Thursday, November 11, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? - ( 3 )

( किस्त - पंद्रह )



 बहन की ज़िन्दगी का सफ़र ख़त्म होने की कगार पर था...यह मुझे नहीं , वहाँ के वार्ड इन्चार्ज को लगा होगा , तभी वह बड़े सधे कदमों से मेरे पास आया और रूखे शब्दों में बोला , " पन्द्रह मिनट में यह बेड खाली कर दीजिए...हमें दूसरा मरीज भी भर्ती करना है...। "
             " मैं कुछ नहीं जानती...। जब तक मेरे भाई-बहन नहीं आ जाएँगे , तब तक मैं यहाँ से हिलूँगी भी नहीं...। "
             मेरे स्वर की दॄढ़ता भाँप कर वह नर्स से गुर्राया , " सिस्टरऽऽऽ , इनकी क्या प्रॉब्लम है , मुझसे मतलब नहीं...। आफ पन्द्रह मिनट के अन्दर इस पलंग को बाहर कर दीजिए...। "
             अब गुर्राने की बारी मेरी थी । अगर मैं ऐसा न करती तो उस भीषण गर्मी में वह बेदर्दी से पलंग को बाहर कर देती...।
             बहन पूरी तरह बेहोश थी । नर्स ने मेरे मना करने के बावजूद उसका वीगो निकाल दिया , सारे इंजेक्शन हटा दिए और फिर आगे बढ़ी , पलंग घसीटने के लिए , " ये तो एक तरह से ख़त्म हैं...इन्हें यहाँ रखने से कोई फ़ायदा नहीं...आप हटिए आगे से...। "
            " नहींऽऽऽ , मैं नहीं हटूँगी...। ये ख़त्म नहीं है...इसकी साँस चल रही है...। जब तक मेरे भाई-बहन नहीं आ जाते , मैं इसे छूने भी नहीं दूँगी...। अच्छा यही होगा कि इसके साथ कोई जोर-जबर्दस्ती न करो...। " नर्स ने आग उगलती आँखों से मेरी ओर देखा और जाकर उस ठिगने इन्चार्ज से कुछ कहने लगी । इन्चार्ज ने मुड़ कर मेरी ओर देखा , फिर उसकी उँगलियाँ बड़ी तेज़ी से कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर चलने लगी । जितनी तेज़ उसकी टाइपिंग की खटपट थी , उतनी ही तेज़ मेरी सिसकियों की आवाज़...। बहन के ख़त्म ( ? ) हो जाने की बात कह कर उसने मेरे भीतर बँधे बाँध को तोड़ दिया था ।
              बाहर भाई-बहन मानो मीलों लम्बा सफ़र तय करके उस डाक्टर को ढूँढ रहे थे , जिसकी लापरवाही के चलते मेरी बहन की दुर्दशा हुई थी और वह उसे बीच अधर में अटका कर कहीं गुम हो गया था ।
              किसी ने कहा कि डाक्टर ने वहाँ की नौकरी छोड़ दी है , कोई कहता कि नहीं , वे ऑपरेशन में व्यस्त हैं...। बार-बार मिलाने पर भी उनका फोन नहीं उठ रहा था । भूखे-प्यासे भाई-बहन थक कर कभी बाहर बैठ जाते तो कभी वार्ड में आकर मुझे धीरज बँधाते , " परेशान मत हो...कुछ नहीं होगा...। एक बार किसी तरह डाक्टर साहब से बात हो जाए तो फिर सोचते हैं कि क्या करना है...। "
              आखिर डाक्टर गए तो गए कहाँ...? जूनियर डाक्टर हाथ नहीं लगा रहे थे । यह किसके कहने पर इलाज बन्द कर दिया गया ? बार-बार कहने पर भी स्टैन्टिंग के घाव पर ड्रेसिंग क्यों नहीं की जा रही ? स्नेह अभी ज़िन्दा थी , पर फिर भी उन लोगों ने उसे मृत समझ लिया था । हम लोगों ने धीरज नहीं खोया , पर इतनी बात समझ में आ गई कि ऐसे निर्दयी डाक्टरों के चलते ही अस्पतालों में आए दिन बवाल होता है , पर फिर भी हारता तीमारदार ही है । रसूख़दार और ज़िम्मेदार पेशे में होने के कारण ये डाक्टर हमेशा जीत जाते हैं...। न कानून इन पर कोई ठोस कार्यवाही कर पाता है और न तीमारदार ही...।
               हम सब भी इसी मजबूरी के चंगुल में थे । स्नेह अब भी बेहोश थी । उसकी साँस चल रही थी और उसके साथ हमारी आशा भी...। काफ़ी समय बीत जाने के बाद एक जूनियर डाक्टर आया और समझाने की मुद्रा में बोला , " देखिएऽऽऽ , आप लोग सब कुछ ख़त्म हुआ ही समझिए...। ये दो-चार दिन भी ज़िन्दा रह सकती हैं और दो-चार घण्टे में भी कुछ हो सकता है...। आप लोगों को अगर विस्वास न हो तो गैस्ट्रो विभाग के वार्ड में मैं दो-चार दिनों के लिए इन्हें जगह दे सकता हूँ...। "
              डाक्टर बोले जा रहा था पर हम सब को जैसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था । मौत की एक अजीब सी आहट थी जो करीब आ रही थी और हमें भरसक उससे दूर भागना था ।
              बहन-भाई बाहर की ओर भागे , एम्बुलेन्स की व्यवस्था करने...। इस नर्क में अब एक क्षण भी नहीं रुकना...। वह सब बातें कोरी बकवास हैं जिनमें कहा जाता है कि ईश्वर के बाद जीवन रक्षा में डाक्टर का दर्जा है और वह अपने मरीज को अन्तिम दम तक बचाने की कोशिश करता है । छिः , ऐसी बकवास करके लोग भ्रम क्यों फैलाते हैं...? यहाँ तो सब कुछ आँखों देखा हो रहा था...। इलाज शुरू करके ख़त्म करने वाला डाक्टर मुँह छिपा कर इस तरह बैठ गया कि एक बार उसने मुड़ कर देखा भी नहीं कि उसका मरीज , जिसने उस पर विश्वास किया , कैसा है...?


( जारी है )
                      


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