Saturday, May 25, 2019

नीम कड़वी ज़िन्दगी- 2


                
                          
                                                                                                                                    

साल दर साल बीतने के साथ उम्र भी बढ़ती जाती है और जब उम्र बढ़ती है तो तन के साथ मन भी थकने लगता है । उम्रदराज पुरुष तो किसी तरह अपने तन व मन को थकने से बचा लेते हैं । उनका जब मन होता है, ऑफिस से छुट्टी लेकर अपने दोस्तों के साथ...परिवार के साथ मौज मस्ती करके मन को तरोताजा कर लेते हैं, पर स्त्रियाँ ...?

पुरुष तो साठ  के बाद रिटायर भी हो जाते हैं अपने काम से, पर स्त्रियों के बारे में कहा जाता है कि वह तो मरने के बाद ही रिटायर होती हैं...| जवानी से लेकर बुढ़ापे तक वे गृहस्थी की चक्की में इस कदर पिसती रहती हैं कि उन्हें तो यह भी याद नहीं रहता कि उनके पास अपना भी कोई मन है | तन थक जाता है तो थोड़ी देर आराम करके फिर गृहस्थी की चक्की में पिसने को तैयार हो जाती हैं, पर मन... उसका क्या करें...? घर गृहस्थी के कामों के साथ-साथ उनके ऊपर बच्चों की जिम्मेदारी होती है...| उनके भविष्य की चिंता में पति साथ तो देते हैं पर चिंता में घुलती स्त्रियाँ ज्यादा हैं ।

इन स्त्रियों से इतर मैं भी नहीं हूँ | अति संवेदनशील होने के कारण गृहस्थी व बच्चों के चिंता में कुछ ज्यादा ही घुलती रहती हूँ | इस कारण मेरा अपना कुछ भी नहीं रह गया है | उम्र बढ़ने के कारण तन के साथ मन भी कुछ ज्यादा थक जाता है | इस थकान के साथ फिर कुछ भी नहीं कर पाती | इससे निजात पाने के लिए मैं प्रयास भी नहीं करती | मेरी इस आदत से परेशान होकर दूसरे शहर में बीटेक की पढ़ाई कर रहा मेरा नाती जब घर आया तो बोला, " अम्मा तुम क्या सारी जिंदगी इसी तरह रहोगी...? थोड़ा अपने लिए भी समय निकाल लो | आज के बाद तुम हफ्ते में एक दिन अपने लिए रखोगी...| उस दिन ना घर का कोई काम करोगी और ना किसी की चिंता करोगी | जब मैं छुट्टी में आऊँ तो मेरे साथ घूमोगी और जब मैं बाहर रहूँ तो अपने किसी परिचित के साथ मौज मस्ती करोगी | अरे, जब महिलाओं के लिए इंटरनेशनल विमेंस डे है, तो तुम्हारी जैसी के लिए हफ्ते में एक दिन भी अपना नहीं...?"

मैं चौक गई | इस दिन को तो मैं भूल ही गई थी | उसने याद दिलाया तो उससे बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर कहा नहीं...| साल भर में सिर्फ एक दिन का दिखावा करके कोई क्या साबित करना चाहता है कि उस दिन महिलाओं का महत्व बहुत ज्यादा है...? बड़े-बड़े भाषण देकर इस एक रोज के लिए जश्न मना कर क्या कर लिया जाता है...? मैं यहाँ दुनिया की बात ना करके सिर्फ अपने देश की स्त्रियों के बारे में बात करूँगी |

क्या कभी किसी ने यह जानने की कोशिश की है कि हमारे यहाँ 80% महिलाएं ऐसी हैं जिनके लिए कोई भी दिन अपना नहीं है...? उनके लिए ना तन की थकन महत्व रखती है और ना मन की...| गृहस्थी की चक्की में पिसते पिसते एक दिन वह खत्म हो जाती हैं | आँख बंद करते वक्त भी वे उफ़ तक नहीं कर पाती | वह परिवार के लिए होती हैं, पर परिवार उनके लिए नहीं होता | जवानी में पति परमेश्वर की छाया तले जीती हैं...फिर बुढ़ापे में बच्चों की मेहरबानी पर...| दिन हो या रात उसमें उनका एक भी पल नहीं...|

