Wednesday, February 11, 2009

( किस्त-दो )

हम पुराने समय की बात छोड कर आज नए ज़माने की ओर देखें जब हम इक्कीसवीं सदी में हैं। यह नई सदी एक विशालकाय "घर" की ऐसी दहलीज़ है जिसके अंदर ही नहीं, बल्कि बाहर भी स्त्री के लिए प्रगति के तमाम रास्ते खुलें हैं। वह् अपनी इच्छा से चाहे जिस रास्ते को चुन ले, जो चाहे अपनी क्षमतानुसार कर ले...जितनी ऊँचाई पर चाहे, पंख फैला कर उड़ ले...कोई नहीं रोकेगा, कोई नहीं टोकेगा। आज की स्त्री समानता के युग में जी रही है। वह सच में पुरुष के कन्धे-से-कन्धा मिला कर चल रही है। सड़क से संसद तक उसे अपने विचारों को प्रकट करने की खुली छूट है...। उसने आज पूरी तरह शिक्षित होकर सारे मानदण्डों को नकार दिया है। आज की नारी सिर्फ़ आँचल में दूध और आँखों में पानी जैसी दयनीय लाइनों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। अपनी क्षमता और बुद्धि के बल पर उसने हर क्षेत्र में सफलता अर्जित कर के अपनी सबलता को ही सिद्ध नहीं किया है वरन् यह भी दिखा दिया है कि वक़्त पड़ने पर वह अपनी कोमल कलाइयों में लोहे सी सख़्ती भी पैदा कर सकती है। वह किसी भी क्षेत्र में बिना पुरुष के सहारे के सिर्फ़ अपने बलबूते पर सफ़ल होकर दिखा सकती है। वह् आज सिद्ध कर चुकी है कि पुरुषों से कहीं अधिक उसमें दृढ़ इच्छा-शक्ति है, संचालन की त्वरित बुद्धि है, साहस है और वक़्त आने पर दूसरों को संरक्षण देने की क्षमता है। इक्कीसवीं सदी में ही क्यों, हर सदी में उसने अपने लिए नए सोपान गढ़े हैं, नए रास्ते तलाशे हैं। मुश्किलों से स्वयं को ही नहीं, वरन् पूरे परिवार को उबारा है फिर इसके लिए चाहे उसे रानी झांसी जैसी वीरांगना बनना पडे या फिर इंदिरा गांधी की तरह् पौरुषीय सबलता का बाना पहन कर तानाशाह का ख़िताब एक कलंक की तरह माथे पर चस्पा करना पडे या फिर एक माँ बन कर अपनी हथेली में परिवार की सारी बुराइयों को समेट कर खुद अपराधी की तरह जीना पड़े...औरत हर् हाल में हाशिए पर ही खडी होगी। हमारा पूरा समाज उस हाथी की तरह् है जिसके खाने के दाँत और्, दिखाने के और हैं...।

(जारी है...)



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