कविता
अहसास
आह!...
और
अहा!...
के बीच
एक महीन रेखा की तरह है
ज़िन्दगी...
कुछ आड़ी...कुछ तिरछी
औरत की कोमल हथेली पर उगी दूब
आओ,
आदम की सख़्त हथेली पर
छितराई रेखाओं को समेटें
माथे की सलवटों के बीच
दुबकी ज़िन्दगी
भूमध्य सागर की लहरों ने सहलाया
रेगिस्तान की तपती रेत ने तपाया
ओह ज़िन्दगी!
टूटी-फूटी सड़कों
और खुले मेनहोल से ग़ुज़र कर
एक रास्ता
खेतों की तरफ़ जाता है
पीली-फूली सरसों की कोख में
नाल से उलझी
घने जंगल के अंधेरे में
आओ,
लुका-छिपी का खेल खेलें
दूर कहीं,
सन्नाटे को तोडती
और ज़िन्दगी को ढोती
छुक...छुक करती ट्रेन गुज़र गई है...
(चित्र-गूगल से साभार)
bhut khubsurat...
ReplyDeleteटूटी-फूटी सड़कों
ReplyDeleteऔर खुले मेनहोल से ग़ुज़र कर
एक रास्ता
खेतों की तरफ़ जाता है
पीली-फूली सरसों की कोख में
नाल से उलझी
घने जंगल के अंधेरे में
zindagi ka sahi aur anokha chitran hai sach jeevan aesa hi hai
bahut bahut badhai
ज़िंदगी को बहुत खूबसूरती से बयाँ किया है ....
ReplyDeleteसन्नाटे को तोडती
ReplyDeleteऔर ज़िन्दगी को ढोती
छुक...छुक करती ट्रेन गुज़र गई है...
बहुत ही खूबसूरत...
Bahut hi sunder kavita....
ReplyDeletedil ki gahrayeeon tak utar gayee !
bahut achha likhti hai aap Mani ji.