दुनिया में अनगिनत स्त्रियाँ  ऐसी हैं जिनके लिए महिला दिवस के कोई मायने नहीं...। मायने है तो सिर्फ बच्चे पैदा करना, परिवार को संभालना...पति का मुँह जोहना...। पति को कभी उन पर तरस आया तो थोड़ा बहुत घुमा फिरा दिया, वे उसी में खुश...। मैंने ऐसी तन से निचुड़ी और मरे हुए मन के साथ जीती स्त्रियों को देखा है, जो चलती फिरती एक जिंदा लाश से ज्यादा कुछ नहीं...|

मेरी चचेरी बहन सोमा एक ऐसे ही अभिशप्त स्त्री है जो अपनी कुछ कमियों के चलते अपने जीवन को बस ढो रही है...। उसका अपना कुछ भी नहीं...और परिवार के पास भी उसके लिए कुछ नहीं | मैं समाज से पूछना चाहती हूँ कि दुनिया में बाहरी सौंदर्य ही महत्वपूर्ण है...? मन की खूबसूरती कोई मायने नहीं रखती...?

सोमा का एकदम औसत कद...साधारण चेहरा...कुछ शारीरिक परेशानी उसके जीवन का अभिशाप बन गया| बीस साल की उम्र में कई परिवार में उसके विवाह के बात चली, पर किसी भी लड़के को वह आकर्षक नहीं लगी | हर जगह से इनकार होने के बाद मायके में मायूसी छाने के साथ एक अदृश्य गुस्सा फूटने लगा...| पता नहीं कौन सा खोटा भाग्य लेकर यह लड़की पैदा हुई है, जिसकी शादी ही नहीं हो पा रही...| इसे देखने आए लड़के इसकी छोटी बहन का हाथ मांग बैठते । इन सब कारणों से वह डिप्रेशन में जाने लगी, तभी एक बेहद ही साधारण परिवार के हाई स्कूल पास, मामूली पद पर कार्यरत लड़के का पता चला । सोमा को दिखाया गया । इत्तेफाक से उसे पसंद कर लिया गया...।

सोमा डबल एम., पति हाई स्कूल…, सोमा अपनी शारीरिक व मानसिक कमजोरी को जानती थी, इसलिए स्वीकार करने के सिवा उसके पास कोई और रास्ता नहीं था...| सोचती विवाह के बाद शायद उसकी जिंदगी बदल जाए, पर यह क्या...? जिंदगी बदल तो गई पर उसका अपना जो भी मायके में थोड़ा बहुत था, पूरी तरह खत्म हो गया | बेहद रसिक मिजाज पति...हर वक्त उसे गाली देकर बात करने वाला ससुर...असहाय सास...| वह अपने को भूलकर दिन-रात सब की सेवा में जुट गई | शायद सब का मन उसकी सेवा से पिघल जाए...पर पत्थर कभी पिघलता है क्या...? इधर चार- पाँच साल के अंतराल पर माता-पिता चले गए, उधर थोड़ा सा सहारा बनी सास का भी देहांत हो गया | कुछ दिन भाई बहनों ने पूछा, फिर अपनी परेशानियों के चलते उन्होंने भी हाथ खींच लिया | उस अभागी स्त्री की जिंदगी और भी अभिशप्त तब हो गई जब पाँच साल के बाद भी उसे कोई संतान नहीं हुई | पति दूसरी औरत लाने की बात करने लगा...ससुर की गालियाँ और बढ़ गई | एक अभागी और बाँझ स्त्री का कलंक लिए वह जीती रहती कि तभी मायके वालों ने उसे एक बच्चा गोद दिला दिया | भयानक विद्रोह के बीच भी वह मौन रहकर एक गूंगी जिंदगी जीते हुए बच्चे को पालती रही | आज भी वह मानती है कि उसके भाग्य में अगर कुछ अच्छा हुआ तो इतना भर...कि मानसिक प्रताड़ना के बावजूद पति ने कभी हाथ नहीं उठाया |
एक बार मैंने उससे कहा था कि मानसिक प्रताड़ना भी देना एक तरह का अपराध है | वह चाहे तो इसके खिलाफ मैं उसकी सहायता कर सकती हूँ...तो उसने जो जवाब दिया उसने मुझे गूंगा बना दिया, “दीदी प्रताड़ना का विरोध वह करता है, जिसके पास कोई दम हो...सहारा हो...| अपनी बीमारी के चलते मेरा तन इतना थक गया है कि मैं चाहूँ तब भी कुछ नहीं कर सकती | एक बात तुमसे पूछती हूँ कि अगर मेरे मुँह खोलते ही यह मुझे घर से निकाल दे तो क्या तुम मुझे सहारा दोगी...? मेरे साथ-साथ इस बच्चे का खर्चा उठा लोगी...? नहीं ना...?  अपनी शारीरिक अक्षमता के चलते मैं नौकरी भी नहीं कर सकती | यहाँ कम से कम गाली के साथ रोटी तो मिलती है...| बड़े होते बच्चे की पढ़ाई तो चल रही है...| आधी जिंदगी बीत गई, आधी भी बीत जाएगी...| दीदी, तुम दुखी मत हो | इस दुनिया में मुझसे भी ज्यादा बुरी जिंदगी जीती स्त्रियाँ है, जो मरती नहीं...बस जिए जाती हैं, पर उफ़ नहीं करती...।"

