किसी बात की गहराई में जाने के लिए व्यक्ति का बहुत पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी नहीं। कम पढ़ा-लिखा या अनपढ़ इंसान भी पूरी समझदारी के साथ समाज की नब्ज़ पकड़ सकता है...। हर वर्ग की पीड़ा, खुशी को महसूस कर् सकता है, पूरी दुनिया के उतार-चढ़ावों को परख सकता है, प्रसव-पीड़ा की नदी में गोते लगाए बग़ैर भी उसकी गहराई नाप सकता है। व्यक्ति में यदि ज़रा सी भी संवेदना है तो वह पूरी दुनिया के दर्द को अपने भीतर समेटने की कूवत रखता है...मेरी माँ ऐसी ही थी। ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, पर बड़े-बड़े पढ़े-लिखों से ज़्यादा समझदार थी। वह पूरे समाज को, उसके पुरुष-प्रधानी स्वभाव को और स्त्री-वर्ग के प्रति उसके नकारात्मक रवैये को पूरी तरह् समझती थी, पर उस समझदारी से ज़्यादा ज़रूरी वह अपने परिवार की नाजुक नब्ज़ पर हाथ रखना समझती थी।
वह् मामा की तरह मेरे भविष्य को महसूस करती थी पर साथ ही यह भी जानती थी कि उनका दिया गया संस्कार मुझे रास्ते से कभी भटकने नहीं देगा। समाज का क्या, उसने तो सीता जैसी पवित्र, संस्कारी स्त्री को भी हाशिए पर खडा किया...। द्रौपदी जैसी स्वाभिमानी स्त्री को भी सकारात्मक ऊर्जा देने की बजाए नकारत्मक्ता की आग में झोंक दिया...। स्त्री को अगर परिवार की अच्छाई के लिए कोई कठोर कदम उठाना पड़े, तो भी बुरी और बुरा करेगी तो भी बुरी तो है ही...।
हर देश की सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन का तरीका अलग होता है। उनकी व्यवहारिक समझ उनके व्यक्तित्व पर हावी होती है। उनके देश की मिट्टी भले ही अपनी तरफ़ खींचती हो, पर इतना होने के बावज़ूद इंसान एक होता है, उसकी सोच एक होती है...। अपने देश की मिट्टी से वह उतना ही प्यार करता है जितना दूसरे देश का व्यक्ति अपनी मिट्टी से...। हर देश का व्यक्ति दूसरे देश को अलग नज़रिए से देखता है पर एक बात को झुठलाया नही जा सकता कि देश चाहे विकसित हो या अविकसित...सामाजिक सरोकारों में, अपनी सामाजिक संरचना में कहीं-न-कहीं एकसार है। अपनी शारीरिक संरचना के बल पर पुरुष स्त्री के लिए व्यूह रचने में हर जगह माहिर है। पूरी दुनिया में स्त्री के लिए कहीं-कहीं बहुत उपजाऊ भूमि उपलब्ध है तो कहीं-कहीं वह नंगे पाँव जलते हुए रेगिस्तान में भटक रही है, एक बूंद पानी की तलाश में...। वंश चलाने के लिए स्त्री अपने ख़ून से कोख को सींचती है पर नाम चलता है पुरुष का...। बेटा पिता के नाम को आगे बढ़ाता है पर उस दौरान अपना ख़ून देने वाली स्त्री की कोई भूमिका नहीं होती...। बेटी जन्म के साथ ही "पराए" नाम की पट्टिका ले कर आती है...। वह् पिता के वंश को , अपने मायके के नाम को आगे नहीं बढा सकती पर यदि उससे कोई भूल हो जाए तो मायके का नाम अवश्य डूब जाता है। कैसा विरोधाभास है?
आज पूरी दुनिया के पुरुष स्त्री को दो रूपों में देखना चाहते हैं। वे उसे एक सशक्त, बुद्धिमान साथी के रूप में भी पसंद करते हैं और साधारण गृहणी के रूप में भी। वे उसे शारीरिक, मानसिक व आर्थिक रूप से ग़ुलाम भी बनाए रखना चाहते हैं और साथ ही स्वतन्त्रता भी देते हैं...। पुरुष के इस दोहरे-तिहरे मापदंड के कारण आज की स्त्री कुछ ज़्यादा ही दिग्भ्रमित है...। उसे समझ में नहीं आता कि पुरुष वास्तव में उससे चाहता क्या है...। कभी सिर पर बिठा लेने वाला उसका अपना ही पुरुष एक छोटी सी ग़लती पर उसे इस तरह हाशिए पर ला खड़ा करता है कि जैसे समाज में उसका कोई अस्तित्व ही न हो...और अगर वह उसके लिए अपना सर्वस्व, अपनी इच्छाओं तक को भी क़ुर्बान करने वाली हो तो भी उसकी भूल मुख्य हो जाती है...। पुरुष उसके बलिदान को, उसकी सेवा को अपनी बपौती के रूप में लेता है। यह उसका स्वभाव बन चुका है। पुरुष के इस स्वभाव के कारण ही आज हर स्त्री कभी तो खुद अपनी फ़ितरत के कारण तो कभी अपनों के ही कारण हाशिए पर है...। फ़र्क है तो सिर्फ़ इतना कि हाशिए की यह रेखा परिस्थितिजन्य है...। कहीं तो यह बहुत गहरी है तो कहीं बहुत हल्की...ठीक एक रेखाचित्र की तरह...। इस रेखाचित्र में औरत का चेहरा साफ़ है भी और नहीं भी...। औरत खुद भी तो समझ नहीं पा रही है कि वास्तव में उसकी जगह है कहाँ ?
(जारी है...)
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