Thursday, August 15, 2024

बत्तीसी पुराण

 प्रतिष्ठित पत्रिका 'उदन्ती' के अगस्त 2024 में प्रकाशित मेरा हास्य-व्यंग्य- बत्तीसी पुराण- आप सबके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है। आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी। 


हास्य व्यंग्य

                           बत्तीसी पुराण

                                                 प्रेम गुप्ता ‘मानी’                                                      


बरसों पहले किसी ने उन्हें बताया था कि हँसते रहने से आदमी की सेहत अच्छी रहती है। बस्स, उसी दिन से उन्होंने अपनी सेहत की खातिर इस बात को गाँठ बाँध लिया। जीवन में दुःख होता या सुख, वे बस हँसते रहते थे और हर वक़्त हँसते रहने के कारण उनकी सेहत तो अच्छी हो गई, पर वे एक मुसीबत में पड़ गए। उन्हें हर वक़्त हँसते रहने का इतना अभ्यास हो गया था कि चाहकर भी उनकी बत्तीसी भीतर जाती ही नहीं थी।

 


         

हर समय मुँह खोलकर बत्तीसी झलकाने के कारण टाइम-बेटाइम उन्हें लोगों की लताड़ पड़ चुकी थी पर वे थे कि आदत से मजबूर...मुँह खोलकर हँसते रहते...। लताड़ देने वाला भी हारकर हँस देता, "यार...तुम्हारे जैसे बेहया आदमी नहीं देखा...।"

           

‘बेहया’ शब्द अपने लिए सुनकर उन्हें ठेस लगती। वे जबरिया अपना मुँह बन्द कर लेते, पर दूसरे ही क्षण बत्तीसी अपने आप ही झलक जाती...होंठ फैल जाते...। देखकर लगता, जैसे हँस रहे हों। सामने वाला गुस्से में आगे बढ़ जाता, "अरे, कुछ तो शर्म करो...।"

            

अपनी इस आदत से वे भी कम परेशान नहीं थे। सो समय-बेसमय हँसते वक़्त वे उस आदमी को लाख-लाख बद्दुआ देते, जिसने उन्हें हँसना सिखाया था। उनकी इस आदत से उनकी पत्नी और बच्चे भी कम परेशान नहीं थे।

            

एक दिन ऑफ़िस से लौटे तो देखा, पत्नी पेट-दर्द से बुरी तरह तड़प रही है। उन्होंने उसे इस हालत में देखा तो हँसने लगे, "क्यों, क्या हुआ तुम्हें? तुम इस तरह लोट-पोट क्यों हो रही हो?"

           

"तुम्हें क्या दिखाई नहीं दे रहा? पेट-दर्द से मेरा बुरा हाल है और तुम हो कि खुश हो रहे हो? अरे, जल्दी से डॉक्टर बुलाओ नहीं तो मैं मर जाऊँगी।"

           

पत्नी ने रोते हुए कहा तो उनकी हँसी तो बन्द हो गई पर बत्तीसी खुली रही, "हाँ...हाँ...मैं अभी डॉक्टर को लेकर आता हूँ...।"

           

बत्तीसी खोले हुए वे बाहर निकले तो पड़ोसी शर्मा ने कहा, "क्या बात है मिश्रा जी...बड़े खुश नज़र आ रहे हो...?"

           

"अरे नहीं शर्मा जी, ऐसी कोई बात नहीं...। दर‍असल डॉक्टर को बुलाने जा रहा हूँ। पेट-दर्द से पत्नी की हालत बहुत खराब है।"

           

आश्चर्यचकित शर्मा उनसे कुछ और पूछता कि वे हँसते हुए चले गए।

           

डॉक्टर की क्लिनिक घर के पास ही थी। दस मिनट में ही पहुँच गए। डॉक्टर किसी दूसरे मरीज को देख रहा था। समय लगते देख वे हँसते हुए बेंच पर बैठ गए और आने वाले मरीजों को पूरी बत्तीसी खोलकर देखने लगे। मरीज उन्हें गुस्से से देखते और फिर आगे बढ़ जाते।

           

थोड़ी देर बाद जब डॉक्टर खाली हुए तो उनकी ओर मुड़े, "कहिए मिश्रा जी...कैसे आना हुआ?"