मैं निरुत्तर थी...पर मेरा मन बेचैन हो उठा...। काश !  एक दिन इसकी जिंदगी में भी ऐसा आए, जब कभी इसका जवान नाती इससे कहे, "अम्मा...बस सिर्फ यह एक दिन नहीं, अब हर दिन तुम्हारा है...।"

-प्रेम गुप्ता 'मानी'

Wednesday, May 22, 2019

चूड़ीहारों के शहर में

 
(मेरे माता-पिता...जिनकी यादें ही शेष हैं...)
     


उन दिनों हमारे पिताजी लेबर ऑफिस में लेबर इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत थे | नौकरी चूंकि सरकारी थी इसीलिए हर दो-तीन साल में सरकार जहाँ चाहती, ट्रांसफर कर देती थी...फिर चाहे उस शहर में जाने का मन हो, ना हो...| पिताजी का ट्रांसफर जब फिरोजाबाद हुआ तो वे अनमने-से हो उठे । एक तो हम बच्चों के वार्षिक इम्तहान देने का वक्त था, तो दूसरे आज की तरह वह शहर इतना डेवेलप नहीं था, पर बावजूद इसके शीशे के सामान व खूबसूरत चूड़ियों के व्यापार के कारण प्रसिद्ध था | व्यापारी दूर-दूर से वहाँ आते और सस्ते में शीशे के शोपीस व चूड़ियों के गजरे ले जाते | शीशे के सामानों और चूड़ियों में की गई कारीगरी को देखकर देशी-विदेशी सभी लोग दंग रह जाते थे।

पिताजी का जिस भी जगह ट्रांसफर होता वहाँ सरकारी मकान मिलता था | फिरोजाबाद में भी मिला और ऐसी जगह मिला जहाँ आबादी बहुत कम थी और थोड़ी ही दूरी पर घना जंगल था | हम सब डरे तो बहुत, पर मजबूरी थी...| हमारे घर के ठीक सामने चूड़ी का कारखाना था जहाँ गई रात तक चूड़ी हारे कोई गीत सुनाते हुए चूड़ी बनाते रहते और जब रात गहरी हो जाती तो वहीं  सो जाते | वहाँ हम लोगों को डर तो बहुत लगता, पर उन चूड़ीहारों के कारण थोड़ी राहत भी थी| यदयपि पिताजी का ऑफिस नीचे के तल पर था, पर वह भी पाँच बजते बजते बंद हो जाता...| पिताजी को वार्षिक टूर्नामेंट के लिए चंदा इकट्ठा करने के लिए अक्सर बाहर जाना पड़ता । अपने पाँच बच्चों व एक बूढ़े नौकर के साथ घर माँ के हवाले रहता | ज्यादा पढ़ी-लिखी ना होने के बावजूद माँ हर काम में तो माहिर थीं ही, साथ में बहादुर भी बहुत थीं...। उनसे जुड़ी एक घटना मुझे आज भी याद है...| यदयपि उस समय मैं भी काफी छोटी थी, पर घटना इतनी बड़ी थी कि माँ अक्सर हम सबको हिम्मती बनाने के लिए सुनाया करती।

