बात उस समय की है जब जवानी की दहलीज पर मैंने पाँव
धरा ही था| एक नए एहसास के साथ उस दहलीज पर पैर पड़ तो गए थे, पर बचपन व किशोरावस्था
की शरारतों ने साथ नहीं छोड़ा था| माँ की घुड़की के बावजूद किसी पक्की सहेली की मानिंद
शरारत मेरा दामन थामे रखती और जब ज्यादा रोबदाब पड़ता तो धीरे से वह कुछ पल के लिए
दुबक जाती मन के कोने में...।
उस पक्की सहेली का खूबसूरत साथ तो था ही, पर उससे
ज्यादा खूबसूरत बचपन से जवानी की दहलीज तक पहुँचे हुए वे दिन थे...| चँदोबे तने आकाश
के नीचे बिछे बड़े से आँगन में ठंडी हवा के
साथ हम भाई-बहन देर रात तक खूब धमा चौकड़ी करते और तब तक करते जब तक माँ पतली सी छड़ी
लेकर ना आ जाती| हम लोग डर के मारे किनारे बाउंड्री से सटी सारी खटिया उठाते और धड़ाधड़
उसे बिछा लेट जाते...| (उस समय आज की तरह पलंग हर घर में नहीं होते थे ज्यादातर लोग
मूंज की बिनी चारपाई का ही इस्तेमाल करते थे|)
हमारे उस आँगन की दीवार से सटा बाहर की ओर एक बड़ा सा नीम का पेड़
था| जब घर की सारी बत्तियाँ बुझ जाती और तेज हवा के झोंके से नीम का पेड़ झूमता, अंधेरे
में लगता जैसे कोई साया नाच रहा हो...| हम बड़े बच्चे तो ध्यान नहीं देते थे, पर छोटों
की डर के मारे घिग्घी बन जाती| उन्हें लगता कि उस पेड़ पर कोई भूत है, जो रात में बाहर
आकर नाचता है।
हमारे पिताजी उस समय लेबर ऑफिस में प्रोबेशनरी ऑफिसर
के पद पर थे| हर तीन साल में पिताजी का ट्रांसफर हो जाता...पिताजी को सरकारी मकान मिलता
था और वह भी काफी बड़ा...| जिस मकान का में जिक्र कर रही हूँ, वह गोरखपुर में था...|
साल भर पहले ही हम लोग वहाँ आए थे| उस मकान का खाका मेरे जेहन में इतने वर्षों बाद
भी ज्यों का त्यों है| इसका एक कारण उसका विशाल होना तो है ही, पर उससे अलग एक और बात
है जो आज भी मुझे उस जगह की याद दिलाती है...|
अन्य शहरों में ट्रांसफर होने पर पिताजी को सिर्फ
बड़ा मकान ही मिलता था, पर इत्तेफाक से गोरखपुर में जो विशाल बँगला मिला था उसके सामने
काफी बड़ा बगीचा भी था| बगीचे के चारों ओर की क्यारी में तरह-तरह के खूबसूरत फूलों
के पौधे थे, तो बीच के मैदान में आम के आठ-दस पेड़...| बगीचे के मुख्य रास्ते पर काफी बड़ा फाटक
था, जिसे चौकीदार हमेशा बंद रखता था| वह बगीचा चूँकि बंगले के साथ ही था अतः बाहरी
लोगों का वहाँ आना मना था। हाँ...बगीचे के बाहर और भी कई प्राइवेट बंगले थे...| उन
बँगलों में ऊँचे पद पर तैनात लोगों के परिवार थे, जिनसे हम लोगों की अच्छी खासी पारिवारिक
दोस्ती थी| अप्रैल-मई के महीने में जब सारे पेड़ों पर कच्चे-पक्के आम लग जाते, तब माली
की सहायता से हम उसे तोड़ लेते...| माँ अपने भर के लिए थोड़े आम रखकर बाकी सारे बँगलों
में बांट देती| अचार-चटनी बनाने के लिए ऑफिस के लोग भी आकर आम ले जाते...| आम इतने
ढेर सारे हो जाते कि लगता जैसे वहाँ आम की मंडी हो...| पेड़ के पके आम खाकर हम लोग
तो क्या, आसपास के सारे लोग अघा जाते। माँ पिताजी इस मामले में इतने मिलनसार थे कि
बगीचे का आम रहा हो या क्यारी के फूल...लेने से किसी को मना नहीं करते थे| बगीचे के
बाहर एक छोटी सी झोपड़ी बनाकर एक ग्वाला परिवार भी रहता था| ग्वालिन मीठे आम रस से
