Friday, January 14, 2011

उफ़ ! भयानक अनुभव से गुजरते हुए...( 4 )

( किस्त- तेईस )               

                     हर सरकारी या गैर-सरकारी अस्पताल में वहाँ के स्टाफ़ पर निगाह रखने के लिए , हर ज़िम्मेदारी को पूरा करवाने के लिए एक ऊँचे व रोबदार ओहदे पर डाइरेक्टर साहब होते हैं । पर अपने नर्कवास के दौरान मैने एक बार भी नहीं सुना कि पी.जी.आई के डाइरेक्टर ने कभी सहसा ही दौरा करके वहाँ की कमियों को पकड़ा हो या उसे दूर करने-करवाने की कोशिश की हो...। हाँ , यह जरूर है कि किसी के हल्का-फुल्का बड़बड़ाने पर यह कह दिया गया कि आप जाकर अपनी कम्प्लेन्ट लिखवा दीजिए...। अरे भ‍इयाऽऽऽ , वहाँ भर्ती आदमी की और दुर्दशा करवानी है क्या , जो कोई ऐसी हिमाकत करेगा...? शौचालय की शिकायत करने पर तो सबकी दुर्दशा देख ली...और कुछ देखने की हिम्मत है किसी में...?
                 सी.टी स्कैन करवाने के दौरान दो नवयुवकों ने हिम्मत तो दिखाई थी...। दो घण्टे इन्तज़ार करने के बाद भी जब बारी नहीं आई तो बीमार के साथ आए एक युवक ने धैर्य खोकर इतना ही कह दिया , " क्यों भ‍इया...इतना परेशान क्यों कर रहे हो...? "
                 बदले में भीतर से गुर्राहट उभरी थी , " अभी परेशान किया कहाँ है...? करके दिखाएँ क्या...? "
                 उसकी गुर्राहट से ढाई घण्टे से बैठी स्नेह सहम कर और सिकुड़ गई थी...। आपस में जुड़ी लोहे की कुर्सियाँ और उस पर बैठा गंभीर मरीज...। मैं स्वस्थ थी , तब बैठे-बैठे मेरा बुरा हाल हो रहा था...। बहन का क्या हाल हो रहा होगा , बयान करना मेरे वश में नहीं...। वैसे वहाँ हाल ठीक किसका था ही...? बीमार पड़ जाने का मतलब ही होता है , लाचारी में अपनी दुर्दशा करवाना...। रोज अल्ट्रासाउण्ड के नाम पर पलंग समेट घसीट कर मरीज नीचे ले जाया जाता...फिर भारी भीड़ के बीच अपनी बारी का इन्तज़ार...। आसपास भारी , उदास वातावरण के बीच ऊभरती फुसफुसाहटें मरीज को अपने जीवन की अनिश्चितता के बारे में और चिन्तित कर देती...।
               
( जारी  है  )

No comments:

Post a Comment