बात जाड़े के दिनों की है, जब रात बड़ी जल्दी गहराने लगती है...| पिताजी शायद चंदा इकट्ठा करने के लिए शहर से बाहर थे | खाना खाकर हम पांचों भाई बहन रजाई के अंदर दुबक गए | बूढ़ा नौकर अपनी कोठरी में जाकर सो गया और माँ सोने की तैयारी कर ही रही थी कि उसी समय किसी ने छज्जे की झंझरी की ओर रस्सी फेंकी | माँ ने देखा तो हैरान रह गई...| इतनी रात यह कौन शरारत कर रहा है...? धीरे से झाँक कर देखा तो नीचे चार या पांच घोड़ों पर साफा बांधे बड़ी बड़ी मूँछों वाले हट्टे-कट्टे आदमी फिल्मी स्टाइल में काँटे वाली रस्सी छज्जे पर अटकाने की कोशिश कर रहे थे । माँ समझ गई कि वे डाकू हैं जो पिताजी द्वारा इकट्ठा किए गए चंदे को लूटने आए हैं...| उन्होंने नौकर को आवाज दी, पर वह कोठरी का दरवाज़ा अन्दर से बंद किए हुए गहरी नींद में सो रहा था...| नौकर तो नहीं जागा, पर हम बच्चे जाग गए और थरथर लगे काँपने...। पल भर माँ हकबकाई सी रहीं, फिर सहसा ही सजग हो गईं...।

माँ की एक आदत ने ही हम सबको उस दिन बचा लिया...| उन दिनों आज की तरह गैस का चूल्हा नहीं था बल्कि मिट्टी के चूल्हे में लकड़ी जलाकर खाना बनाने का चलन था...| माँ खाना बनाने के बाद भी चूल्हे की लकड़ियों को बुझाती नहीं थी, बल्कि उन्हें एकदम मद्धिम सा जलने देती...| मिट्टी का तेल घर में हमेशा बड़ी मात्रा में रहता ही था...| माँ ने उस पल भी त्वरित गति से चूल्हे में और लकड़ी डालकर मिट्टी का तेल डाल दिया...| लकड़ी भड़क उठी तो माँ ने पहला काम किया कि ऊपर छज्जे से अटकी रस्सी पकड़ कर कोई डाकू ऊपर चढ़ता, उससे पहले ही माँ ने उसमें भी मिट्टी का तेल डालकर जलती लकड़ी से आग लगा दी थी...| इधर रस्सी जल उठी उधर माँ ने जोर-जोर से चिल्लाते हुए जलती लकड़ी के टुकड़े डकैतों पर फेंकने शुरू कर दिए...| सामने जलती हुई आग और माँ की चीख-पुकार देख-सुन कर चूड़ी के कारखाने में सोये हुए चूड़ीहारों की नींद खुल गई और फिर उन्हें समझते देर नहीं लगी कि इधर डकैत आ गए हैं...| अब क्या था...मोटे डंडे लेकर बीस-पच्चीस चूड़ीहारे चीते की फुर्ती से उन पर टूट पड़े तो सहसा हुए इस हमले से डकैत सरपट जो भागे, तो फिर उधर मुड़कर कभी नहीं देखा...।

आज माँ नहीं है, पर जब भी इस घटना की याद आती है तो मन गर्वित हो उठता है कि मेरी माँ डिग्रीधारी ना होने के बावजूद इतनी बुद्धिमान और साहसी थीं...।

- प्रेम गुप्ता 'मानी'

Friday, May 17, 2019

नीम कडवी ज़िंदगी-एक


  
                   
                                                       
बात उस समय की है जब जवानी की दहलीज पर मैंने पाँव धरा ही था| एक नए एहसास के साथ उस दहलीज पर पैर पड़ तो गए थे, पर बचपन व किशोरावस्था की शरारतों ने साथ नहीं छोड़ा था| माँ की घुड़की के बावजूद किसी पक्की सहेली की मानिंद शरारत मेरा दामन थामे रखती और जब ज्यादा रोबदाब पड़ता तो धीरे से वह कुछ पल के लिए दुबक जाती मन के कोने में...।

