Thursday, August 15, 2024

बत्तीसी पुराण

 प्रतिष्ठित पत्रिका 'उदन्ती' के अगस्त 2024 में प्रकाशित मेरा हास्य-व्यंग्य- बत्तीसी पुराण- आप सबके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है। आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी। 


हास्य व्यंग्य

                           बत्तीसी पुराण

                                                 प्रेम गुप्ता ‘मानी’                                                      


बरसों पहले किसी ने उन्हें बताया था कि हँसते रहने से आदमी की सेहत अच्छी रहती है। बस्स, उसी दिन से उन्होंने अपनी सेहत की खातिर इस बात को गाँठ बाँध लिया। जीवन में दुःख होता या सुख, वे बस हँसते रहते थे और हर वक़्त हँसते रहने के कारण उनकी सेहत तो अच्छी हो गई, पर वे एक मुसीबत में पड़ गए। उन्हें हर वक़्त हँसते रहने का इतना अभ्यास हो गया था कि चाहकर भी उनकी बत्तीसी भीतर जाती ही नहीं थी।

 


         

हर समय मुँह खोलकर बत्तीसी झलकाने के कारण टाइम-बेटाइम उन्हें लोगों की लताड़ पड़ चुकी थी पर वे थे कि आदत से मजबूर...मुँह खोलकर हँसते रहते...। लताड़ देने वाला भी हारकर हँस देता, "यार...तुम्हारे जैसे बेहया आदमी नहीं देखा...।"

           

‘बेहया’ शब्द अपने लिए सुनकर उन्हें ठेस लगती। वे जबरिया अपना मुँह बन्द कर लेते, पर दूसरे ही क्षण बत्तीसी अपने आप ही झलक जाती...होंठ फैल जाते...। देखकर लगता, जैसे हँस रहे हों। सामने वाला गुस्से में आगे बढ़ जाता, "अरे, कुछ तो शर्म करो...।"

            

अपनी इस आदत से वे भी कम परेशान नहीं थे। सो समय-बेसमय हँसते वक़्त वे उस आदमी को लाख-लाख बद्दुआ देते, जिसने उन्हें हँसना सिखाया था। उनकी इस आदत से उनकी पत्नी और बच्चे भी कम परेशान नहीं थे।

            

एक दिन ऑफ़िस से लौटे तो देखा, पत्नी पेट-दर्द से बुरी तरह तड़प रही है। उन्होंने उसे इस हालत में देखा तो हँसने लगे, "क्यों, क्या हुआ तुम्हें? तुम इस तरह लोट-पोट क्यों हो रही हो?"

           

"तुम्हें क्या दिखाई नहीं दे रहा? पेट-दर्द से मेरा बुरा हाल है और तुम हो कि खुश हो रहे हो? अरे, जल्दी से डॉक्टर बुलाओ नहीं तो मैं मर जाऊँगी।"

           

पत्नी ने रोते हुए कहा तो उनकी हँसी तो बन्द हो गई पर बत्तीसी खुली रही, "हाँ...हाँ...मैं अभी डॉक्टर को लेकर आता हूँ...।"

           

बत्तीसी खोले हुए वे बाहर निकले तो पड़ोसी शर्मा ने कहा, "क्या बात है मिश्रा जी...बड़े खुश नज़र आ रहे हो...?"

           

"अरे नहीं शर्मा जी, ऐसी कोई बात नहीं...। दर‍असल डॉक्टर को बुलाने जा रहा हूँ। पेट-दर्द से पत्नी की हालत बहुत खराब है।"

           

आश्चर्यचकित शर्मा उनसे कुछ और पूछता कि वे हँसते हुए चले गए।

           

डॉक्टर की क्लिनिक घर के पास ही थी। दस मिनट में ही पहुँच गए। डॉक्टर किसी दूसरे मरीज को देख रहा था। समय लगते देख वे हँसते हुए बेंच पर बैठ गए और आने वाले मरीजों को पूरी बत्तीसी खोलकर देखने लगे। मरीज उन्हें गुस्से से देखते और फिर आगे बढ़ जाते।

           

थोड़ी देर बाद जब डॉक्टर खाली हुए तो उनकी ओर मुड़े, "कहिए मिश्रा जी...कैसे आना हुआ?"

           

"जी, पत्नी के पेट में भयंकर दर्द है...ज़रा चल कर देख लेते।" कहकर वे हँसने लगे तो डॉक्टर को भी हँसी आ गई, "ऐसी भी क्या नफ़रत मिश्रा जी अपनी पत्नी से, कि उसके दुःख में भी आप इतना खुश हो रहे...।"

           

"नहीं…नहीं..." कुछ सफ़ाई सी देते हुए उन्होंने डॉक्टर का बैग उठाया और फिर अपनी पूरी बत्तीसी झलकाते हुए घर की ओर चल दिए।

           

पत्नी का चेक‍अप कर दवा वगैरह लिखकर डॉक्टर तो चले गए पर उसके बाद पत्नी ने घर में जो महाभारत मचाया कि असली कौरव भी होते तो यह देखकर महाभारत से तौबा कर लेते।

           

उन्होंने पत्नी को समझाने की बहुत कोशिश की, हर तरह से अपने अमर प्रेम का यक़ीन दिलाया, पर सब व्यर्थ...। उसकी एक ही रट- "मेरे दुःख में तुम्हें बहुत हँसी आती है न...। अब देखना, जब तुम बीमार पड़ोगे तो मैं डॉक्टर को भी नहीं बुलाऊँगी...।"

           

पत्नी फिर दहाड़ मारकर रोने लगी तो दीर्घशंका का बहाना बना कर वे जल्दी से खिसक लिए। काफ़ी देर बाद हँसते हुए निकले तो फिर वही नज़ारा...। घबराकर लघुशंका घर में घुस गए। ऐसी विकट परिस्थिति में उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें...। काफ़ी देर बाद बाहर निकले तो एकदम निचुड़े हुए।

           

