विशेष- यह मेरी पहली कहानी है, जो मैंने अस्सी के दशक में बस ऐसे ही लिख दी...पर जब यह उस समय की स्थापित और प्रतिष्ठित पत्रिका 'अवकाश' में छप भी गई और इस पर कई नामचीन साहित्यकारों और सुधि पाठकों की उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रियाएँ मिली, तब जाकर मुझे लगा, लेखन को सच में गंभीरता से लेने का वक़्त आ गया है ।
तब से कभी रुकते, कभी चलते...ज़िन्दगी के तमाम उतार-चढ़ाव को पार करते हुए मेरी लेखन यात्रा भी चल ही रही।
ये कहानी उन तमाम सपनीली आँखों के लिए, जिनकी रात बहुत लम्बी हो गई...।
कहानी
गिल्लू
प्रेम गुप्ता ‘मानी’
सोलहवां साल यानी सोलह बसंत...यह उम्र कितनी मायावी है, उसे उम्र के इसी विशेष दौर में पहुँचकर या गुजरते हुए जाना सकता है। छलावे से भरी हुई इस उम्र में दुनिया बड़ी हसीन और रंगीन लगती है, ठीक उस इन्द्रधनुष की तरह जो वर्षा की हल्की फुहार के बाद अचानक अनन्त आकाश के नीले विस्तार में धनुषाकार आकृति लिए टंकित हो जाता है।
इन्द्रधनुष मायावी होता है। क्षणिक सुख की अनुभूति कराने वाला.... शोख एवं चटक रंगों का मायाजाल। इन्द्रधनुषी रंगों को अपने जीवन में उतार लेने को जी चाहता है, लेकिन वे रंग अधिक देर ठहर कहाँ पाते हैं? तपते हुए सूरज की तेज आँच से पिघलने लगता है इन्द्रधनुष...रह जाता है अनन्त आकाश की छाती पर तपता सूरज और फिर दूर- दूर तक फैला नीला विस्तार या फिर शून्य...। शून्य में भटकते हाथ, सूरज के ताप से पिघलता तन, चौंधियाती आँखें...।
गिल्लू भी उम्र के इसी विशेष दौर से गुजर रहा था, जब इन्द्रधनुषी रंगों को अपने जीवन में उतार लेने को आतुर हो वह अपने कुछ अमीर किन्तु बिगड़े हुए दोस्तों के साथ बम्बई भाग आया था। जैसे इन्द्रधनुष अधिक देर नीले विस्तार में नहीं ठहरते, उसी तरह गिल्लू के सपने भी अधिक देर ठहर नहीं सके और जब नंगी आँखों से उसने दुनिया को बहुत करीब देखा तो पाया इन्द्रधनुषी रंग दूर से देखने में तो हसीन एवं शोख लगते हैं, पर उन्हें अपने जीवन में भरने की इच्छा से अनन्त आकाश में छलांग लगाकर धरती की कंकरीली-पथरीली जमीन पर गिरकर चोट ही खायी जा सकती है। गिल्लू ने भी चोट खाई। इन्द्रधनुषी रंगों को अपने जीवन में उतारने की चेष्टा में वह सूरज के ताप से अपने को झुलसा बैठा और तब सहसा आकाश उसे बहुत छोटा लगने लगा और धरती बड़ी इतनी बड़ी कि टूढने पर भी उसे कोई अपना नजर नहीं आ रहा था।
मजबूरी की हालत में एक छोटे से ढाबे में जूठे बरतन धोते हुए गिल्लू को अब भी इन्द्रधनुषी रंग याद आते हैं और याद आता है अपना वह छोटा-सा घर, जो अनन्त आकाश की तरह विस्तृत तो नहीं था, पर इतना छोटा भी नहीं था कि उसमें इन्द्रधनुषी रंगों को भरा न जा सके।
पर गिल्लू तो घर में नहीं सिर्फ अपने जीवन में इन्द्रधनुषी रगों को भरना चाहता था, तभी तो जल्दबाजी में अनन्त आकाश की ऊँचाइयों को छूने की चेष्टा में धरती पर गिरकर अपने तन को ही नहीं बल्कि मन को भी चुटीला कर बैठा।
चोट लगते ही उसे माँ की याद आई और याद आते ही वह उन्हें चिट्ठी लिखने की इच्छा से अपने को रोक नहीं पाया। पर चिट्ठी लिखे कैसे? इतनी बड़ी धरती में उसे कोई भी एकांत कोना नजर नहीं आ रहा था जहाँ छिपकर वह कागज पर अपनी व्यथा को उतार सके।