           

"जी, पत्नी के पेट में भयंकर दर्द है...ज़रा चल कर देख लेते।" कहकर वे हँसने लगे तो डॉक्टर को भी हँसी आ गई, "ऐसी भी क्या नफ़रत मिश्रा जी अपनी पत्नी से, कि उसके दुःख में भी आप इतना खुश हो रहे...।"

           

"नहीं…नहीं..." कुछ सफ़ाई सी देते हुए उन्होंने डॉक्टर का बैग उठाया और फिर अपनी पूरी बत्तीसी झलकाते हुए घर की ओर चल दिए।

           

पत्नी का चेक‍अप कर दवा वगैरह लिखकर डॉक्टर तो चले गए पर उसके बाद पत्नी ने घर में जो महाभारत मचाया कि असली कौरव भी होते तो यह देखकर महाभारत से तौबा कर लेते।

           

उन्होंने पत्नी को समझाने की बहुत कोशिश की, हर तरह से अपने अमर प्रेम का यक़ीन दिलाया, पर सब व्यर्थ...। उसकी एक ही रट- "मेरे दुःख में तुम्हें बहुत हँसी आती है न...। अब देखना, जब तुम बीमार पड़ोगे तो मैं डॉक्टर को भी नहीं बुलाऊँगी...।"

           

पत्नी फिर दहाड़ मारकर रोने लगी तो दीर्घशंका का बहाना बना कर वे जल्दी से खिसक लिए। काफ़ी देर बाद हँसते हुए निकले तो फिर वही नज़ारा...। घबराकर लघुशंका घर में घुस गए। ऐसी विकट परिस्थिति में उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें...। काफ़ी देर बाद बाहर निकले तो एकदम निचुड़े हुए।

           

अपनी इस आदत से उत्पन्न स्थिति से उन्हें कितनी परेशानी झेलनी पड़ती है, यह किसी को कैसे समझाएँ? एक बार तो इस आदत के कारण इतना परेशान हुए कि उन्हें उस जगह से मुँह ही छिपाकर भागना पड़ा। हुआ यूँ कि उनके एक रिश्तेदार की मृत्यु हो गई। न चाहने के बावजूद पिता की की आज्ञा के कारण उन्हें वहाँ जाना ही पड़ा। जाते वक़्त पिता ने उन्हें खास हिदायत दी थी, “धीरज बँधाते समय ज़रा अपनी बत्तीसी पर नज़र रखना...। इसके कारण अगर हमारे व्यवहार पर असर पड़ा तो समझे रहना...तुम्हारी ख़ैर नहीं...।"

           

और उन्होंने पिता के निर्देशानुसार ऐसा ही किया भी...। वहाँ सबके सामने उदास आँखों के साथ उन्होंने अपनी बत्तीसी पर काफ़ी देर नियन्त्रण रखा, पर जैसे ही मृत रिश्तेदार की पत्नी-बच्चों ने दहाड़ मारकर रोना शुरू किया, उनकी बत्तीसी खुल गई...। उन्हें देख गुस्से में लोगों ने जो-जो बात कही कि दुम दबाकर उन्हें वहाँ से भागना पड़ा।

            

इस भीषण काण्ड के बाद से तो उन्होंने किसी के घर मातम में जाना ही छोड़ दिया। दूसरे तक तो फिर भी चल गया पर अपने घर क्या करते...? पिता की सहसा मृत्यु हो गई पर तब भी उनका वही हाल रहा। कन्धे पर पिता की अर्थी थी और नीचे उनके चेहरे पर पूरी बत्तीसी खिली हुई थी। रिश्तेदारों ने देखा तो थू-थू किया, "कैसा कपूत जन्मा है चिरौंजीलाल के यहाँ...। देखो तो ज़रा, बाप के मरने पर कैसा हँस रहा...इतना खुश तो कोई दुश्मन के मरने पर भी नहीं होता...।"

            

पत्नी ने भी रात को आड़े हाथों लिया, "शर्म नहीं आती इस तरह खींसे निपोड़ते हुए...? अरे, अगर दिल में दुःख नहीं था तो कम-से-कम झूठमूठ ही दुःख दर्शा कर इज्ज़त बचा लेते। रिश्तेदारों का तो ख़्याल करते। छिः...क्या सोचते होंगे सब...। तुम खुद सोचो कि तुम्हारे मरने पर अगर तुम्हारा बेटा भी इसी तरह हँसे तो कैसा लगेगा तुम्हें...?"

            

और फिर दूसरे ही क्षण पत्नी दहाड़ मारकर रोने लगी, "जब तुम जन्म देने वाले पिता के मरने पर नहीं रोये तो मेरे मरने पर क्या रो‍ओगे...?"