अपनी इस आदत से उत्पन्न स्थिति से उन्हें कितनी परेशानी झेलनी पड़ती है, यह किसी को कैसे समझाएँ? एक बार तो इस आदत के कारण इतना परेशान हुए कि उन्हें उस जगह से मुँह ही छिपाकर भागना पड़ा। हुआ यूँ कि उनके एक रिश्तेदार की मृत्यु हो गई। न चाहने के बावजूद पिता की की आज्ञा के कारण उन्हें वहाँ जाना ही पड़ा। जाते वक़्त पिता ने उन्हें खास हिदायत दी थी, “धीरज बँधाते समय ज़रा अपनी बत्तीसी पर नज़र रखना...। इसके कारण अगर हमारे व्यवहार पर असर पड़ा तो समझे रहना...तुम्हारी ख़ैर नहीं...।"

           

और उन्होंने पिता के निर्देशानुसार ऐसा ही किया भी...। वहाँ सबके सामने उदास आँखों के साथ उन्होंने अपनी बत्तीसी पर काफ़ी देर नियन्त्रण रखा, पर जैसे ही मृत रिश्तेदार की पत्नी-बच्चों ने दहाड़ मारकर रोना शुरू किया, उनकी बत्तीसी खुल गई...। उन्हें देख गुस्से में लोगों ने जो-जो बात कही कि दुम दबाकर उन्हें वहाँ से भागना पड़ा।

            

इस भीषण काण्ड के बाद से तो उन्होंने किसी के घर मातम में जाना ही छोड़ दिया। दूसरे तक तो फिर भी चल गया पर अपने घर क्या करते...? पिता की सहसा मृत्यु हो गई पर तब भी उनका वही हाल रहा। कन्धे पर पिता की अर्थी थी और नीचे उनके चेहरे पर पूरी बत्तीसी खिली हुई थी। रिश्तेदारों ने देखा तो थू-थू किया, "कैसा कपूत जन्मा है चिरौंजीलाल के यहाँ...। देखो तो ज़रा, बाप के मरने पर कैसा हँस रहा...इतना खुश तो कोई दुश्मन के मरने पर भी नहीं होता...।"

            

पत्नी ने भी रात को आड़े हाथों लिया, "शर्म नहीं आती इस तरह खींसे निपोड़ते हुए...? अरे, अगर दिल में दुःख नहीं था तो कम-से-कम झूठमूठ ही दुःख दर्शा कर इज्ज़त बचा लेते। रिश्तेदारों का तो ख़्याल करते। छिः...क्या सोचते होंगे सब...। तुम खुद सोचो कि तुम्हारे मरने पर अगर तुम्हारा बेटा भी इसी तरह हँसे तो कैसा लगेगा तुम्हें...?"

            

और फिर दूसरे ही क्षण पत्नी दहाड़ मारकर रोने लगी, "जब तुम जन्म देने वाले पिता के मरने पर नहीं रोये तो मेरे मरने पर क्या रो‍ओगे...?"

            

ऐसी बात नहीं है कि अपनी इस आदत से मुक्ति का कोई उपाय वह सोचने की कोशिश न करते हों। इसी सन्दर्भ में एक बार उन्होंने बुर्का पहनने पर भी विचार किया था पर फिर जगहँसाई के भय से इस विचार को भी त्याग दिया।

            

इधर वे एक और संकट में फँस गए थे। पत्नी ने खुद तो उनसे बोलना छोड़ा ही, साथ ही बच्चों को भी सख़्त हिदायत दी थी कि, "जब तक तुम्हारे बाबू सुधरें नहीं, तब तक उनसे कोई नहीं बोलेगा...।" अब बच्चे ठहरे माँ के परम भक्त...सब ने उनसे बोलना छोड़ दिया।

            

वे रोज़ सुबह हँसते हुए उठते...दीर्घशंका-लघुशंका से निपट मेज पर पहले से रख दिए गए खाने को हँसते-हँसते खाते और ऑफ़िस चले जाते। माँ से उनका अकेलापन देखा नहीं जा रहा था। एक दिन उन्होंने बहुत समझाया, "बेटा, खुश रहना अच्छी बात है। पर दुःख के समय भी तू खींसे निपोरे रहता है, यह भी कोई बात हुई...? यह अच्छी बात नहीं है बेटा...।"

            

माँ की यह बात तीर की तरह उनकी अन्तरात्मा को भेद गई। उन्होंने उसी वक़्त प्रण किया...न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी...। आज इसी वक़्त बत्तीसी को उखाड़ फेंकूँगा...मारे गुस्से और क्षोभ के मन-ही-मन उन्होंने यह प्रण लिया पर उस कठिन घड़ी में भी उनकी खुली बत्तीसी से हँसी बरकरार थी। अपनी प्रतिक्रिया उन्हें सामने लगे शीशे में दिखाई दी तो शीशे को तोड़कर जा पहुँचे दाँतों के डॉक्टर के पास, “डॉक्टर साहब, पूरी बत्तीसी उखाड़ने का आप क्या लेंगे...?"

            

डॉक्टर ने उनकी ओर देखा। बत्तीसी खुली देखकर क्रोधित हो गया, "शरम नहीं आती डॉक्टर से मसखरी करते हुए...?"

            

वे परेशान हो गए। किसी तरह डॉक्टर को उन्होंने अपनी समस्या समझाई। डॉक्टर को दया आ गई। वह कलयुगी होने के बावजूद पैसे व दया के मामले में सतयुगी निकला। कम पैसे व उससे भी कम समय में में ही उसने उनकी पूरी बत्तीसी उखाड़कर उनके हाथों में थमा दी।

             

वे बेहद प्रसन्न हुए और प्रसन्नता के आवेग में अपना सारा कष्ट भूल गए। खूब खुश होकर वे घर पहुँचे और पत्नी से बोले, "लो भाग्यवान, जिस कारण से तुम मुझसे नाराज़ रहा करती थी, वह कारण ही मैने जड़ से उखाड़ फेंका।"

            

कहते-कहते उनका मुँह फिर खुल गया। उनके मुँह का अन्धेरा देख पत्नी तो गश खाकर गिर पड़ी। माँ ने देखा तो दहाड़ मारकर रो पड़ी, "अरे, अभी तो मैं ही बैठी हूँ, तो फिर तू कैसे इतना बुढ़ा गया रे...?"

