इधर-उधर देखा , किसी को न देख या तो मरीज को वहीं बिठा दिया या फिर पॉट पलट दिया । बस्स...अपना तो काम हो गया भाई...। अब दूसरा कुछ भी करे...भुगते...उसे क्या ? इस "क्या" से मतलब तो डाक्टर और नर्स को भी नहीं था...। मुँह पर नक़ाब सा पहन बचते-बचाते आते , मरीज के साथ औपचारिकता निभाते, बनावटी चिन्ता से थोड़ा मुँह् बिचकाते हुए उसके परिजन को दवा का पर्चा पकड़ा कर कुछ हिदायत देते और फिर जिस अदा से अपना पार्ट निभाने आते, उसी अदा से चले भी जाते...। उस नर्क में इससे ज्यादा देर उनसे ठहरा भी कहाँ जाता था...। बाहर उनके लिए स्वर्ग-सी एक अलग दुनिया थी न...।
सच कहूँ, दुबारा उस नर्क में जाने की हिम्मत मैं भी नहीं जुटा पाई...। पर जब कोई अपना इस नर्क में अनजाने ही फँस जाए तो ? बचाव का रास्ता कहाँ से निकलता है, नहीं जानती थी । कोई भी जानबूझ कर इस नर्क में नहीं जाना चाहता । जो फँसते हैं, वे या तो मजबूर होते हैं या फिर अनजाने ही धोखा खा जाते हैं । हमारा परिवार भी अनजाने ही फँस गया था और ऐसा फँसा कि मौत को आगे कर ज़िन्दगी ने अपना दामन झटक लिया...।
( जारी है )
Friday, October 1, 2010
रोइए...कि आप नर्क में हैं
किश्त - एक
सदियों से हमारे पुरखों ने सुना और गुना...उनसे हमारे बड़ों ने सुना...कि इस दुनिया से इतर भी एक दुनिया है...और उन्होंने अपने जीवन में उन सीखों को उतारा और फिर हमें बताया । हमारे पौराणिक ग्रन्थों के पन्नों पर भी यही अंकित है पर बावजूद इसके, इसकी सत्यता के बारे में कोई ठोस सबूत नहीं ।
अनुभव किए बग़ैर सत्य को कोई कैसे जान सकता है कि पापी आदमी मरने के बाद घोर नर्क में जाता है और विपरीत् इसके पुण्यात्मा स्वर्ग में...। आखिर नर्क है क्या और इसका अस्तित्व कहाँ है ? जो सुना था उसके हिसाब से तो नर्क में भीषण गन्दगी होती है...अजीब-अजीब जानवर और कीड़े-मकोड़े होते हैं...दया से परे क्रूर दैत्य व दानव होते हैं...। वहाँ हमेशा आग जलती रहती है जिसपर बड़ा सा तेल भरा कड़ाहा रखा रहता है । यमदूत पाप-कर्मों के हिसाब से दण्ड देते हैं...। कभी भाला चुभाते हैं तो कभी खौलते तेल में डाल देते हैं...। आदमी ( या आत्मा ) रोता है , गिड़गिड़ाता है पर मर्मान्तक पीड़ा देने के बाद ही यमदूत उसे बाहर निकालते हैं और बाहर भी राहत नहीं । बाहर, कुछ और खतरनाक जीव उस पर झपट्टा मारने को तैयार खड़े...। मुक्ति कहीं नहीं...न उसे और न उसके परिजनों को...। छिः , जब पाप किया है तो दण्ड भुगतो...। पर इसके विपरीत पुण्यात्मा स्वर्ग का भोग करते हैं...एक ऐसे सुख का भोग जो कल्पना से भी परे होता है । खूबसूरत, आलीशान आशियाना...सुन्दर-सुन्दर अप्सराएँ...सुरापान...सैकड़ों सेवक ( या बाडीगार्ड ?)...और छप्पन भोग...दुःख का नामोनिशान नहीं...।
बचपन में मैं बहुत शरारती थी । इस शरारत के चलते, अनजाने ही सही, दूसरों को सता डालती । मेरी माँ जब परेशान हो जाती तब खीज कर यही कहती," तुम्हें नर्क का डर नहीं क्या ?"
मैं हँस कर कहती," मरूँगी तब जाऊँगी न?"