ढाबे में साथ काम करने वाले उसके अन्य साथी भी शायद उसी की तरह दुखी हैं, किन्तु गिल्लू की माँ की तरह कोई उसका दुःख-दर्द समझने वाला नहीं है या शायद किसी से अपना दुःख कहने का उनमें ही साहस नहीं है।
घड़ी की सुई पूरे ग्यारह बजा रही थी। सारा काम खतम कर गिल्लू ने अपने मालिक का बिस्तर लगाया और फिर आज्ञा लेकर धीरे-धीरे चलता हुआ फुटपाथ पर आ गया, सोने के लिए। उसके अन्य साथी पहले से ही वहाँ पसरे हुए थे। कुछ सो गए थे, कुछ जाग रहे थे।
गिल्लू भी एक किनारे जाकर बैठ गया। बैठते ही उसके बदन में बड़े जोरों का दर्द हुआ और उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसे उस समय माँ की बेहद याद आ रही थी। माँ की याद आते ही उसकी सिसकी निकल गई, पर उसकी सिसकी की आवाज समुद्री लहरों के शोर में दब गयी, वरना थोड़ी ही दूर पर लेटा विशवा उठकर जरूर उसके रोने का कारण पूछता।
बचपन में विशवा फिल्म में काम पाने के लालच में बम्बई भाग आया था। और अब, जबकि उसके होठों के ऊपर मूँछों की रेखायें भी हल्की गहरी हो चली है, फिल्म में काम पाने की कौन कहे, फिल्म देखने को भी वह तरस गया है।
गिल्लू की तरह वह पढ़ा-लिखा भी नहीं हैं कि घर में किसी को चिट्ठी डालकर बुला ले या शायद वह घर जाना ही नहीं चाहता क्योंकि गिल्लू की माँ की तरह उसकी माँ सगी नहीं है। एक बार विशवा ने यह सब गिल्लू को बताया था तो गिल्लू को उस पर बहुत दया आई थी और उसने मन ही मन सोचा था कि जब वह अपने घर जाएगा तो विशवा को भी साथ ले जायेगा। उसकी अम्मा बहुत अच्छी है। वह विशवा को भी उतना ही प्यार देंगी, जितना उसे देती हैं।
उसने एक नजर विशवा की ओर डाली। वह हाथ-पाँव पसारे इस तरह खर्राटे भर रह था, जैसे उसे कोई दुःख ही न हो। विशवा की बगल में टॉमी भी सोया था, अपनी पूँछ और सिर को शरीर के भीतर गड़ाए हुए। रह-रह कर पता नहीं क्यों टॉमी का शरीर काँप उठता ।
इसी टॉमी को सभी दुत्कारते हैं, पर एक विशवा ही है जो उसे दुलारता है। खाने को चुपके से रोटी दे देता है, तभी तो टॉमी विशवा को देखते हो पूँछ हिलाने लगता है। उसकी समझ में नहीं आता कि जब टॉमी किसी का कुछ बिगाड़ता नहीं, फिर क्यों लोग उसे दुत्कारते हैं?
उसने टॉमी की ओर से ध्यान हटाकर सहमी हुई आँखों से ढाबे की ओर ताका जहाँ उसका मालिक, जिसका रंग तवे सा काला था और जिस के थुलथुले शरीर की बड़ी सी तोंद हमेशा उसके चलने-फिरने से हिलती रहती थी, खर्राटे भर रहा था। उसके खर्राटे की आवाज उसे साफ सुनाई दे रही थी। खर्राटे भरने से मालिक की मोटी तोंद फूल-पिचक रही थी।
उसका जी चाहा कि जाकर उस फूली तोंद को हमेशा के लिए पिचका दे, पर सोचते ही वह सहम गया। उसे आज सुबह की मार याद आ गयी जब उसके मालिक ने पुलाव की चोरी करने पर उसे बुरी तरह पीटा था।
याद आते ही उसका दर्द उभर आया और वह अनजाने में अपनी चोटों को सहलाने लगा। उसके मुख से कराह निकल गई तो पास लेटे रघुवा ने उसकी ओर करवट बदलते हुए पूछा, "क्या चोट दर्द कर रही है?"