           

पत्नी भी आते-जाते गुस्से में मुँह फेरकर आगे बढ़ जाती है, "खूसट बुढ्ढा कहीं का...।"

            

अब वे पहले से कहीं अधिक परेशान हैं। पहले जहाँ सिर्फ़ पत्नी और बच्चे उनसे रूठे थे, वहीं अब माँ भी रूठ गई है। उनका घर से बाहर निकलना भी दूभर हो गया है। आदतन उनका मुँह अब भी खुल जाता है, जिसे देखकर लड़कियाँ-औरतें गुस्से से फूट पड़ती हैं, "इस बुढ़ौने को देखो तो सही...मुँह में एक भी दाँत नहीं...क़ब्र में पाँव लटकाए है, फिर भी लड़कियों को देखकर हँसता है...कुत्ता कहीं का...।"

             

इन सब दुर्घटनाओं से वे इतने अधिक परेशान हो गए हैं कि अब फिर से बत्तीसी लगवाने के चक्कर में हैं। बस्स, उन्हें तलाश है तो एक दूसरे डॉक्टर की...।


Thursday, March 28, 2024

संस्मरण- वो एक शाम

 


                                          

बच्चे, चाहे कितने ही बड़े क्यों न हो जाएँ, उन्हें हमेशा यही कहा जाता है कि अपने बड़ों की बात सुनो...खास तौर से माता-पिता की...। पर बावजूद इसके वे इस बात को महत्व नहीं देते। उन्हें लगता है कि वे जो कुछ कर रहे हैं, सही कर रहे हैं। माता-पिता तो बेवजह उन पर पाबन्दी लगाते रहते हैं। वे उनकी ऐसी टोका-टाकी से अक्सर विद्रोही भी हो जाते हैं, पर यह एटीट्यूड उनको कितना भारी पड़ सकता है, इसका मुझे गहरा अनुभव हुआ है।

 

नवीं क्लास ही पास की थी कि शादी हो गई। माँ अक्सर कहती थी कि देर-सबेर न घूमना, पर उम्र का ही तकाज़ा था कि माँ की बात एक कान से सुनती, दूसरे से निकाल देती। टी.वी-कम्प्यूटर जैसी चीज़ें तो हुआ नहीं करती थी तब, सो जब दिल बहुत ऊब जाता तो फ़िल्में ही एकमात्र मनोरंजन का साधन होता था। देखने का प्रोग्राम बनता भी तो ज़्यादातर शाम के समय का, क्योंकि खाना खाकर निकलने के कारण मन में ये निश्चिन्तता रहती थी कि घर लौटकर खाना नहीं बनाना।

 

उस दिन शायद शनिवार था। खाना-पीना करके जिस फ़िल्म का प्रोग्राम बना वो घर से करीबन सात-आठ किलोमीटर दूर के सिनेमाहॉल में लगी थी। नौ बजते-बजते फ़िल्म ख़त्म होने पर जब हम लोग बाहर आकर बस स्टॉप पहुँचे तो पता चला अचानक बसों की हड़ताल हो गई है...। थोड़ी देर पहले एक बस ड्राइवर को किसी ने बुरी तरह पीट दिया था, उसके विरोध में सारे बस-ड्राइवर हड़ताल पर चले गए थे। हार कर हम दूसरी सवारी का इंतज़ार करने लगे। अचानक हुई इस अफ़रा-तफ़री की वजह से लगभग सभी सवारियाँ भरी जा रही थी। जाड़े की शाम जल्दी ही सुनसान सी रात में तब्दील होने लगी थी। घड़ी की सुई ग्यारह की ओर बढ़ रही थी और साथ ही मन की घबराहट भी...। अभी कुछ सोच पाते कि अचानक एक गाड़ी आकर सामने रुकी। ड्राइविंग सीट पर बैठा आदमी उतर कर हमारे पास आया, "आइए, घर छोड़ दें आप लोगों को...। मेरा मकान भी लाजपत नगर में है...आज शादी से लौट रहे थे तो देखा आप लोग खड़े हैं...। आप शायद मुझे नहीं पहचान रहे, पर मैं वहीं रहता हूँ, आप लोगों को अच्छी तरह पहचानता हूँ...।" मैंने हल्के से गाड़ी में झाँका तो पीछे की सीट पर दो पुरुष और ड्राइविंग सीट के बगल वाली सीट पर एक महिला बैठी थी। उनकी बात सुनकर बिना सोचे-समझे गुप्ता जी गाड़ी में बैठने चले ही कि जाने कैसे मेरी छठी इन्द्रिय सक्रिय हो उठी। जाने क्यों वो लोग एक महिला के साथ होने के बावजूद मुझे कुछ ठीक नहीं लगे। सामने निगाह गई तो एकलौती पान की दुकान खुली दिखी, जहाँ हमारे ही हम‍उम्र चार-पाँच लड़के खड़े पान-सिगरेट लेकर आपस में बतिया रहे थे। मुझे कुछ नहीं सूझा...बस तेज़ी से मैं उस ओर बढ़ गई और उनके पास पहुँच कर अचानक आकर रुक गई उस गाड़ी के बारे में बताने लगी। वे युवक जैसे ही मुड़े, गाड़ीवाला वापस बैठा और कार ये जा, वो जा...। उसी इलाके के उन युवकों और पानवाले ने भी कार को पहचान लिया था। उन्होने तब बताया कि वो गाड़ी थोड़ी संदिग्ध है, और इलाके वाले उन लोगों से सतर्क ही रहते हैं। आज शायद हम लोग किसी मुसीबत में फँसने से बाल-बाल बचे हैं...। सुनकर मेरे प्राण हलक में अटक गए। समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ...कैसे सुरक्षित घर पहुँचू...? सुरक्षा के लिए किस पर विश्वास करूँ...? पानवाले पर या इन लड़कों पर...?

