( किस्त- इक्कीस )
इस अस्पताल के कष्टकारी अनुभवों के दौरान मैं एक अनुभव ताउम्र नहीं भूलूँगी...। जिस दौरान ऊपर के शौचालय में तोड़फोड़ चल रही थी , उसी दौरान समय-असमय बाहर का खाना खाने से मुझे फ़ूड-प्यॉजनिंग हो गई...। थोड़ी-थोड़ी देर में मुझे शौचालय की ओर भागना पड़ रहा था । एक घूंट पानी भी हज़म नहीं हो रहा था और न ही मेरे पास नीचे के शौचालय में पहुँच पाने का समय होता था । शौचालय और वार्ड की दूरी इतनी ज़्यादा थी कि कई बार उस ओर भागते-भागते भी कपड़ा खराब हो जाता । साथ ही मुझे उल्टियाँ भी हो रही थी...। इतनी भीषण गन्दगी और पानी की नदारती में चुल्लू भर पानी में डूब मरने की कहावत एक नए अर्थ में चरितार्थ हो रही थी । आखिर भाई से रहा नहीं गया...। पानी की ढेर सारी बोतलें खरीद लाया...किसी तरह उन्हीं से काम चला रही थी...। पर रात के यही दो-सवा दो बजे रहे होंगे...। खराब कपड़े को बाथरूम में धोकर फिर से उसी को पहना हुआ था क्योंकि ऐसी तबियत में मेरे पास कोई सूखा कपड़ा बचा ही नहीं था...। मरती क्या न करती...। गीले कपड़े पहने-पहने ही बार-बार जाकर स्नेह को भी देख रही थी...। बस्स , रात किसी तरह गुज़र जाए...।
पर रात क्या गुज़रती है ? ऐसे कठिन समय में तो और भी लम्बी हो जाती है...। जीवन में इतनी लम्बी रात का तो मैने कभी अनुभव नहीं किया । सबसे छोटी बहन गुड़िया की हालत भी घबराहट में खराब थी...। दूसरे भाई-बहन भी जैसे खाना-पीना छोड़ बैठे थे...। उन्हीं की देखभाल के लिए गुड़िया रोज अप-डाउन कर रही थी लखनऊ और कानपुर के बीच...। मेरी बेटी की तबियत अलग खराब थी...वह गहरे डिप्रेशन में आ गई थी...। हार कर मैं और छोटा भाई सुनील ही वहाँ थे स्नेह की देखभाल के लिए...पर मेरी हालत...? क्या ईश्वर किसी अपराध का दण्ड दे रहे थे या हम सब की हिम्मत परख रहे थे ? मैं समझ नहीं पा रही थी और दिन-ब-दिन ईश्वर पर से आस्था जैसे ख़त्म सी होती जा रही थी...।
हाँलाकि ऐसा नहीं था कि ह्मारा परिवार ही ऐसी समस्या या दुःख से गुज़र रहा था...। वहाँ तो ऐसे अनगिनत थे जिनका दुःख तो हमसे भी बड़ा था , पर सबके हाथ में कलम की वह ताकत नहीं थी जिसके माध्यम से दुनिया को यह कड़वा सच बताया जा सके...। सबके पास टकराने की हिम्मत भी नहीं थी...। भालों के पास कौन जाए...न जाने कब-कहाँ चुभ जाएँ...। इसमें भाग्य को दोष देकर ही उन्हें सन्तोष था पर मुझे नहीं...। दूसरों के बेवजह दिए दुःख को मैं आसानी से क़बूल नहीं करती । यद्यपि मेरी इस आदत के चलते स्नेह बहुत डरी-सहमी रहती और शायद उसी के कारण मैं जितने दिन भी उस नर्क में रही , चुपचाप सब सहती रही...।
पर सहने की भी एक हद होती है...। इतना बड़ा अस्पताल और अगर किसी की हालत अचानक खराब हो जाए तो कोई डाक्टर तक उपलब्ध नहीं था...। भयानक दस्त-उल्टी से मेरी हालत बिगड़ गई थी । सुनील ने नर्स से किसी डाक्टर के बारे में पूछा तो उसने सुबह तक इन्तज़ार करने को कहा । पर फिर शायद उसे कुछ दया आ गई और उसी ने भाई को दवा का नाम लिखवा दिया । रात को तीन बजे वह बाहर जाकर दवा लेकर आया , तब कहीं सुबह तक मेरी हालत कंट्रोल में आई...। अगर समय पर दवा नहीं मिलती तो कोई भी जानलेवा ख़तरा हो सकता था । शायद डीहाइड्रेशन के चलते मेरी किडनी फ़ेल हो सकती थी या शरीर के अन्दर कोई इन्फ़ेक्शन फैल सकता था...। यह बात उस नर्स ने ही बाद में मेरे भाई को बताई थी...। आज घर पर हूँ , पर उस क्षण को याद कर सिहर जाती हूँ...। बहन की ज़िन्दगी तो ख़ात्मे के कगार पर थी ही , पर उसके साथ अगर मैं भी...? कितना कठिन वक़्त था...। हम सब साझेदार बने उस कठिन वक़्त को निकाल रहे थे । अक्सर अच्छे इन्सानों के मुँह से यह जरूर निकलता है कि भगवान किसी दुश्मन को भी यह दिन न दिखाए...और हम कोशिश करते अच्छे इन्सानों में शुमार होने की...। काश ! हर कोई ऐसी ही कोशिश करता , पर हमारे चाहने से कुछ नहीं होता । सारी दुनिया में दो तरह के ही इन्सान हैं- अच्छे और बुरे...। अच्छे इन्सान दूसरों के दुःख में दुःखी हो जाते हैं और बुरे इन्सान दूसरों को कष्ट में देख कर खुश होते हैं...। एक दिन इस दुनिया से आगे-पीछे सभी को विदा होना है , तब इतनी ईर्ष्या , मारामारी क्यों...?
दोनो हाथों से बटोरने के बाद भी दूसरे की सहायता करने की कामना क्यों नहीं होती ? हमारे हाथ में अगर किसी कि ज़िन्दगी बचाने का हुनर है तो हम उसे बचाते क्यों नहीं ? आज ज़िन्दगी के मायने क्या इतने बदल गए हैं कि हम उसमें और मौत में कोई फ़र्क ही नहीं कर पाते...? जायज-नाजायज़ तरीके से सुख के सारे साधन हासिल कर उसका भोग करते वक़्त हम यह क्यों भूल जाते हैं कि यह शरीर हमारे-तुम्हारे के भेद से परे होकर एक दिन उस सुख को नगण्य कर देगा...।
भयानक अनुभवों से कभी-न-कभी हर कोई रू ब रू हुआ होगा । काश ! हम उसे ही याद करके दूसरों के दुःख में अपनी खुशी तलाशना बन्द कर दें तो यह दुनिया कितनी खुशनुमा हो जाए...।
( जारी है )
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