Thursday, April 21, 2011

सोनचिरैया की उडान


कविता
                             सोनचिरैया की उडान

                 शहर,
                 एक घने और ख़ौफ़नाक जंगल सा
                 मेरी आँखों में पसरा हुआ है
                 और मैं
                 एक भटकी-डरी सोनचिरैया सी
                 अपने ही टूटे पंखों के बीच
                 सिर दिए
                 दुबकी हुई हूँ
                 सदियाँ बीत गई
                 पर वह त्रासद इंतज़ार
                 ख़त्म नहीं होता
                 जंगल के संकरे...ऊबड़-खाबड़ रास्ते की तरह
                 सोचती हूँ
                 दुबारा पंख उगेंगे क्या?

                 चीड़ के पत्तों के बीच उगा अंधेरा
                 और बड़ा होता जा रहा है
                 विकराल गिद्ध ने
                 उसके चारो ओर
                 अपने डैने फैला लिए हैं
                 कैसे कहूँ
                 तुम्हारे भीतर बैठी
                 वह काली खुंखार-जंगली बिल्ली
                 पैने पंजों से मिट्टी खुरचती
                 मौके की ताक में है
                 कब नीचे आए
                 लाल गोट सा सूरज
                 और फिर
                 बस एक छ्लाँग काफी है
                 पैने दाँतो के बीच
                 जंगल जलेबी सा मीठा चाँद
                 छटपटा रहा है
                 सोनचिरैया नहीं जानती
                 अपने आकांक्षित सपने की उडान
                 पर फिर भी
                 एक सपना उसकी मुंदी आँखों से झर रहा है
                 झर-झर करते ठंडे झरने की तरह
                 किसी दिन
                 यह काली बिल्ली हटेगी
                 और तब
                 वह अपने नए पंख के साथ
                 उड़ेगी
                 खुले आकाश में सूरज के साथ

(चित्र गूगल से साभार )

12 comments:

  1. आशा रखिये ...
    इंतज़ार के दीप जलाये रखिये ....
    वो सुबह ज़रूर आयेगी ....
    सुंदर रचना .

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  2. मानी बहन बहुत भावप्रवण और मँजी हुई कविता है , एकदम लाज़वाब !हार्दिक बधाई ऐसे सार्थ्क रचनाक्रम के लिए ।

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  3. किसी दिन
    यह काली बिल्ली हटेगी
    और तब
    वह अपने नए पंख के साथ
    उड़ेगी
    खुले आकाश में सूरज के साथ


    संवेदनाओं से भरी बहुत सुन्दर कविता...
    चर्चामंच से लिंक मिली...पहली बार आना हुआ...
    यहां आ कर सुखद लगा...

    आपकी कविता मन को छूने में सक्षम है....बधाई और शुभकामनाएं |

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  4. सोनचिरैया की सफल उड़ान के लिये हमारी भी हार्दिक शुभकामनायें हैं ! आसमान में गिद्ध और ज़मीन पर काली बिल्ली घात लगाए बैठी है ! ईश्वर उसकी इन विपदाओं से रक्षा करें यही कामना है ! बहुत सुन्दर रचना है ! बधाई स्वीकार करें !

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  5. बहुत ही उम्दा प्रस्तुति……………बहुत पसन्द आई।

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  6. शानदार......
    यह रचना बहुत अच्छी लगी। कृपया बधाई स्वीकार करें।

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  7. जंगल जलेबी सा मीठा चाँद
    छटपटा रहा है
    सोनचिरैया नहीं जानती
    अपने आकांक्षित सपने की उडान
    पर फिर भी
    एक सपना उसकी मुंदी आँखों से झर रहा है
    झर-झर करते ठंडे झरने की तरह
    किसी दिन
    यह काली बिल्ली हटेगी
    और तब
    वह अपने नए पंख के साथ
    उड़ेगी
    खुले आकाश में सूरज के साथ

    क्या कहूं, पहली बार ब्लॉग पर हूं और इतनी सुंदर रचना पढ़ने को मिली...
    ख्वाब होंगे तो सच भी होंगे..जीने के लिए आत्म विश्वास बहुत जरूरी है...
    फॉलो भी कर रही हूं आप भी जरूर आइए...

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  8. चीड़ के पत्तों के बीच उगा अंधेरा
    और बड़ा होता जा रहा है
    विकराल गिद्ध ने
    उसके चारो ओर
    अपने डैने फैला लिए हैं
    कैसे कहूँ
    तुम्हारे भीतर बैठी
    वह काली खुंखार-जंगली बिल्ली
    पैने पंजों से मिट्टी खुरचती
    sunder likha hai shabd aur bhavon ka kya kahna
    rachana

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