 

मोबाइल का तो उस ज़माने में कोई सवाल ही नहीं था, फोन भी हर जगह हों, ज़रूरी नहीं था। सो घर से भी किसी को नहीं बुला सकती थी। मन में यह पक्का विश्वास हो गया था कि अगर वो कारवाले ग़लत न होते तो भागते क्यों...? खैर, ईश्वर का नाम लेकर मैंने उन लड़कों पर ही विश्वास किया। हमें वहीं रोक कर दो-तीन युवक आसपास आगे बढ़ गए और आखिरकार न केवल एक रिक्शा ही तय कर लाए, बल्कि काफ़ी दूर, एक सुरक्षित जगह तक स्कूटर पर रिक्शे के साथ भी आए और हम लोग की सुरक्षा के लिए पूरी तौर से आश्वस्त होने के बाद ही वापस गए।

 

उस दिन की तरह मैं आज भी अक्सर ये सोचती हूँ कि इस दुनिया में जहाँ कुछ बहुत गन्दे लोग हैं वहीं उन अनजान युवकों की तरह कुछ बहुत अच्छे और भले लोग भी मिलते हैं। पर इन सारी बातों से इतर मैं अक्सर इस बात के लिए पछताती रही...कुछ डरती भी रही कि अपनी माँ की बात न मानने के कारण अगर उस दिन मैं उन ख़तरनाक लोगों के चँगुल में फँस ही जाती तो क्या होता...?

 -प्रेम गुप्ता ‘मानी’

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Wednesday, May 10, 2023

गिल्लू

विशेष- यह मेरी पहली कहानी है, जो मैंने अस्सी के दशक में बस ऐसे ही लिख दी...पर जब यह उस समय की स्थापित और प्रतिष्ठित पत्रिका 'अवकाश' में छप भी गई और इस पर कई नामचीन साहित्यकारों और सुधि पाठकों की उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रियाएँ मिली, तब जाकर मुझे लगा, लेखन को सच में गंभीरता से लेने का वक़्त आ गया है । 

तब से कभी रुकते, कभी चलते...ज़िन्दगी के तमाम उतार-चढ़ाव को पार करते हुए मेरी लेखन यात्रा भी चल ही रही।

ये कहानी उन तमाम सपनीली आँखों के लिए, जिनकी रात बहुत लम्बी हो गई...।




 कहानी

                                                            गिल्लू

                                                                                        प्रेम गुप्ता ‘मानी’

सोलहवां साल यानी सोलह बसंत...यह उम्र कितनी मायावी है, उसे उम्र के इसी विशेष दौर में पहुँचकर या गुजरते हुए जाना सकता है। छलावे से भरी हुई इस उम्र में दुनिया बड़ी हसीन और रंगीन लगती है,  ठीक उस इन्द्रधनुष की तरह जो वर्षा की हल्की फुहार के बाद अचानक अनन्त आकाश के नीले विस्तार में धनुषाकार आकृति लिए टंकित हो जाता है।

इन्द्रधनुष मायावी होता है। क्षणिक सुख की अनुभूति कराने वाला.... शोख एवं चटक रंगों का मायाजाल। इन्द्रधनुषी रंगों को अपने जीवन में उतार लेने को जी चाहता है, लेकिन वे रंग अधिक देर ठहर कहाँ पाते हैं?  तपते हुए सूरज की तेज आँच से पिघलने लगता है इन्द्रधनुष...रह जाता है अनन्त आकाश की छाती पर तपता सूरज और फिर दूर- दूर तक फैला नीला विस्तार या फिर शून्य...। शून्य में भटकते हाथ, सूरज के ताप से पिघलता तन, चौंधियाती आँखें...।

गिल्लू भी उम्र के इसी विशेष दौर से गुजर रहा था, जब इन्द्रधनुषी रंगों को अपने जीवन में उतार लेने को आतुर हो वह अपने कुछ अमीर किन्तु बिगड़े हुए दोस्तों के साथ बम्बई भाग आया था। जैसे इन्द्रधनुष अधिक देर नीले विस्तार में नहीं ठहरते,  उसी तरह गिल्लू के सपने भी अधिक देर ठहर नहीं सके और जब नंगी आँखों से उसने दुनिया को बहुत करीब देखा तो पाया इन्द्रधनुषी रंग दूर से देखने में तो हसीन एवं शोख लगते हैं, पर उन्हें अपने जीवन में भरने की इच्छा से अनन्त आकाश में छलांग लगाकर धरती की कंकरीली-पथरीली जमीन पर गिरकर चोट ही खायी जा सकती है। गिल्लू ने भी चोट खाई। इन्द्रधनुषी रंगों को अपने जीवन में उतारने की चेष्टा में वह सूरज के ताप से अपने को झुलसा बैठा और तब सहसा आकाश उसे बहुत छोटा लगने लगा और धरती बड़ी इतनी बड़ी कि टूढने पर भी उसे कोई अपना नजर नहीं आ रहा था।

मजबूरी की हालत में एक छोटे से ढाबे में जूठे बरतन धोते हुए गिल्लू को अब भी इन्द्रधनुषी रंग याद आते हैं और याद आता है अपना वह छोटा-सा घर, जो अनन्त आकाश की तरह विस्तृत तो नहीं था, पर इतना छोटा भी नहीं था कि उसमें इन्द्रधनुषी रंगों को भरा न जा सके।

पर गिल्लू तो घर में नहीं सिर्फ अपने जीवन में इन्द्रधनुषी रगों को भरना चाहता था, तभी तो जल्दबाजी में अनन्त आकाश की ऊँचाइयों को छूने की चेष्टा में धरती पर गिरकर अपने तन को ही नहीं बल्कि मन को भी चुटीला कर बैठा।

चोट लगते ही उसे माँ की याद आई और याद आते ही वह उन्हें चिट्ठी लिखने की इच्छा से अपने को रोक नहीं पाया। पर चिट्ठी लिखे कैसे? इतनी बड़ी धरती में उसे कोई भी एकांत कोना नजर नहीं आ रहा था जहाँ छिपकर वह कागज पर अपनी व्यथा को उतार सके।