"हाँ", उसने क्षीण आवाज में उत्तर दिया।
"तो ऐसा काम ही क्यों करता है। जो मालिक देता है वही चुपचाप खा क्यों नहीं लेता?" रघुवा ने उसे समझाते हुए कहा तो वह चुप ही रहा। वह जानता था कि अगर बोलेगा तो मुँह से अंट-शंट निकल ही जाएगा और इस रघुआ को तो खूब अच्छी तरह जानता है, बड़ा चुगलखोर है। मुँह पर मीठी-मीठी बातें करेगा और पीठ पीछे मालिक से सब कुछ कह देगा।
उसे चुप देखकर रघुआ ही फिर बोला “तू इतनी रात को बैठा क्यों है?”
"तुझसे मतलब?" वह झुंझला उठा ।
"चल, जा सो जा। सुबह चार बजे उठ नहीं पाएगा तो फिर मालिक की लात खाएगा।"
"तू क्यों नहीं सो जाता। तुझे भी तो चार बजे उठना है?" अब उसे रघुआ पर बहुत जोरों का गुस्सा आ रहा था। अगर यह जागता रहा तो वह अम्मा को चिट्ठी कैसे लिख पायेगा? कहीं रघुआ ने देख लिया तो मालिक से कह देगा।
उसने एक बार सहमी हुई आँखों से ढाबे की ओर देखा, फिर रघुआ के दिखाने के लिए लेट गया। वह पलकें बन्द करके सोने का बहाना करते हुए रघुआ के सोने का इन्तजार करने लगा।
चारों तरफ चाँदनी छिटकी पड़ी थी। लहरों का शोर रह-रहकर उसके कानों से टकरा रहा था। चित्त लेटा हुआ वह आकाश को अपलक निहार रहा था। विस्तृत दूर-दूर तक फैला आकाश, ढेर सारे छिटके तारे, यह सब उसने कभी भी इतनी गहराई से नहीं देखा था या शायद देखने-समझने की उमर नहीं थी और जब उमर हुई, तब इन्हीं सबको पास से देखने की ललक में वह अपने को बर्बाद कर बैठा ।
रघुआ के खर्राटे की आवाज जब उसके कानों से टकराई तब वह बिना आहट किए हुए धीरे से उठा और बिजली के खम्भे के पास घिसटकर सरक गया। बैठने के बाद उसने सावधानी के तौर पर एक बार फिर रघु एवं अन्य साथियों की ओर देखा, फिर इत्मीनान से पालथी मारकर बैठ गया।
उसने अपनी फटी पैंट की जेब से मुड़ा-तुड़ा कागज और पेन्सिल, जो उसने उसी शाम काउंटर पर से उठा लिया था, निकाला और एक मोटी दफ्ती के ऊपर कागज फैलाकर लिखने की कोशिश करने लगा, पर पता नहीं क्यों पहला वाक्य लिखते ही उसकी उंगलियाँ काँप उठी और आँखें भर आईं। पल भर उसी स्थिति में रहने के बाद उसने अपनी फटी कमीज की बाँह से आँखें पोछी और फिर माँ को पत्र लिखने लगा-
"प्यारी अम्मा, मैं जानता हूँ तुम मुझसे बहुत गुस्सा होगी, फिर भी मैं तुम्हें चिट्ठी लिख रहा हूँ क्योंकि इसके सिवा अब मेरे पास और कोई जरिया नहीं है तुम तक पहुँचने का।"
इतना लिखने के बाद वह दो मिनट के लिए रुका और फिर इस तरह उसाँस भरी जैसे वह बहुत दूर से दौड़कर आया हो और उसकी साँस फूल रही हो, जिसपर वह काबू पाने की चेष्टा कर रहा हो। थोड़ी देर बाद उसने फिर लिखना शुरू किया "अम्मा, मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है, मैं सच कहता हूँ। मैं जानता हूँ मेरे घर से भागने पर तुम बहुत रोई होगी, बापू से मुझे ढूँढने के लिए कहते समय खूब गिड़गिड़ाई होगी, पर बापू ने तुम्हें झिड़क दिया होगा। एक बार मुझे यहाँ से ले जाओ तो फिर कभी ऐसा खराब काम नहीं करूँगा...कसम खाता हूँ अम्मा। मैं बहुत दुखी हूँ, मेरा मालिक मुझे बहुत मारता है, ठीक उसी तरह जैसे बापू तुम्हें मारते हैं।"
