कविता
एक कविता- वसन्त
मैं,
कई जन्मों से
वसन्त की प्रतीक्षा में हूँ
मेरे ड्राइंगरूम की
पुरानी
जंग लगी मेज पर रखे
गुलदस्ते का रंग
बदरंग हो गया है
और
पलाश के वे रक्तिम पुष्प
जो मेरे सोलहवें वसन्त पर
दिए थे तुमने
प्रणय-प्रतीक के रूप में
अब-
मुरझा गए हैं
मेरे मुर्झित अधरों की तरह
और
मेरे घने, लम्बे केशों में गुंथे
चम्पई पुष्प
जो गूंथे थे तुमने
अपनी पौरुषता से
अब झर गए हैं मेरे केशों की तरह
मैं क्या करूँ?
मेरे इस मौसम में
न पलाश के रक्तिम पुष्प हैं
और न चम्पा-गंध
मैं
जानती हूँ इस शाश्वत-सत्य को
किअब वसन्त नहीं आएगा
क्योंकि,
पीले सरसों के समुद्र में
अठखेलियाँ कर
भँवरों को
भ्रमित करने वाला वसन्त
दिग्भ्रमित हो गया है
और धरती को भूल
मेरी आँखों में उतर गया है
जानती हूँ मैं,
तुम इसी से कतराते हो
तुम कुछ भी कहो
बस एक बार और
वसन्त उतर आए धरा पर
हाँ... वही वसन्त
जो पलाश-पुष्प का मुकुट लगा
धरती पर उतरता है
और भर लेता है
अंकपाश में खिलखिलाती सॄष्टि
और
ऐसे में
धरती बन जाती
सिर्फ़-
एक कविता वसन्त ।
बहुत ही खूबसूरत कविता है...बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteप्रिय मानी जी ,
ReplyDeleteयह कविता वसंत मनो बहुत कुछ कह रही है ....
धरा का वसंत जब आँखों में ...नयन में उतर आए तो कविता हो जाता है ...
बाहर की वसंत ऋतु सब को दिखाई देती है ...दिल का वसंत वह ही जानता है जो दिल से देखता है दिल से महसूस करता है !
सुंदर कविता के लिए बधाई !
हरदीप