ढाबे में साथ काम करने वाले उसके अन्य साथी भी शायद उसी की तरह दुखी हैं, किन्तु गिल्लू की माँ की तरह कोई उसका दुःख-दर्द समझने वाला नहीं है या शायद किसी से अपना दुःख कहने का उनमें ही साहस नहीं है।

घड़ी की सुई पूरे ग्यारह बजा रही थी। सारा काम खतम कर गिल्लू ने अपने मालिक का बिस्तर लगाया और फिर आज्ञा लेकर धीरे-धीरे चलता हुआ फुटपाथ पर आ गया, सोने के लिए। उसके अन्य साथी पहले से ही वहाँ पसरे हुए थे। कुछ सो गए थे, कुछ जाग रहे थे।

गिल्लू भी एक किनारे जाकर बैठ गया। बैठते ही उसके बदन में बड़े जोरों का दर्द हुआ और उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसे उस समय माँ की बेहद याद आ रही थी। माँ की याद आते ही उसकी सिसकी निकल गई, पर उसकी सिसकी की आवाज समुद्री लहरों के शोर में दब गयी, वरना थोड़ी ही दूर पर लेटा विशवा उठकर जरूर उसके रोने का कारण पूछता।

बचपन में विशवा फिल्म में काम पाने के लालच में बम्बई भाग आया था। और अब, जबकि उसके होठों के ऊपर मूँछों की रेखायें भी हल्की गहरी हो चली है, फिल्म में काम पाने की कौन कहे, फिल्म देखने को भी वह तरस गया है।

गिल्लू की तरह वह पढ़ा-लिखा भी नहीं हैं कि घर में किसी को चिट्ठी डालकर बुला ले या शायद वह घर जाना ही नहीं चाहता क्योंकि गिल्लू की माँ की तरह उसकी माँ सगी नहीं है। एक बार विशवा ने यह सब गिल्लू को बताया था तो गिल्लू को उस पर बहुत दया आई थी और उसने मन ही मन सोचा था कि जब वह अपने घर जाएगा तो विशवा को भी साथ ले जायेगा। उसकी अम्मा बहुत अच्छी है। वह विशवा को भी उतना ही प्यार देंगी, जितना उसे देती हैं।

उसने एक नजर विशवा की ओर डाली। वह हाथ-पाँव पसारे इस तरह खर्राटे भर रह था, जैसे उसे कोई दुःख ही न हो। विशवा की बगल में टॉमी भी सोया था, अपनी पूँछ और सिर को शरीर के भीतर गड़ाए हुए। रह-रह कर पता नहीं क्यों टॉमी का शरीर काँप उठता ।

इसी टॉमी को सभी दुत्कारते हैं, पर एक विशवा ही है जो उसे दुलारता है। खाने को चुपके से रोटी दे देता है, तभी तो टॉमी विशवा को देखते हो पूँछ हिलाने लगता है। उसकी समझ में नहीं आता कि जब टॉमी किसी का कुछ बिगाड़ता नहीं, फिर क्यों लोग उसे दुत्कारते हैं?

उसने टॉमी की ओर से ध्यान हटाकर सहमी हुई आँखों से ढाबे की ओर ताका जहाँ उसका मालिक, जिसका रंग तवे सा काला था और जिस के थुलथुले शरीर की बड़ी सी तोंद हमेशा उसके चलने-फिरने से हिलती रहती थी, खर्राटे भर रहा था। उसके खर्राटे की आवाज उसे साफ सुनाई दे रही थी।  खर्राटे भरने से मालिक की मोटी तोंद फूल-पिचक रही थी।

उसका जी चाहा कि जाकर उस फूली तोंद को हमेशा के लिए पिचका दे, पर सोचते ही वह सहम गया। उसे आज सुबह की मार याद आ गयी जब उसके मालिक ने पुलाव की चोरी करने पर उसे बुरी तरह पीटा था।

याद आते ही उसका दर्द उभर आया और वह अनजाने में अपनी चोटों को सहलाने लगा। उसके मुख से कराह निकल गई तो पास लेटे रघुवा ने उसकी ओर करवट बदलते हुए पूछा, "क्या चोट दर्द कर रही है?"

"हाँ", उसने क्षीण आवाज में उत्तर दिया। 

"तो ऐसा काम ही क्यों करता है। जो मालिक देता है वही चुपचाप खा क्यों नहीं लेता?" रघुवा ने उसे समझाते हुए कहा तो वह चुप ही रहा। वह जानता था कि अगर बोलेगा तो मुँह से अंट-शंट निकल ही जाएगा और इस रघुआ को तो खूब अच्छी तरह जानता है, बड़ा चुगलखोर है। मुँह पर मीठी-मीठी बातें करेगा और पीठ पीछे मालिक से सब कुछ कह देगा।

उसे चुप देखकर रघुआ ही फिर बोला “तू इतनी रात को बैठा क्यों है?”

"तुझसे मतलब?" वह झुंझला उठा ।

"चल, जा सो जा। सुबह चार बजे उठ नहीं पाएगा तो फिर मालिक की लात खाएगा।"

"तू क्यों नहीं सो जाता। तुझे भी तो चार बजे उठना है?" अब उसे रघुआ पर बहुत जोरों का गुस्सा आ रहा था। अगर यह जागता रहा तो वह अम्मा को चिट्ठी कैसे लिख पायेगा? कहीं रघुआ ने देख लिया तो मालिक से कह देगा।

उसने एक बार सहमी हुई आँखों से ढाबे की ओर देखा, फिर रघुआ के दिखाने के लिए लेट गया। वह पलकें बन्द करके सोने का बहाना करते हुए रघुआ के सोने का इन्तजार करने लगा।

