कविता
माँ कहाँ नहीं हैं?
मैं,
कैसे मान लूँ
माँ- अब नहीं हैं
मैने,
अभी-अभी देखा
सपने में माँ को
छत की सीढ़ियाँ उतरती
आँगन में कपड़े धोती
अलगनी को हथेलियों में ले
धौंकनी होती साँस को समेटती
माँ को
मैंने अभी-अभी देखा
घर के बाहर
चौकन्नी खड़ी
अजनबियों को घूरती
दरवाज़े पर ताला लगाती
आँचल से पसीना पोंछती
माँ को -
मैने अभी-अभी देखा
सब्जी मण्डी की चिलचिलाती धूप में
हाथ में डलिया उठाए
जलते पाँव
सब्जियों के मोलभाव करती
भरी डलिया के बीच
अपने बच्चों के लिए
दाना कुतरती
किसी चिड़िया की तरह
रसोई में दुबकी
पर ,
मसालों की सोंधी गंध के बीच
मैने,
माँ को अभी-अभी देखा
चिलचिलाती धूप, सर्दी, गर्मी
सुख...दुख की परवाह न कर
बाबू को कभी लस्सी
तो कभी रुह-आफ़्जा पिला
आँचल से हवा करती
उन्हें निहारती-निहोरती
माँ को ,
मैने अभी-अभी देखा
शाख से अलग हो
छटपटाती ज़िन्दगी के लिए
सच कहूँ...
मैने माँ को कहाँ-कहाँ नहीं देखा
माँ को,
मैने अभी...इसी क्षण ही देखा
चाँद-तारों के बीच खड़ी
मुस्कराती...पर ,
अपने घरौंदे को तरसती
अपने भीतर
माँ को ,
मैने अभी-अभी देखा...
kavita mann ko chhoo jati hai. aise hi likhte rahiye...
ReplyDeleteदिल को स्पर्श कर लेने वाली एक सुन्दर कविता ! माँ पर लिखी हर रचना तो वैसे भी बहुत खूबसूरत हुआ करती है।
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