            

ऐसी बात नहीं है कि अपनी इस आदत से मुक्ति का कोई उपाय वह सोचने की कोशिश न करते हों। इसी सन्दर्भ में एक बार उन्होंने बुर्का पहनने पर भी विचार किया था पर फिर जगहँसाई के भय से इस विचार को भी त्याग दिया।

            

इधर वे एक और संकट में फँस गए थे। पत्नी ने खुद तो उनसे बोलना छोड़ा ही, साथ ही बच्चों को भी सख़्त हिदायत दी थी कि, "जब तक तुम्हारे बाबू सुधरें नहीं, तब तक उनसे कोई नहीं बोलेगा...।" अब बच्चे ठहरे माँ के परम भक्त...सब ने उनसे बोलना छोड़ दिया।

            

वे रोज़ सुबह हँसते हुए उठते...दीर्घशंका-लघुशंका से निपट मेज पर पहले से रख दिए गए खाने को हँसते-हँसते खाते और ऑफ़िस चले जाते। माँ से उनका अकेलापन देखा नहीं जा रहा था। एक दिन उन्होंने बहुत समझाया, "बेटा, खुश रहना अच्छी बात है। पर दुःख के समय भी तू खींसे निपोरे रहता है, यह भी कोई बात हुई...? यह अच्छी बात नहीं है बेटा...।"

            

माँ की यह बात तीर की तरह उनकी अन्तरात्मा को भेद गई। उन्होंने उसी वक़्त प्रण किया...न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी...। आज इसी वक़्त बत्तीसी को उखाड़ फेंकूँगा...मारे गुस्से और क्षोभ के मन-ही-मन उन्होंने यह प्रण लिया पर उस कठिन घड़ी में भी उनकी खुली बत्तीसी से हँसी बरकरार थी। अपनी प्रतिक्रिया उन्हें सामने लगे शीशे में दिखाई दी तो शीशे को तोड़कर जा पहुँचे दाँतों के डॉक्टर के पास, “डॉक्टर साहब, पूरी बत्तीसी उखाड़ने का आप क्या लेंगे...?"

            

डॉक्टर ने उनकी ओर देखा। बत्तीसी खुली देखकर क्रोधित हो गया, "शरम नहीं आती डॉक्टर से मसखरी करते हुए...?"

            

वे परेशान हो गए। किसी तरह डॉक्टर को उन्होंने अपनी समस्या समझाई। डॉक्टर को दया आ गई। वह कलयुगी होने के बावजूद पैसे व दया के मामले में सतयुगी निकला। कम पैसे व उससे भी कम समय में में ही उसने उनकी पूरी बत्तीसी उखाड़कर उनके हाथों में थमा दी।

             

वे बेहद प्रसन्न हुए और प्रसन्नता के आवेग में अपना सारा कष्ट भूल गए। खूब खुश होकर वे घर पहुँचे और पत्नी से बोले, "लो भाग्यवान, जिस कारण से तुम मुझसे नाराज़ रहा करती थी, वह कारण ही मैने जड़ से उखाड़ फेंका।"

            

कहते-कहते उनका मुँह फिर खुल गया। उनके मुँह का अन्धेरा देख पत्नी तो गश खाकर गिर पड़ी। माँ ने देखा तो दहाड़ मारकर रो पड़ी, "अरे, अभी तो मैं ही बैठी हूँ, तो फिर तू कैसे इतना बुढ़ा गया रे...?"

           

पत्नी भी आते-जाते गुस्से में मुँह फेरकर आगे बढ़ जाती है, "खूसट बुढ्ढा कहीं का...।"

            

अब वे पहले से कहीं अधिक परेशान हैं। पहले जहाँ सिर्फ़ पत्नी और बच्चे उनसे रूठे थे, वहीं अब माँ भी रूठ गई है। उनका घर से बाहर निकलना भी दूभर हो गया है। आदतन उनका मुँह अब भी खुल जाता है, जिसे देखकर लड़कियाँ-औरतें गुस्से से फूट पड़ती हैं, "इस बुढ़ौने को देखो तो सही...मुँह में एक भी दाँत नहीं...क़ब्र में पाँव लटकाए है, फिर भी लड़कियों को देखकर हँसता है...कुत्ता कहीं का...।"

             

इन सब दुर्घटनाओं से वे इतने अधिक परेशान हो गए हैं कि अब फिर से बत्तीसी लगवाने के चक्कर में हैं। बस्स, उन्हें तलाश है तो एक दूसरे डॉक्टर की...।


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