चारों तरफ चाँदनी छिटकी पड़ी थी। लहरों का शोर रह-रहकर उसके कानों से टकरा रहा था। चित्त लेटा हुआ वह आकाश को अपलक निहार रहा था। विस्तृत दूर-दूर तक फैला आकाश, ढेर सारे छिटके तारे, यह सब उसने कभी भी इतनी गहराई से नहीं देखा था या शायद देखने-समझने की उमर नहीं थी और जब उमर हुई, तब इन्हीं सबको पास से देखने की ललक में वह अपने को बर्बाद कर बैठा । 

रघुआ के खर्राटे की आवाज जब उसके कानों से टकराई तब वह बिना आहट किए हुए धीरे से उठा और बिजली के खम्भे के पास घिसटकर सरक गया। बैठने के बाद उसने सावधानी के तौर पर एक बार फिर रघु एवं अन्य साथियों की ओर देखा, फिर इत्मीनान से पालथी मारकर बैठ गया।

उसने अपनी फटी पैंट की जेब से मुड़ा-तुड़ा कागज और पेन्सिल, जो उसने उसी शाम काउंटर पर से उठा लिया था, निकाला और एक मोटी दफ्ती के ऊपर कागज फैलाकर लिखने की कोशिश करने लगा, पर पता नहीं क्यों पहला वाक्य लिखते ही उसकी उंगलियाँ काँप उठी और आँखें भर आईं। पल भर उसी स्थिति में रहने के बाद उसने अपनी फटी कमीज की बाँह से आँखें पोछी और फिर माँ को पत्र लिखने लगा-

"प्यारी अम्मा, मैं जानता हूँ तुम मुझसे बहुत गुस्सा होगी, फिर भी मैं तुम्हें चिट्ठी लिख रहा हूँ क्योंकि इसके सिवा अब मेरे पास और कोई जरिया नहीं है तुम तक पहुँचने का।"

इतना लिखने के बाद वह दो मिनट के लिए रुका और फिर इस तरह उसाँस भरी जैसे वह बहुत दूर से दौड़कर आया हो और उसकी साँस फूल रही हो, जिसपर वह काबू पाने की चेष्टा कर रहा हो। थोड़ी देर बाद उसने फिर लिखना शुरू किया "अम्मा, मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है, मैं सच कहता हूँ। मैं जानता हूँ मेरे घर से भागने पर तुम बहुत रोई होगी, बापू से मुझे ढूँढने के लिए कहते समय खूब गिड़गिड़ाई होगी, पर बापू ने तुम्हें झिड़क दिया होगा। एक बार मुझे यहाँ से ले जाओ तो फिर कभी ऐसा खराब काम नहीं करूँगा...कसम खाता हूँ अम्मा। मैं बहुत दुखी हूँ, मेरा मालिक मुझे बहुत मारता है, ठीक उसी तरह जैसे बापू तुम्हें मारते हैं।"

बापू की याद आते ही उसका मन घृणा से भर गया। उसे हमेशा आश्चर्य होता रहा है कि दुबला-पतला, मरियल-सा होने के बावजूद उसका बापू अम्मा को मारते वक्त गजब का फूर्तीला कैसे बन जाता था...? या शायद अम्मा ही कमजोर थी, वह कभी समझ नहीं पाया। उसे यह भी कभी समझ में नहीं आया कि अम्मा की चीख-चिल्लाहटों के बावजूद कोई उन्हें बचाने क्यों नहीं आता था? फिर वह भी कहाँ बचा पाता था? बापू के हाथ में मोटा डंडा देख कर उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती और तब वह खटिया के नीचे दुबक जाता और फिर तब तक बाहर नहीं निकलता, जब तक बापू अम्मा को पीट-पीटकर गुस्से में कहीं चला न जाता। बापू के जाते ही वह अम्मा की चोटों को सहलाता हुआ खुद भी सुबक-सुबक कर रो पड़ता।

कभी-कभी उसे अम्मा पर भी बेहद गुस्सा आता। क्यों सहती है बापू की मार? कई बार उसने गुस्से में अम्मा से कहा भी कि...चलो अम्मा, बापू को छोड़कर कहीं और चल कर रहें। सुनते ही अम्मा मरियल-सी सूखी हँसी हँसकर उसकी पीठ पर प्यार भरा धौल जमाते हुए कहती, 'धत् पगले, ऐसा नहीं कहते। फिर तू घबराता क्यों है? जब तू राजाबाबू बन जाएगा, तब मेरे सारे दुख दूर हो जाएँगे।'

याद आते ही उसकी आँखें भर आयीं। दो बूंद आँसू कागज पर चू पड़े, जिसे उसने अपनी मैली कमीज से पोंछ दिया। अम्मा को कैसे लिखे कि अम्मा, जिसे तुम राजाबाबू बनाने का सपना देख रही थी वह आज एक छोटे-से ढाबे में जूठे बरतन धोता है, मालिक की मार खाता है और बचा-खुचा खाकर कुत्ते की तरह सो जाता है।

उसका जी चाहा कि अपना गला दबाकर मर जाये, पर मर कहाँ पाता है। अभी पिछले ही हफ्ते जब उसके मालिक ने बुरी तरह धुनाई की थी तब भी तो उसने लोकल ट्रेन के नीचे आकर मरने की सोची थी, पर दूसरे ही क्षण उसे उस आदमी का क्षत-विक्षत शरीर याद आ गया था जो किसी बस के नीचे आकर बुरी तरह कुचल गया था और जिसे देखकर दहशत से भरकर उसने अम्मा के आँचल में मुँह छिपा लिया था।

फिर उसके मरने से अम्मा कितना रोयेंगी। कितनी अच्छी है उसकी अम्मा। खुद रूखी-सूखी खाकर भी उसे अच्छा खिलाती-पहनाती थी। उसे अच्छे स्कूल में पढ़ाने के लिए ही तो दिन-रात दूसरों के कपड़े धोकर पैसे कमाती थी। कितना दुःख सहती थी उसकी खातिर और एक वह था, नालायक, जो भागते समय माँ की ममता भी भूल गया था और यह भी भूल गया था कि उसके बड़ा आदमी बनने की आशा में ही अम्मा जी रही है। वहाँ से चलते समय रमेश ने उससे कहा था, "जानता है गिल्लू, बम्बई में इतनी ऊँची इमारते हैं कि सिर उठाकर देखो, तो गरदन दुखने लगती है...और भी ढेर सारी चीजें हैं वहाँ देखने को।"