बापू की याद आते ही उसका मन घृणा से भर गया। उसे हमेशा आश्चर्य होता रहा है कि दुबला-पतला, मरियल-सा होने के बावजूद उसका बापू अम्मा को मारते वक्त गजब का फूर्तीला कैसे बन जाता था...? या शायद अम्मा ही कमजोर थी, वह कभी समझ नहीं पाया। उसे यह भी कभी समझ में नहीं आया कि अम्मा की चीख-चिल्लाहटों के बावजूद कोई उन्हें बचाने क्यों नहीं आता था? फिर वह भी कहाँ बचा पाता था? बापू के हाथ में मोटा डंडा देख कर उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती और तब वह खटिया के नीचे दुबक जाता और फिर तब तक बाहर नहीं निकलता, जब तक बापू अम्मा को पीट-पीटकर गुस्से में कहीं चला न जाता। बापू के जाते ही वह अम्मा की चोटों को सहलाता हुआ खुद भी सुबक-सुबक कर रो पड़ता।
कभी-कभी उसे अम्मा पर भी बेहद गुस्सा आता। क्यों सहती है बापू की मार? कई बार उसने गुस्से में अम्मा से कहा भी कि...चलो अम्मा, बापू को छोड़कर कहीं और चल कर रहें। सुनते ही अम्मा मरियल-सी सूखी हँसी हँसकर उसकी पीठ पर प्यार भरा धौल जमाते हुए कहती, 'धत् पगले, ऐसा नहीं कहते। फिर तू घबराता क्यों है? जब तू राजाबाबू बन जाएगा, तब मेरे सारे दुख दूर हो जाएँगे।'
याद आते ही उसकी आँखें भर आयीं। दो बूंद आँसू कागज पर चू पड़े, जिसे उसने अपनी मैली कमीज से पोंछ दिया। अम्मा को कैसे लिखे कि अम्मा, जिसे तुम राजाबाबू बनाने का सपना देख रही थी वह आज एक छोटे-से ढाबे में जूठे बरतन धोता है, मालिक की मार खाता है और बचा-खुचा खाकर कुत्ते की तरह सो जाता है।
उसका जी चाहा कि अपना गला दबाकर मर जाये, पर मर कहाँ पाता है। अभी पिछले ही हफ्ते जब उसके मालिक ने बुरी तरह धुनाई की थी तब भी तो उसने लोकल ट्रेन के नीचे आकर मरने की सोची थी, पर दूसरे ही क्षण उसे उस आदमी का क्षत-विक्षत शरीर याद आ गया था जो किसी बस के नीचे आकर बुरी तरह कुचल गया था और जिसे देखकर दहशत से भरकर उसने अम्मा के आँचल में मुँह छिपा लिया था।
फिर उसके मरने से अम्मा कितना रोयेंगी। कितनी अच्छी है उसकी अम्मा। खुद रूखी-सूखी खाकर भी उसे अच्छा खिलाती-पहनाती थी। उसे अच्छे स्कूल में पढ़ाने के लिए ही तो दिन-रात दूसरों के कपड़े धोकर पैसे कमाती थी। कितना दुःख सहती थी उसकी खातिर और एक वह था, नालायक, जो भागते समय माँ की ममता भी भूल गया था और यह भी भूल गया था कि उसके बड़ा आदमी बनने की आशा में ही अम्मा जी रही है। वहाँ से चलते समय रमेश ने उससे कहा था, "जानता है गिल्लू, बम्बई में इतनी ऊँची इमारते हैं कि सिर उठाकर देखो, तो गरदन दुखने लगती है...और भी ढेर सारी चीजें हैं वहाँ देखने को।"
"और फिल्म की हिरोइनें भी," उसने रमेश की बात पूरी कर दी थी। सुन भी रखा था कि बम्बई में फिल्म की हीरोइनें यूँ ही सड़कों पर घूमती हैं और उनसे कोई भी मिल सकता है। सोचकर ही उसका मन पुलक से भर उठा था, पर उस समय उसे क्या पता था कि यहाँ पत्थर की इतनी बड़ी-बड़ी इमारतों के अलावा पत्थर के इंसान भी बसते हैं, जो उस जैसे असहाय लड़कों को अपनी मुट्ठी में इस तरह जकड़ लेते हैं कि वे साँस लेने को भी तड़फड़ा उठे।
