कविता
शर्म भी शर्मसार है
मुझे,
शर्म आती है ऐसे देश पर
जहाँ नेता
बच्चों की तरह बिहेव करते हैं
मुझे घिन आती है
ऐसे घरौंदे पर
जहाँ बाप
बेटी से ही रेप करते हैं
मुझे नफ़रत है ऐसे माहौल से
जहाँ,
मुद्दों की आड़ में
भाई और भाई लड़ते हैं
मुझे दुःख है ऐसे देश पर
जहाँ अन्न के भंडार हैं
पर फिर भी
भूख से लाखों मरते हैं
दोस्तों,
अब तो शर्म भी शर्मसार है
उस देश से
जहाँ पापी मोती चुगते हैं
और बेकसूर यूँ पिटते हैं
उस देश को मैं क्या कहूँ
जहाँ सभी
अच्छी छवि की बात तो करते हैं
पर अपनी ही छवि को
पानी में देख डरते हैं...।
(सभी चित्र गूगल से साभार)
शर्म भी शर्मसार है इससे ज्यादा मैं क्या कहूँ
ReplyDeleteइसे भी देखें-
एक 'ग़ाफ़िल' से मुलाक़ात याँ पे हो के न हो
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...सादर !
ReplyDelete