"और फिल्म की हिरोइनें भी," उसने रमेश की बात पूरी कर दी थी। सुन भी रखा था कि बम्बई में फिल्म की हीरोइनें यूँ ही सड़कों पर घूमती हैं और उनसे कोई भी मिल सकता है। सोचकर ही उसका मन पुलक से भर उठा था, पर उस समय उसे क्या पता था कि यहाँ पत्थर की इतनी बड़ी-बड़ी इमारतों के अलावा पत्थर के इंसान भी बसते हैं, जो उस जैसे असहाय लड़कों को अपनी मुट्ठी में इस तरह जकड़ लेते हैं कि वे साँस लेने को भी तड़फड़ा उठे।

अचानक वह चिहुँक उठा। पता नहीं कब टॉमी उसके पास आकर उसका पैर चाटने लगा था। वह उसकी पीठ सहलाने लगा। बेचारा किसी का कुछ नहीं बिगाड़ता, फिर भी सभी दुत्कारते रहते हैं। टॉमी की पीठ सहलाते हुए उसने सोचा...पर क्या उसकी भी जिन्दगी इसी टॉमी की तरह बदतर नहीं हो गयी है? दिन भर कमरतोड़ मेहनत करता है, फिर भी मालिक की मार खाता है। लेकिन क्या ऐसी जिन्दगी जीने के लिए वह स्वयं जिम्मेदार नहीं है? उसे क्या पता था कि यहाँ उसे मौज उड़ाने के बदले इतने कष्टों का सामना करना पड़ेगा। वह तो यहाँ सिर्फ घूमकर लौट जाने के लिए आया था, पर यहाँ आते ही सब रुपये खर्च हो गए। जो किराये के बचाए थे वह भी एक दादानुमा आदमी ने मारकर छीन लिए। बाकी दोस्त कहाँ गए, उसे नहीं पता। वह तो लोकल ट्रेन की भीड़ में ही उनसे बिछुड़ गया था और फिर तीन दिन भूखे रहने के बाद उसे इस ढाबे में जूठे बरतन धोने को मजबूर होना पड़ा था।

यद्यपि उसने अपने घर में कभी भी एक गिलास तक नहीं धोया था, फिर भी उसे संतोष था कि जैसे ही पहली तनख्वाह मिलेगी, वह घर लौट जायेगा और यही सोचकर उसने मालिक को अपनी पूरी कहानी ही नहीं, वरन वापस घर जाने की योजना भी बता दिया। सुनकर मालिक ने हुँकार भरी थी और फिर उसके बाद वह तनख्वाह मिलने का इंतजार ही करता रह गया।

एक बार जब उसने साहस करके मालिक से पैसा माँगा तो तुरंत वह उसका कान उमेंठता हुआ बोला, “यह तू जो इतना ढेर सारा खाता है, उसके पैसे क्या तेरा बाप देता है?” सुनकर वह सहम गया था और फिर उसकी हिम्मत नहीं हुई थी कि मालिक से पूछे कि सुबह-शाम दो सूखी रोटी खा लेने को ही ढेर सा खाना कहते हैं?

उसने कई बार भागने की भी सोची, पर हर बार उसे विशवा की टूटी टांग याद आ जाती। विशवा ने ही उसे बताया था कि मालिक बड़ा निर्दयी है और वह काफी दूर तक निगाह रखता है। अन्दर की बात तो यह है कि शायद छुपे रूप से अपराध की दुनिया में भी बहुत पैठ रखता है। तब यह बात विशवा को नहीं पता थी, तभी तो वह भागने की हिम्मत कर बैठा था। परिणामस्वरूप उसकी टांगें तोड़ दी गयी थी। सुनकर वह बुरी तरह काँप उठा था।

विशवा नींद में पता नहीं क्या बड़बड़ा रहा था। उसने एक निगाह रघुआ पर डाली, वह भी बेसुध सो रहा था। थोड़ी देर वह आकाश को निहारता रहा फिर गहरी साँस लेकर लिखने लगा, पर लिखने से पहले उसने एक बार फिर ढाबे की ओर ताका। करवट बदल कर सोया हुआ मालिक उसे किसी दैत्याकार काले पहाड़ की तरह लगा। घृणा से उसने पिच्च से थूक दिया और फिर लिखने लगा-

"अम्मा, इस समय जब मैं तुम्हें चिट्ठी लिख रहा हूँ, पता नहीं क्या बजा है। शायद रात काफी बीत गई है और तुम भी सो गई होगी या शायद अपनी चोटों को सेंक रही होगी। मुझे यहाँ से किसी तरह आकर ले जाओ अम्मा। मैं सच कहता हूँ, अब मैं तुम्हारी सारी बात मानूँगा और पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनूँगा, ताकि तुम सुख से रह सको। अब मैं बापू को भी तुम्हें मारने नहीं दूँगा। अगर बापू फिर भी नहीं मानेंगे तो मैं तुम्हें कहीं और ले जाऊंगा।"

उसके मुँह से सिसकी निकली, पर उसने होठों में ही दबा लिया और फिर लिखने लगा, "अम्मा, इस समय मुझे बहुत सुबह-शाम मालिक सिर्फ दो रोटी देता है। हफ्ते में एक दिन कटोरी भर दाल मिलती है। जो कुछ और अच्छा-अच्छा बनता है, वो बाकी सब या तो खुद खा जाता है या ग्राहक...। मेरा पेट भरता ही नहीं।"

