हमारे जीवन की रोजमर्रा की बहुत सारी ऐसी छोटी-मोटी घटनाएँ होती हैं, जो ‘देखन में छोटी लगे, घाव करे गम्भीर’ वाली स्थिति लागू कर जाती हैं। हम में से हर कोई कभी-न-कभी उनसे दो-चार हुआ होता है, पर ज़्यादातर हम उन्हें नज़रअन्दाज़ कर के अपने ज़िन्दगी के सफ़र में आगे बढ़ जाते हैं, यह सोच कर कि बेकार के पचड़ों में कौन पड़े...। पर मुझे अक्सर इन बातों पर कोफ़्त होने के साथ अफ़सोस भी होता है...। अगर कर पाती हूँ तो अपने भरसक उन पर अपना विरोध ज़रूर जताती हूँ...।
तो आज उनमें से चन्द अफ़सोसजनक बातें आपके साथ भी बाँट रही हूँ...।
१) मँहगाई के इस ज़माने में आदमी अपनी रोजमर्रा की ज़रूरतों से कुछ कटौती करके तिनका-तिनका बचाता है...यह सोच कर कि मुसीबत के समय वह उसके काम आएगा...। यह तिनका जुड़ते-जुड़ते जब बड़ा आकार लेने लगता है, तब वह उसे बैंक के खाते में जमा कर देता है...। मँहगाई की भीषणता से उपजी चिन्ता का अन्दाज़ा बैंकों में बढ़ती भीड़ से लगता है और महसूस होता है कि गरीब हो या अमीर...शिक्षित हो या अशिक्षित, सभी को जैसे बैंक का ही सहारा है। पर उस वक़्त बड़ा अफ़सोस होता है जब पासबुक कम्प्लीट कराते समय, पैसा निकालते या जमा करते समय अथवा बैंक से सम्बन्धित और कोई कार्य करते-कराते समय ग्राहक किसी बैंक कर्मचारी द्वारा इस कदर झिड़क दिया जाता है जैसे वह कोई ग्राहक नहीं, बल्कि कोई भिखारी हो...। मानती हूँ कि कर्मचारी भी इंसान हैं और बढ़ती भीड़ उनमें चिड़्चिड़ापन पैदा कर देती है, पर परेशान तो हर आदमी है न...? बैंक कर्मचारियों को काम शुरू करने से पहले अपने ऑफ़िस की दीवार पर टँगे बड़े से बोर्ड को क्या एक बार पध नहीं लेना चाहिए- यदि आप हमसे संतुष्ट हों तो दूसरों से कहें और यदि हमसे असंतुष्ट हों तो हमसे कहें...। वाह! क्या बात है...कथनी और करनी में इतना अन्तर...?
२) कानपुर की खस्ताहाल सड़कों पर निकलना कितना जानलेवा है, यह यहाँ से रोज़ निकलने वाले ही जानते हैं...। भ्रष्टाचार का जीता-जागता नमूना है ये सड़कें...। सरकार और जनता का पैसा खर्च करके बड़ी मेहनत से महीनों में बन कर तैयार तो हो जाती हैं, पर हफ़्ते-महीना बीतते-बीतते फिर वही टूटी-फूटी, ऊबड़-खाबड़ सड़कें...कहीं बड़े-बड़े उभरे से पत्थर, कहीं गढ्ढे...। पैदल चलते हुए नज़रें ज़रा सी भी भटकी कि मुँह के बल गिरे, दुपहिया वाहनों की भी खैर नहीं और अगर चौपहिया वाहन से हैं तो गाड़ी इतने हिचकोले खाती है तो इंसान ब्लड-प्रेशर, स्पॉडलाइटिस आदि का मरीज न भी हो तो भी हो जाता है...। गर पहुँच कर पूरा बदन टूटा-फूटा सा, पके फोड़े-सा टीसता है, सो अलग...। अपने देश की जनता मिलावटी सीमेण्ट से सड़क बनाने वालों को गरियाती रोज अपनी मंजिल तक पहुँचती तो है, पर उस समय बड़ी शर्मिंदगी होती है जब कोई विदेशी कहता है," सड़क है या ट्रैकिंग-रूट...हमारे देश में तो कोई ऐसी सड़क की कल्पना भी नहीं कर सकता..." और अफ़सोस की बात तो यह है कि ये बात सच है...।