माँ हार कर चुप हो जाती, पर वह भी कहाँ जानती थी नरक की पूरी परिभाषा...उसका पूरा सच...। वह तो अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देते समय , बड़ों का सम्मान करना सिखाने के लिए जो भय अपने बच्चों के भीतर भरती थी, उसका तो कहीं अस्तित्व ही नहीं था...। बचपन में उन्होंने भी शरारत की आड़ में कई भूलें की होंगी और उस दौरान उनके बचपन ने भी मेरे ही बचपन की तरह स्वर्ग और नर्क की सच्चाई को नज़र-अन्दाज़ किया होगा...पर आज...?
आज तो मैं बच्ची नहीं...। इस लिए अपने बुजुर्गों से जो कुछ भी सुना, उसे पूरी तरह् नकारती हूँ...क्योंकि स्वर्ग और नर्क को मैने इसी धरती पर देखा है, उसे महसूसा है और वह भी जीवित इंसानों के माध्यम से...। अरे, मरने के बाद कोई कैसे बता सकता है कि वह कहाँ गया ?
अब स्वर्ग नर्क की परिभाषा ही नहीं बल्कि हमारे पौराणिक ग्रन्थों की महत्ता भी इस ग्लोबलाइजेशन के युग में पूरी तरह बदल चुकी है...। पाप और पुण्य से तो अब इसका वास्ता ही नहीं रह गया है । मेरी बात को नकार देने वाले क्या खुद इस बात को झुठला सकते हैं कि बड़े-बुजुर्गों का अपमान करने वाले , अशक्तों को सताने वाले, ग़लत ढंग से धन कमाने वाले, दूसरों को उल्लू बनाने वाले, ढोंगी बाबा आदि ही नहीं बल्कि भीषणतम अपराध करने वाले दबंग लोग स्वर्ग सा सुख उठाते हैं और विपरीत इसके इस कलयुग में भी जो सीधे-सादे , मासूम और संस्कारी लोग हैं, वे क्यों आम् की जमात में खड़े रह कर तन-मन-धन से दुःख भोगते हैं ? ग़रीब-दुखियों को दान देने से, जरूरतमन्दों की मदद करने और बड़े-बुजुर्गों की सेवा और उन्हें प्यार-सम्मान देने से स्वर्ग मिलता है ...आज के युग का भीषण नर्क क्या इन्हें झूठा साबित नहीं कर रहा ?
आज मेरे मन में माँ का दिया विश्वास भी टूट गया है । कभी सोचा नहीं था कि जीते-जी इस नर्क से मेरा वास्ता पड़ेगा । अपनी जानकारी में इस ज़िन्दगी में मैने ऐसा कोई पाप नहीं किया जिसके कारण मुझे नर्क की यातना झेलनी पड़े और जिस इंसान के कारण वह यातना झेलनी पड़ी, उसने तो बचपन में भी कोई शरारत नहीं की थी, किसी को भी नहीं सताया था । वह तो बेकसूर और मासूम थी, फिर नर्क की सज़ा क्यों...?
अगर ईश्वर कहीं है तो मैं उससे पूछना चाहूँगी कि क्या उसका कानून भी अन्धा है ? जो पाप करता है, ग़लत ढंग से नाम-दाम कमा कर समाज में वर्चस्व बनाता है, वह स्वर्ग का सुख भोगता है पर जो बेकसूर है, उसकी फ़रियाद भी नहीं सुनी जाती...बस सज़ा सुना दी जाती है...मौत की सज़ा...।
शायद वे सभी लोग , जिनका कोई अपना जीते-जी इस नर्क की यातना को भुगत चुका है, भगवान से नहीं बल्कि अपनी सरकार से, झक्क सफ़ेद लिबास में सजे चुस्त-दुरुस्त या तोंदियल नेताओं से, समाज सुधारने का दम भरने वाले मुखौटों से और जनता की भलाई के नाम पर नित नए कानून बनाने वालों से यह पूछना चाहेंगे कि जिसके पास राजनैतिक-सामाजिक दमखम है...इफ़रात धन है...सामाजिक सरोकारों का आधार है, क्या वही सुख के अधिकारी हैं ? शारीरिक दुःख हो मानसिक , हर कोई उन्हें अपनी हथेली पर् बैठाने को तैयार...पर यह जो आम आदमी है, वे क्या कीड़े-मकौड़े की तरह दुःख भोगने के लिए बने हैं ? उनकी आवाज़ न कानून सुनता है, न ईश्वर...। आखिर इस अन्धेर नगरी का कभी अन्त होगा या नहीं ? मैं समझती हूँ शायद नहीं । किसी की आवाज़ में अगर दम होता भी है तो वह आवाज़ कई बार उस कोड़े के भय से दब जाती है जो दिखाई दिए बग़ैर भी बरसता है ।
( जारी है )
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