"मेरी अम्मा, कम से कम तुम तो मुझे भरपेट खाने को देती थी। मुझे जल्दी यहाँ से ले जाओ। चार बजे नहीं उठा जाता है...और विशवा की टांगों में बड़ा दर्द रहता है। तुम विशवा को नहीं जानती अम्मा। वह भी यहाँ काम करता है, पर उसकी अम्मा तुम्हारी तरह अच्छी नहीं है। वे इसी मालिक की तरह निर्दयी है, तभी तो वह मेरे कहने पर भी उन्हें चिट्ठी नहीं लिखता। मैं तुम्हारे साथ चलते समय विशवा को भी साथ ले चलूँगा, वह बहुत अच्छा है। तुम्हारा बहुत ख्याल रखेगा...तुम्हारे सारे काम कर देगा।"

उसने भीगी हुई आँखों से विशवा को देखा और फिर लिखने लगा, "अम्मा, अगर तुम मुझे वापस न ले जाना चाहो, तो यहीं आ जाओ। तुम्हारे आने से मालिक डर के मारे मुझे नहीं मारेगा। फिर यहाँ तुम्हारे लिए भी ढेरों काम है, हम दोनों मिलकर किसी अच्छी जगह काम कर लेंगे। खूब पैसे मिलेंगे।"

उसने अम्मा को बम्बई बुलाने की गरज से प्रलोभन देते हुए लिखा, "जानती हो अम्मा यहाँ बहुत बड़ा समुद्र है, जिसमें मेमसाहब लोग नहाती हैं। खाने को भी खूब बढ़िया-बढ़िया चीजें हैं। जब तुम रेलगाड़ी से आओगी न तब बीच में खूब अंधेरी गुफा पड़ेगी। डरना नहीं अम्मा, बस आँखें बन्द कर लेना। थोड़ी देर बाद गुफा खतम होते ही उजाला हो जायेगा । सच अम्मा, जब गुफा के अन्दर से गाड़ी गुजरी थी तब मुझे भी बहुत डर लगा था, पर तुम तो बड़ी हो...डरना नही...।"

"अगर बापू सुधर गये हों तो उन्हें भी साथ ले आना। आओगी न अम्मा? जल्दी आना नहीं तो तुम्हारा गिल्लू एक दिन तुम्हे देखे बिना ही मर जाएगा। मैं तुम्हारा इंतजार करूँगा...और मैं अपना पता भी लिख रहा हूँ। किसी से भी चौपाटी का रास्ता पूछ लेना। यहाँ समुद्र से थोड़ा हटकर छोटा सा ढाबा है, मैं उसी में काम करता हूँ। सच्ची अम्मा, तुम्हें देखकर मैं और विशवा दोनों ही बहुत खुश होंगे।"

चिट्ठी लिखकर उसने कागज तह करके अपने फटे पैंट की जेब में सावधानीपूर्वक रख लिया। कल किसी दयालू ग्राहक से कहेगा कि वह इसे लिफाफे में रख कर डाक में डाल दे। थोड़ी देर अम्मा के आने के बारे में सोचकर वह खुश होता रहा, फिर विशवा के पास सरक कर लेट गया।

आज भी उसकी आँखों के आगे अनन्त आकाश पसरा था, पर यह आकाश उसके उस आकाश से भिन्न था जिसे उसने इंद्रधनुषी रंग में डूबा देखा था। रंग न होने पर भी आकाश उसे बुरा नहीं लगा, क्योंकि इस समय आकाश की छाती पर तपता हुआ सूरज नहीं था, बल्कि ये अनगिनत लकदक करते तारे थे, जो आँखों को शीतलता दे रहे थे।

आकाश को अपलक निहारते हुए कब नींद आ गई, उसे नहीं पता। नींद में उसने बहुत ही प्यारा सपना देखा कि उसकी चिट्ठी पढ़कर अम्मा बम्बई आ गई हैं और वह अम्मा की गोद में सिर रखकर सो रहा है। अम्मा प्यार से उसके बाल सहला रही है। 

पता नहीं कब टॉमी नींद में बेसुध गिल्लू का गाल चाटने लगा था।

-०-


Tuesday, September 17, 2019

कविता - रोटी




                  औरत
                  गीली-धुआँती लकड़ियों को
                  बार-बार
                  फुँकनी से फूँक मार कर
                  जलाने का प्रयास करती है
                  पर लकड़ियाँ हैं कि
                  ज़िद्दी आदमी की तरह
                  अड़ी हुई हैं
                  अपनी
                  न जलने की ज़िद पर
                  सवा नौ बज चुके हैं
                  आदमी
                  बस छूटने की आशंका में
                  चीख रहा है
                  लड़कियों पर-
                  और लड़कियाँ
                  सड़क के किनारे बने गढ्ढों में
                  जमा हो गए पानी में
                  काग़ज़ की नाव चलाने के
                  निरर्थक प्रयास में जुटी हुई हैं
                  उन्हें नहीं पता कि-
                  ठहरे हुए पानी में
                  नाव नहीं चलती
                  और पूरी तरह गीली लकड़ी भी
                  बार-बार फूँक मारने पर नहीं जलती
                  पर
                  किसी को फ़र्क नहीं पडता
                  आदमी को
                  रोटी कमाने के लिए जाना है
                  लड़कियों को किसी भी तरह
                  नाव चलानी है-
                  और इन सब खेलॊं के बीच
                  रोटी ज़रूरी है
                  सबके लिए
                  पर,
                  रोटी सिर्फ़ औरत पकाएगी
                  चुन्नू-मुन्नू को भी रोटी चाहिए
                  स्कूल के प्लेग्राउंड में
                  खेल-खेल कर खाली हुए पेट को
                  रोटी चाहिए
                  स्कूल से आते ही
                  वे चीखेंगे
                  रोटी के लिए
                  पर,
                  रोटी बने तो कैसे
                  लकड़ियाँ  पूरी तरह गीली हैं
                  उसके गीलेपन से
                  किसी को कुछ लेना-देना नहीं
                  सभी को बस रोटी चाहिए
                  इसीलिए
                  अपनी आँखों के गीलेपन की
                  परवाह न करते हुए
                  औरत जुटी है
                  किसी भी तरह
                  गीली लकड़ियों को जलाकर
                  रोटी पकाने में...
                 -प्रेम गुप्ता ‘मानी’

(चित्र- गूगल से साभार )