कविता
आदमी
देवदार के घने पत्तों को
छूकर जाती हवाओं के बीच
खड़े होकर
आदमी ने सोचा कि
काश !
मैं आकाश को छू सकता
और साथ ही
आकाश की छाती में उगे
सूरज को
बन्द कर सकता
अपनी सख़्त-आदम हथेलियों के बीच
या फिर
चाँद की मासूम...पर...
शरारत भरी हँसी को
उतार सकता अपने भीतर
या फिर
ओस की नमी को
भर सकता अपनी आँखों में
और ये हवाएं
जो मेरी इजाज़त के बिना
मेरी सांसों में भर कर
इठला रही है
इन्हें रोक सकता
एक अंधेरी
सीलन-भरी कोठरी के भीतर
उन हज़ारों-हज़ार लोगों के लिए
जिन्हें सूरज...चाँद...ओस
कुछ भी नहीं चाहिए
हवा का एक नन्हा सा कतरा
जिनके लिए ज़रूरी है
रोटी से भी ज़्यादा
" आदमी"
सोच रहा था
ज़रूरत से ज़्यादा
उन पहाड़ों के बारे में
जो ऊँचा सिर उठाए
आदमी के बौनेपन को
चुनौती दे रहा था
आदमी ने सोचा कि
काश !
वह पहाड़ की तरह सिर उठा सकता
और उसकी तरह
अपने पाँवों के नीचे
बहती नदी का
रुख मोड़ सकता
या फिर
हरी दूब की कोमलता को
सोख लेता
अपनी आत्मा के सोख्ते से
आदमी
सोचता रहा...इसी तरह
प्रकृति के ज़र्रे-ज़र्रे के लिए
हवाएं...
अब भी उदंड हैं
पहाड़ अब भी "आदमी" से ऊँचा है
इसीलिए
आदमी
नदी...हवाओं...और पहाड़ के बीच खड़ा
शर्मिंदा है
अपने बौनेपन से
अपने भीतर के जंगल से
पर फिर भी
सोचता है कि
एक दिन
इन पहाड़ों को काट कर
एक रास्ता बनाएगा
वह रास्ता जंगल की ओर नहीं
बल्कि,
नदी के मुहाने पर बसे
उसके खपरैलों वाले घर पर
जाकर ठहर जाएगा
ठीक,
पहाड़ की तरह...|
(चित्र गूगल से साभार)
सुंदर रचना....
ReplyDeleteलाज़वाब प्रस्तुति...
ReplyDeleteबेशक "पर" हौंसलों के हों
ReplyDeleteपर ध्यान रहे
गंतव्य तक पहुँचने के लिए
सही दिशा का भान होना
बेहद जरुरी है
bahut sunder soch aur utni hi khubsurti se likha hai shbdon ka upyog kamal hai
saader
rachana
सोचता है कि
ReplyDeleteएक दिन
इन पहाड़ों को काट कर
एक रास्ता बनाएगा
वह रास्ता जंगल की ओर नहीं
बल्कि,
नदी के मुहाने पर बसे
उसके खपरैलों वाले घर पर
जाकर ठहर जाएगा
ठीक,
पहाड़ की तरह...|
Vah ! Kamaal ka lekhan hai aapka Mani Ji,
meri badhayee !
hardeep