अमावट बनाने में बहुत माहिर थी| उस अमावट का स्वाद वहाँ से आने के बाद कभी नहीं मिला...|
मेरी माँ मीठे आमों के साथ और भी तरह तरह की चीजें उस ग्वालिन को दिया करती, बदले में
वह खूब गाढ़ा दूध सस्ते में हमारे घर दे जाती, जिसे हम लोग बिना मार खाए नहीं पीते
थे...| आज के बच्चों को जब मिलावट वाला दूध पीते देखती हूँ तो दुख होता है| तकनीकीकरण
के इस युग में तरक्की करके जितना हमने पाया, उससे कहीं ज्यादा खो दिया है| जिस चुलबुले
व मस्त बचपन से हमारी जिंदगी लबरेज थी, वह आज के भारी बस्तों के बोझ तले दबे बचपन को
कहाँ मयस्सर है...? जो शुद्धता हमारे जीवन में थी, वह आज मिलावट के ज़हर में कितनी घुल
मिल गई है, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं...| हाँ, इतना जरूर है कि पहले की अपेक्षा
आज हर पल का संघर्ष बढ़ गया है ।
संघर्ष से याद आया...नीम का पेड़ जिसकी हरी पत्तियाँ
इमली के पेड़ की खट्टी पत्ती की तरह सोच कर मैंने व मेरे दोस्तों ने चबा ली थी और फिर
उसके कसैलेपन से घबराकर टेढ़ा मेढ़ा मुँह बनाकर थू-थू करते हुए नल की ओर भागे थे...|
खूब अच्छी तरह पानी से कुल्ला करने के बावजूद उसका कसैलापन जैसे जुबान पर बैठ गया था...|
हम बच्चों को परेशान देखकर हमारे घर में काम करने वाले रामअचल ने समझाया...”तुम लोग
इतना काहे को परेशान हो रहे हो...? नीम कड़वी जरूर है, पर जानते हो...यह फायदा बहुत
करती है...| फोड़े फुंसी हो, चोट लग जाए, देवी माँ निकल आए... सबमें नीम की पत्तियाँ
रामबाण है और नीम की डंडी से दांत माँजने से दांत खूब मजबूत होते हैं...| तुम लोग तो
ऐसे मुँह बना रहे हो जैसे कोई खतरनाक चीज चबा
ली हो...|” उस समय उसकी बात सुनकर हम सबने और भी बुरा मुँह बनाया था, पर बाद में जब क्लास में हिंदी पढ़ाने
वाली टीचर मीरा ने किसी समस्या पर टिप्पणी दी थी कि "जिंदगी में अगर कड़वाहट ना
घुले तो हम उसके सच को कैसे जान पाएंगे...? खट्टे मीठे अनुभवों का सार ही है जिंदगी...तुम महान
लोगों की जिंदगी के पृष्ठ खोलकर पढ़ो तो पता चलेगा कि कष्ट भरे जीवन में संघर्ष के
रास्ते चलकर उन्होंने सुख पाने की प्रेरणा ली...।"
मुझे समझ में उनकी बात आ गई थी...| वर्तमान में
नीम की पत्ती सदृश्य जो कड़वी चीज़ परेशान करती है, वह आगे भविष्य में जीवन को मजबूती
देने का आधार ही तो बनती है...| मैंने बचपन में नहीं पर सोलहवें बसंत के आगाज़ पर नीम
की कड़वी पत्तियाँ चेहरे पर उग आई फुंसियों से निजात पाने के लिए ढेरों चबा ली थी,
पर मुझे क्या पता था कि उस बेदाग चेहरे पर रीझ कर एक ऐसा शख्स मेरी जिंदगी में आएगा,
जो मेरी जिंदगी को नीम से भी ज्यादा कड़वी बना देगा...| अपनी जिंदगी के कड़वाहट भरे
क्षणों को मैंने अपना संबल बनाया और नीम की पत्तियों को अपनी प्रेरणा...| आज अपने भाग्य
पर उगे फोड़े फुंसियों को थोड़ा सा ही सही...बेदाग़ कर पाने के बाद मुझे लगता है...सच
में नीम बड़ी मुफीद चीज है...।
- प्रेम गुप्ता ‘मानी’
नीम से शहद होने का यात्रावृतांत...बहुत खूबसूरत है , मानी जी
ReplyDeleteइस प्यारी सी टिप्पणी के लिए धन्यवाद अलकनंदा जी
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