अचानक वह चिहुँक उठा। पता नहीं कब टॉमी उसके पास आकर उसका पैर चाटने लगा था। वह उसकी पीठ सहलाने लगा। बेचारा किसी का कुछ नहीं बिगाड़ता, फिर भी सभी दुत्कारते रहते हैं। टॉमी की पीठ सहलाते हुए उसने सोचा...पर क्या उसकी भी जिन्दगी इसी टॉमी की तरह बदतर नहीं हो गयी है? दिन भर कमरतोड़ मेहनत करता है, फिर भी मालिक की मार खाता है। लेकिन क्या ऐसी जिन्दगी जीने के लिए वह स्वयं जिम्मेदार नहीं है? उसे क्या पता था कि यहाँ उसे मौज उड़ाने के बदले इतने कष्टों का सामना करना पड़ेगा। वह तो यहाँ सिर्फ घूमकर लौट जाने के लिए आया था, पर यहाँ आते ही सब रुपये खर्च हो गए। जो किराये के बचाए थे वह भी एक दादानुमा आदमी ने मारकर छीन लिए। बाकी दोस्त कहाँ गए, उसे नहीं पता। वह तो लोकल ट्रेन की भीड़ में ही उनसे बिछुड़ गया था और फिर तीन दिन भूखे रहने के बाद उसे इस ढाबे में जूठे बरतन धोने को मजबूर होना पड़ा था।
यद्यपि उसने अपने घर में कभी भी एक गिलास तक नहीं धोया था, फिर भी उसे संतोष था कि जैसे ही पहली तनख्वाह मिलेगी, वह घर लौट जायेगा और यही सोचकर उसने मालिक को अपनी पूरी कहानी ही नहीं, वरन वापस घर जाने की योजना भी बता दिया। सुनकर मालिक ने हुँकार भरी थी और फिर उसके बाद वह तनख्वाह मिलने का इंतजार ही करता रह गया।
एक बार जब उसने साहस करके मालिक से पैसा माँगा तो तुरंत वह उसका कान उमेंठता हुआ बोला, “यह तू जो इतना ढेर सारा खाता है, उसके पैसे क्या तेरा बाप देता है?” सुनकर वह सहम गया था और फिर उसकी हिम्मत नहीं हुई थी कि मालिक से पूछे कि सुबह-शाम दो सूखी रोटी खा लेने को ही ढेर सा खाना कहते हैं?
उसने कई बार भागने की भी सोची, पर हर बार उसे विशवा की टूटी टांग याद आ जाती। विशवा ने ही उसे बताया था कि मालिक बड़ा निर्दयी है और वह काफी दूर तक निगाह रखता है। अन्दर की बात तो यह है कि शायद छुपे रूप से अपराध की दुनिया में भी बहुत पैठ रखता है। तब यह बात विशवा को नहीं पता थी, तभी तो वह भागने की हिम्मत कर बैठा था। परिणामस्वरूप उसकी टांगें तोड़ दी गयी थी। सुनकर वह बुरी तरह काँप उठा था।
विशवा नींद में पता नहीं क्या बड़बड़ा रहा था। उसने एक निगाह रघुआ पर डाली, वह भी बेसुध सो रहा था। थोड़ी देर वह आकाश को निहारता रहा फिर गहरी साँस लेकर लिखने लगा, पर लिखने से पहले उसने एक बार फिर ढाबे की ओर ताका। करवट बदल कर सोया हुआ मालिक उसे किसी दैत्याकार काले पहाड़ की तरह लगा। घृणा से उसने पिच्च से थूक दिया और फिर लिखने लगा-
"अम्मा, इस समय जब मैं तुम्हें चिट्ठी लिख रहा हूँ, पता नहीं क्या बजा है। शायद रात काफी बीत गई है और तुम भी सो गई होगी या शायद अपनी चोटों को सेंक रही होगी। मुझे यहाँ से किसी तरह आकर ले जाओ अम्मा। मैं सच कहता हूँ, अब मैं तुम्हारी सारी बात मानूँगा और पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनूँगा, ताकि तुम सुख से रह सको। अब मैं बापू को भी तुम्हें मारने नहीं दूँगा। अगर बापू फिर भी नहीं मानेंगे तो मैं तुम्हें कहीं और ले जाऊंगा।"