उस पक्की सहेली का खूबसूरत साथ तो था ही, पर उससे ज्यादा खूबसूरत बचपन से जवानी की दहलीज तक पहुँचे हुए वे दिन थे...| चँदोबे तने आकाश के नीचे बिछे बड़े से आँगन  में ठंडी हवा के साथ हम भाई-बहन देर रात तक खूब धमा चौकड़ी करते और तब तक करते जब तक माँ पतली सी छड़ी लेकर ना आ जाती| हम लोग डर के मारे किनारे बाउंड्री से सटी सारी खटिया उठाते और धड़ाधड़ उसे बिछा लेट जाते...| (उस समय आज की तरह पलंग हर घर में नहीं होते थे ज्यादातर लोग मूंज की बिनी चारपाई का ही इस्तेमाल करते थे|)

हमारे उस आँगन  की दीवार से सटा बाहर की ओर एक बड़ा सा नीम का पेड़ था| जब घर की सारी बत्तियाँ बुझ जाती और तेज हवा के झोंके से नीम का पेड़ झूमता, अंधेरे में लगता जैसे कोई साया नाच रहा हो...| हम बड़े बच्चे तो ध्यान नहीं देते थे, पर छोटों की डर के मारे घिग्घी बन जाती| उन्हें लगता कि उस पेड़ पर कोई भूत है, जो रात में बाहर आकर नाचता है।

हमारे पिताजी उस समय लेबर ऑफिस में प्रोबेशनरी ऑफिसर के पद पर थे| हर तीन साल में पिताजी का ट्रांसफर हो जाता...पिताजी को सरकारी मकान मिलता था और वह भी काफी बड़ा...| जिस मकान का में जिक्र कर रही हूँ, वह गोरखपुर में था...| साल भर पहले ही हम लोग वहाँ आए थे| उस मकान का खाका मेरे जेहन में इतने वर्षों बाद भी ज्यों का त्यों है| इसका एक कारण उसका विशाल होना तो है ही, पर उससे अलग एक और बात है जो आज भी मुझे उस जगह की याद दिलाती है...|

अन्य शहरों में ट्रांसफर होने पर पिताजी को सिर्फ बड़ा मकान ही मिलता था, पर इत्तेफाक से गोरखपुर में जो विशाल बँगला मिला था उसके सामने काफी बड़ा बगीचा भी था| बगीचे के चारों ओर की क्यारी में तरह-तरह के खूबसूरत फूलों के पौधे थे, तो बीच के मैदान में आम के आठ-दस पेड़...| बगीचे के मुख्य रास्ते पर काफी बड़ा फाटक था, जिसे चौकीदार हमेशा बंद रखता था| वह बगीचा चूँकि बंगले के साथ ही था अतः बाहरी लोगों का वहाँ आना मना था। हाँ...बगीचे के बाहर और भी कई प्राइवेट बंगले थे...| उन बँगलों में ऊँचे पद पर तैनात लोगों के परिवार थे, जिनसे हम लोगों की अच्छी खासी पारिवारिक दोस्ती थी| अप्रैल-मई के महीने में जब सारे पेड़ों पर कच्चे-पक्के आम लग जाते, तब माली की सहायता से हम उसे तोड़ लेते...| माँ अपने भर के लिए थोड़े आम रखकर बाकी सारे बँगलों में बांट देती| अचार-चटनी बनाने के लिए ऑफिस के लोग भी आकर आम ले जाते...| आम इतने ढेर सारे हो जाते कि लगता जैसे वहाँ आम की मंडी हो...| पेड़ के पके आम खाकर हम लोग तो क्या, आसपास के सारे लोग अघा जाते। माँ पिताजी इस मामले में इतने मिलनसार थे कि बगीचे का आम रहा हो या क्यारी के फूल...लेने से किसी को मना नहीं करते थे| बगीचे के बाहर एक छोटी सी झोपड़ी बनाकर एक ग्वाला परिवार भी रहता था| ग्वालिन मीठे आम रस से अमावट बनाने में बहुत माहिर थी| उस अमावट का स्वाद वहाँ से आने के बाद कभी नहीं मिला...| मेरी माँ मीठे आमों के साथ और भी तरह तरह की चीजें उस ग्वालिन को दिया करती, बदले में वह खूब गाढ़ा दूध सस्ते में हमारे घर दे जाती, जिसे हम लोग बिना मार खाए नहीं पीते थे...| आज के बच्चों को जब मिलावट वाला दूध पीते देखती हूँ तो दुख होता है| तकनीकीकरण के इस युग में तरक्की करके जितना हमने पाया, उससे कहीं ज्यादा खो दिया है| जिस चुलबुले व मस्त बचपन से हमारी जिंदगी लबरेज थी, वह आज के भारी बस्तों के बोझ तले दबे बचपन को कहाँ मयस्सर है...? जो शुद्धता हमारे जीवन में थी, वह आज मिलावट के ज़हर में कितनी घुल मिल गई है, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं...| हाँ, इतना जरूर है कि पहले की अपेक्षा आज हर पल का संघर्ष बढ़ गया है ।