३) हमारे देश की कुल आबादी का लगभग एक-तिहाई हिस्सा बहुत...बहुत ही बुरी तरह भूखा मरता है...। गन्दगी से बजबजाते नाले के किनारे ऊबड़-खाबड़, ऊँची-नीची ज़मीन पर खपच्चियों और चीथड़ों से बनाई गई झोपड़ियों के भीतर गरीबी और बेरोजगारी के चलते न जाने कितने परिवार अन्न के एक-एक दाने के लिए खुद तरसते हैं और अपने बच्चों को भी तरसाते हैं...। सड़क के किनारे कूड़े के ढेर से जब वे लावारिस कुत्तों के साथ खुद भी दाना ढूँढते हैं, तब मन उन सम्पन्न लोगों के लिए तिक्तता से भर जाता है जो पार्टियों में लजीज़ और मँहगे खाने को अधिक-से-अधिक खा लेने की लालच में अपनी प्लेट ऊपर तक भर तो लेते हैं, पर पूरा खा नहीं पाते। बचा हुआ अमूल्य अन्न कूड़ेदान में डाल दिया जाता है...। इससे भी ज़्यादा अफ़सोस तब होता है जब पार्टी ख़त्म होने पर मेजबान भी बचा खाना गरीबों में बाँटने की बजाय उसे यूँ ही बर्बाद होने देता है। काश! हम एक दिन भूखे रह कर ऐंठती अंतड़ियों का क्रन्दन सुन पाते...।
४) आज हमारी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा बन गया है-इलेक्ट्रानिक मीडिया- पर उस समय बहुत निराशा होती है जब यही मीडिया हमारी संस्कृति, हमारी शिक्षा और हमारे विचारों को गंदला करने में एक सशक्त भूमिका निभाता है। कुछ चैनलों पर तो युवाओं के इतने निम्न स्तर के कार्यक्रम आते हैं कि सिर शर्म से झुक जाता है...गन्दी से गन्दी गालियाँ (जिन पर ‘बीप’ की ध्वनि लगा दी जाती है)...व्यंग्यबाण...भद्दे इशारे...अश्लीलता अपनी सीमा से परे चली जाती है। ऐसे कार्यक्रमों में सामान्य घरों से ताल्लुक रखने वाली लड़कियों के भी छोटे...और छोटे होते जा रहे कपड़ों को देख कर कभी-कभी भ्रम होता है कि हम आदिम युग की ओर तो नहीं लौट रहे, जहाँ इंसान पत्तों से अपना तन ढँका करते थे...। आँखों की शर्म खोती जा रही आज की इस युवा पीढ़ी को देख कर क्या आपको अफ़सोस होता है...? शायद हाँ...। पर उससे भी ज्यादा अफ़सोस युवा पीढ़ी को ग़लत राह पर ले जा रही उस मीडिया पर होता है जिसमें किसी भी बुराई के ख़िलाफ़ लड़ कर उसे दूर करने की ताकत तो है, पर वह कई बार उसका इस्तेमाल नहीं करती...।
यही तो बात है, सरकार,प्रशाशन को भी सब नज़र आता है, लेकिन कुछ करना चाहती नहीं हमारी सरकार
ReplyDeleteभिक्षाटन करता फिरे, परहित चर्चाकार |
ReplyDeleteइक रचना पाई इधर, धन्य हुआ आभार ||
http://charchamanch.blogspot.com/
हमारे देश में तो कोई ऐसी सड़क की कल्पना भी नहीं कर सकता..." और अफ़सोस की बात तो यह है कि ये बात सच है...।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...बधाई
प्रासंगिक और सटीक अभिव्यक्ति. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.