कविता
स्त्री होने का ग़ुनाह
यदि,
मैं गुड़िया होती
तो सिर फोड़ती दीवारों से
और पूछती अपने ख़ुदा से
मुझे औरत क्यों बनाया
और बनाया तो
ज़ुबाँ को क्यों दी
अधकचरी गूंगी भाषा
तेरी कूची में क्या रंग नहीं थे?
या अल्लाह,
सारी दुनिया में बिखरे हैं बहुतेरे रंग
फिर,
मेरा नसीब फीका क्यों है?
मेरी ज़िन्दगी में
सच्चा प्यार बेनूर रहा
पर फिर भी
मेरे नसीब में
मेरी दो आँखों की तरह
दो नूर क्यों गढ़ दिए?
ऐ ख़ुदा,
मेरी ख़ता क्या थी
जो आग जली थी चूल्हे में
मेरे सीने में क्यों धधक गई?
यदि,
मैं गुड़िया होती
तो पूछती अपने वजूद से
किस रस्ते तू बिखर गई?
किन पाटों के बीच
तू दब-कुचल गई
बाबा ने ब्याहा था कितने चाव से
पर क्यों,
ज़िन्दगी खिसक गई पाँवों से?
यदि,
मैं गुड़िया होती
तो पूछती बहती हवाओं से
तुम कब तक बहोगी...शान्त...धीर
ख़्वाबों की चिडिया
नींद के दाने पर चोंच मारेगी
दर्द,
तकिए के नीचे कहीं दुबक जाएगा
तब,
छाती से निकली "आह" पर भी
दुनिया कहेगी "वाह"
"आह" "वाह" के पन्नों पर
ख़बरें थिरकती रहेंगी
और न जाने कितनी गुड़ियाएं
अरमानों की दहलीज़ पर दम तोडेंगी
यदि...पर नहीं,
मैं गुड़िया नहीं
इसीलिए,
पूछती हूँ खुद अपने आप से
इस पाक़-साफ़ (?) दुनिया में
स्त्री होना ग़ुनाह क्यों?
( चित्र गूगल से साभार)
बेहद मार्मिक और संवेदनशील रचना।
ReplyDeletekaas! is parshn ka jawab mil jata..?????
ReplyDeleteछाती से निकली "आह" पर भी
ReplyDeleteदुनिया कहेगी "वाह"
"आह" "वाह" के पन्नों पर
ख़बरें थिरकती रहेंगी
और न जाने कितनी गुड़ियाएं
अरमानों की दहलीज़ पर दम तोडेंगी
यदि...पर नहीं,
मैं गुड़िया नहीं
इसीलिए,
पूछती हूँ खुद अपने आप से
इस पाक़-साफ़ (?) दुनिया में
स्त्री होना ग़ुनाह क्यों?
bahut khoob kya kahun nihshabd hoon
badhai
मैं गुड़िया होती
ReplyDeleteतो पूछती अपने वजूद से
किस रस्ते तू बिखर गई?
किन पाटों के बीच
तू दब-कुचल गई
बाबा ने ब्याहा था कितने चाव से
पर क्यों,
ज़िन्दगी खिसक गई पाँवों से?
ek aurat ke jeevan kee marmik abhivyakti.aaj delhi me hoon. hindi me nahin likh pa rahi. shubhakamanayen