संघर्ष से याद आया...नीम का पेड़ जिसकी हरी पत्तियाँ इमली के पेड़ की खट्टी पत्ती की तरह सोच कर मैंने व मेरे दोस्तों ने चबा ली थी और फिर उसके कसैलेपन से घबराकर टेढ़ा मेढ़ा मुँह बनाकर थू-थू करते हुए नल की ओर भागे थे...| खूब अच्छी तरह पानी से कुल्ला करने के बावजूद उसका कसैलापन जैसे जुबान पर बैठ गया था...| हम बच्चों को परेशान देखकर हमारे घर में काम करने वाले रामअचल ने समझाया...”तुम लोग इतना काहे को परेशान हो रहे हो...? नीम कड़वी जरूर है, पर जानते हो...यह फायदा बहुत करती है...| फोड़े फुंसी हो, चोट लग जाए, देवी माँ निकल आए... सबमें नीम की पत्तियाँ रामबाण है और नीम की डंडी से दांत माँजने से दांत खूब मजबूत होते हैं...| तुम लोग तो ऐसे मुँह  बना रहे हो जैसे कोई खतरनाक चीज चबा ली हो...|” उस समय उसकी बात सुनकर हम सबने और भी बुरा मुँह  बनाया था, पर बाद में जब क्लास में हिंदी पढ़ाने वाली टीचर मीरा ने किसी समस्या पर टिप्पणी दी थी कि "जिंदगी में अगर कड़वाहट ना घुले तो हम उसके सच को कैसे जान पाएंगे...? खट्टे मीठे अनुभवों का सार ही है जिंदगी...तुम महान लोगों की जिंदगी के पृष्ठ खोलकर पढ़ो तो पता चलेगा कि कष्ट भरे जीवन में संघर्ष के रास्ते चलकर उन्होंने सुख पाने की प्रेरणा ली...।"

मुझे समझ में उनकी बात आ गई थी...| वर्तमान में नीम की पत्ती सदृश्य जो कड़वी चीज़ परेशान करती है, वह आगे भविष्य में जीवन को मजबूती देने का आधार ही तो बनती है...| मैंने बचपन में नहीं पर सोलहवें बसंत के आगाज़ पर नीम की कड़वी पत्तियाँ चेहरे पर उग आई फुंसियों से निजात पाने के लिए ढेरों चबा ली थी, पर मुझे क्या पता था कि उस बेदाग चेहरे पर रीझ कर एक ऐसा शख्स मेरी जिंदगी में आएगा, जो मेरी जिंदगी को नीम से भी ज्यादा कड़वी बना देगा...| अपनी जिंदगी के कड़वाहट भरे क्षणों को मैंने अपना संबल बनाया और नीम की पत्तियों को अपनी प्रेरणा...| आज अपने भाग्य पर उगे फोड़े फुंसियों को थोड़ा सा ही सही...बेदाग़ कर पाने के बाद मुझे लगता है...सच में नीम बड़ी मुफीद चीज है...।

प्रेम गुप्ता ‘मानी’