हमारा हाथी रूपी दोगला समाज इतना ज़्यादा चालाक हो चुका है कि उसे पकड़ पाना हर किसी के वश की बात नहीं। वह दिखाने के लिए स्त्री-वर्ग के बारे में बहुत बड़ी-बड़ी बातें करता है, पर अन्दर? भीतर से यह तथाकथित प्रगतिशील समाज आज भी पूरी तरह पुरानी, कठोर व सड़ चुकी परम्पराओं की जकड़ में है। उसके लिए स्त्री पहले भी पैर की जूती थी और आज भी है...। आज भी स्त्री-धर्म के बारे में अस्सी प्रतिशत लोगों की राय यही है कि वह बच्चे पैदा करे, परिवार की देखभाल करे, बडे-बूढों की सेवा करे, यदि कुछ उसके मन के खिलाफ़ हो तो भी "उफ़" न करे, अपनी लज्जा को बचा कर रखे और यदि आर्थिक रूप से सबल भी हो तो भी पति के हाथ में अपनी सारी कमाई रख देना ही उसका आदर्श है। वह यदि इसके विपरीत गई तो गॄहकलह की ज़िम्मेदार अकेली वही होगी। जो "औरत" अपने कर्तव्य का मनोयोग से पालन करती है, वह श्रेष्ठ है...पर जब उसके अधिकार की बात आती है तो हमारा यह समाज चुप्पी साध जाता है...। कानून में भी इतनी खामियां है कि औरत कहीं-न-कहीं असहाय सी हो जाती है...। पर यदि कानूनी खामियों को नज़र-अन्दाज़ भी कर दिया जाए तो समाज की ठोकर उसे बेबस कर देती है। एक पुरुष कुछ भी कर सकता है, वह उसकी मर्दानगी है, पर यदि स्त्री अपनी बल-बुद्धि से कुछ हासिल करती है तो उसे आगे बढ़ने से रोकने के लिए पहली ठोकर एक औरत ही मारती है। यह हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि पुरुष प्रधान होने के साथ-साथ यह घोर परम्परावादी औरतों का गढ़ भी है...। बलात्कार की शिकार किसी औरत की कहानी हो या पति द्वारा सताई किसी स्त्री का दर्द-भरा दाम्पत्य... सबसे पहले स्त्रियाँ ही उसे कुलटा, दुष्ट और मर्दाना छाप कह कर हिकारत से नकारती हैं...। समाज के बीच उनकी बुराई कर के उन्हें एकाकी जीवन जीने को मज़बूर करती हैं और वक़्त-बेवक़्त अपने व्यंग्य-बाणों से उनका हॄदय छलनी करने से नहीं चूकती यानि कि एक स्त्री ही दूसरी स्त्री की सबसे बड़ी दुश्मन है...। पुरुष तो उनके पीछे होते हैं...सबसे पहले स्त्रियाँ ही अपने वर्ग को हाशिए पर खड़ा करती हैं और पुरुष उनकी इस स्थिति का चटखारा लेते हैं...। अधिकांश स्त्रियाँ अपने इस दोमुँहेपन से अनजान हो खुद को एक आदर्श नारी के रूप में स्थापित कर खुश हो जाती हैं। वे नहीं जानती कि कहीं-न-कहीं वे भी हाशिए की जद में हैं पर विपरीत इसके जो स्त्रियाँ इस स्थिति की घुटन को बर्दाश्त नहीं कर पाती या जो सारी अच्छाइयों के बावजूद सड़ी-गली मान्यताओं को नकार देती हैं या जो हाड़-मांस के ही बने और अनेक ग़लत आदतों के शिकार पति को परमेश्वर क्या, एक अच्छा इंसान मानने से भी इंकार कर देती हैं या फिर वो स्त्रियाँ जो समाज की परवाह न करते हुए अपनी मर्जी से...अपने बल पर दुनिया फ़तेह करना चाहती हैं...उन्हें कभी-न-कभी हाशिए पर आना ही पडता है...।
(जारी है)
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