उसके मुँह से सिसकी निकली, पर उसने होठों में ही दबा लिया और फिर लिखने लगा, "अम्मा, इस समय मुझे बहुत सुबह-शाम मालिक सिर्फ दो रोटी देता है। हफ्ते में एक दिन कटोरी भर दाल मिलती है। जो कुछ और अच्छा-अच्छा बनता है, वो बाकी सब या तो खुद खा जाता है या ग्राहक...। मेरा पेट भरता ही नहीं।"
"मेरी अम्मा, कम से कम तुम तो मुझे भरपेट खाने को देती थी। मुझे जल्दी यहाँ से ले जाओ। चार बजे नहीं उठा जाता है...और विशवा की टांगों में बड़ा दर्द रहता है। तुम विशवा को नहीं जानती अम्मा। वह भी यहाँ काम करता है, पर उसकी अम्मा तुम्हारी तरह अच्छी नहीं है। वे इसी मालिक की तरह निर्दयी है, तभी तो वह मेरे कहने पर भी उन्हें चिट्ठी नहीं लिखता। मैं तुम्हारे साथ चलते समय विशवा को भी साथ ले चलूँगा, वह बहुत अच्छा है। तुम्हारा बहुत ख्याल रखेगा...तुम्हारे सारे काम कर देगा।"
उसने भीगी हुई आँखों से विशवा को देखा और फिर लिखने लगा, "अम्मा, अगर तुम मुझे वापस न ले जाना चाहो, तो यहीं आ जाओ। तुम्हारे आने से मालिक डर के मारे मुझे नहीं मारेगा। फिर यहाँ तुम्हारे लिए भी ढेरों काम है, हम दोनों मिलकर किसी अच्छी जगह काम कर लेंगे। खूब पैसे मिलेंगे।"
उसने अम्मा को बम्बई बुलाने की गरज से प्रलोभन देते हुए लिखा, "जानती हो अम्मा यहाँ बहुत बड़ा समुद्र है, जिसमें मेमसाहब लोग नहाती हैं। खाने को भी खूब बढ़िया-बढ़िया चीजें हैं। जब तुम रेलगाड़ी से आओगी न तब बीच में खूब अंधेरी गुफा पड़ेगी। डरना नहीं अम्मा, बस आँखें बन्द कर लेना। थोड़ी देर बाद गुफा खतम होते ही उजाला हो जायेगा । सच अम्मा, जब गुफा के अन्दर से गाड़ी गुजरी थी तब मुझे भी बहुत डर लगा था, पर तुम तो बड़ी हो...डरना नही...।"
"अगर बापू सुधर गये हों तो उन्हें भी साथ ले आना। आओगी न अम्मा? जल्दी आना नहीं तो तुम्हारा गिल्लू एक दिन तुम्हे देखे बिना ही मर जाएगा। मैं तुम्हारा इंतजार करूँगा...और मैं अपना पता भी लिख रहा हूँ। किसी से भी चौपाटी का रास्ता पूछ लेना। यहाँ समुद्र से थोड़ा हटकर छोटा सा ढाबा है, मैं उसी में काम करता हूँ। सच्ची अम्मा, तुम्हें देखकर मैं और विशवा दोनों ही बहुत खुश होंगे।"
चिट्ठी लिखकर उसने कागज तह करके अपने फटे पैंट की जेब में सावधानीपूर्वक रख लिया। कल किसी दयालू ग्राहक से कहेगा कि वह इसे लिफाफे में रख कर डाक में डाल दे। थोड़ी देर अम्मा के आने के बारे में सोचकर वह खुश होता रहा, फिर विशवा के पास सरक कर लेट गया।
आज भी उसकी आँखों के आगे अनन्त आकाश पसरा था, पर यह आकाश उसके उस आकाश से भिन्न था जिसे उसने इंद्रधनुषी रंग में डूबा देखा था। रंग न होने पर भी आकाश उसे बुरा नहीं लगा, क्योंकि इस समय आकाश की छाती पर तपता हुआ सूरज नहीं था, बल्कि ये अनगिनत लकदक करते तारे थे, जो आँखों को शीतलता दे रहे थे।
आकाश को अपलक निहारते हुए कब नींद आ गई, उसे नहीं पता। नींद में उसने बहुत ही प्यारा सपना देखा कि उसकी चिट्ठी पढ़कर अम्मा बम्बई आ गई हैं और वह अम्मा की गोद में सिर रखकर सो रहा है। अम्मा प्यार से उसके बाल सहला रही है।
पता नहीं कब टॉमी नींद में बेसुध गिल्लू का गाल चाटने लगा था।
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