बच्चे, चाहे कितने ही बड़े क्यों न हो जाएँ, उन्हें हमेशा यही कहा जाता है कि अपने बड़ों की
बात सुनो...खास तौर से माता-पिता की...। पर बावजूद इसके वे इस बात को महत्व नहीं
देते। उन्हें लगता है कि वे जो कुछ कर रहे हैं, सही
कर रहे हैं। माता-पिता तो बेवजह उन पर पाबन्दी लगाते रहते हैं। वे उनकी ऐसी
टोका-टाकी से अक्सर विद्रोही भी हो जाते हैं, पर
यह एटीट्यूड उनको कितना भारी पड़ सकता है, इसका
मुझे गहरा अनुभव हुआ है।
नवीं
क्लास ही पास की थी कि शादी हो गई। माँ अक्सर कहती थी कि देर-सबेर न घूमना, पर उम्र का ही तकाज़ा था कि माँ की बात एक कान
से सुनती, दूसरे से निकाल देती। टी.वी-कम्प्यूटर
जैसी चीज़ें तो हुआ नहीं करती थी तब, सो
जब दिल बहुत ऊब जाता तो फ़िल्में ही एकमात्र मनोरंजन का साधन होता था। देखने का
प्रोग्राम बनता भी तो ज़्यादातर शाम के समय का, क्योंकि
खाना खाकर निकलने के कारण मन में ये निश्चिन्तता रहती थी कि घर लौटकर खाना नहीं
बनाना।
उस
दिन शायद शनिवार था। खाना-पीना करके जिस फ़िल्म का प्रोग्राम बना वो घर से करीबन सात-आठ
किलोमीटर दूर के सिनेमाहॉल में लगी थी। नौ बजते-बजते फ़िल्म ख़त्म होने पर जब हम लोग
बाहर आकर बस स्टॉप पहुँचे तो पता चला अचानक बसों की हड़ताल हो गई है...। थोड़ी देर
पहले एक बस ड्राइवर को किसी ने बुरी तरह पीट दिया था, उसके विरोध में सारे बस-ड्राइवर हड़ताल पर चले
गए थे। हार कर हम दूसरी सवारी का इंतज़ार करने लगे। अचानक हुई इस अफ़रा-तफ़री की वजह
से लगभग सभी सवारियाँ भरी जा रही थी। जाड़े की शाम जल्दी ही सुनसान सी रात में
तब्दील होने लगी थी। घड़ी की सुई ग्यारह की ओर बढ़ रही थी और साथ ही मन की घबराहट
भी...। अभी कुछ सोच पाते कि अचानक एक गाड़ी आकर सामने रुकी। ड्राइविंग सीट पर बैठा
आदमी उतर कर हमारे पास आया, "आइए, घर
छोड़ दें आप लोगों को...। मेरा मकान भी लाजपत नगर में है...आज शादी से लौट रहे थे
तो देखा आप लोग खड़े हैं...। आप शायद मुझे नहीं पहचान रहे, पर मैं वहीं रहता हूँ, आप लोगों को अच्छी तरह पहचानता हूँ...।"
मैंने हल्के से गाड़ी में झाँका तो पीछे की सीट पर दो पुरुष और ड्राइविंग सीट के
बगल वाली सीट पर एक महिला बैठी थी। उनकी बात सुनकर बिना सोचे-समझे गुप्ता जी गाड़ी
में बैठने चले ही कि जाने कैसे मेरी छठी इन्द्रिय सक्रिय हो उठी। जाने क्यों वो
लोग एक महिला के साथ होने के बावजूद मुझे कुछ ठीक नहीं लगे। सामने निगाह गई तो
एकलौती पान की दुकान खुली दिखी, जहाँ
हमारे ही हमउम्र चार-पाँच लड़के खड़े पान-सिगरेट लेकर आपस में बतिया रहे थे। मुझे
कुछ नहीं सूझा...बस तेज़ी से मैं उस ओर बढ़ गई और उनके पास पहुँच कर अचानक आकर रुक
गई उस गाड़ी के बारे में बताने लगी। वे युवक जैसे ही मुड़े, गाड़ीवाला वापस बैठा और कार ये जा, वो जा...। उसी इलाके के उन युवकों और पानवाले
ने भी कार को पहचान लिया था। उन्होने तब बताया कि वो गाड़ी थोड़ी संदिग्ध है, और इलाके वाले उन लोगों से सतर्क ही रहते हैं।
आज शायद हम लोग किसी मुसीबत में फँसने से बाल-बाल बचे हैं...। सुनकर मेरे प्राण
हलक में अटक गए। समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ...कैसे सुरक्षित घर पहुँचू...? सुरक्षा के लिए किस पर विश्वास करूँ...? पानवाले पर या इन लड़कों पर...?
मोबाइल
का तो उस ज़माने में कोई सवाल ही नहीं था, फोन
भी हर जगह हों, ज़रूरी नहीं था। सो घर से भी किसी को
नहीं बुला सकती थी। मन में यह पक्का विश्वास हो गया था कि अगर वो कारवाले ग़लत न
होते तो भागते क्यों...? खैर, ईश्वर का नाम लेकर मैंने उन लड़कों पर ही विश्वास किया। हमें वहीं रोक
कर दो-तीन युवक आसपास आगे बढ़ गए और आखिरकार न केवल एक रिक्शा ही तय कर लाए, बल्कि काफ़ी दूर, एक सुरक्षित जगह तक स्कूटर पर रिक्शे के साथ भी आए और हम लोग की
सुरक्षा के लिए पूरी तौर से आश्वस्त होने के बाद ही वापस गए।
उस
दिन की तरह मैं आज भी अक्सर ये सोचती हूँ कि इस दुनिया में जहाँ कुछ बहुत गन्दे
लोग हैं वहीं उन अनजान युवकों की तरह कुछ बहुत अच्छे और भले लोग भी मिलते हैं। पर
इन सारी बातों से इतर मैं अक्सर इस बात के लिए पछताती रही...कुछ डरती भी रही कि
अपनी माँ की बात न मानने के कारण अगर उस दिन मैं उन ख़तरनाक लोगों के चँगुल में फँस
ही जाती तो क्या होता...?
-प्रेम गुप्ता ‘मानी’
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