बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं| सोचा किसी शहर के बारे में
लिखा जाए| आजकल तो कुछ गांव
भी शहर जैसे हो रहे हैं और कुछ शहर 'शहर'
जैसे रह ही नहीं गए
| उन्हें देखकर समझ में नहीं
आता कि हम किसी गांव...जंगल या बीहड़ में रह रहे हैं या वास्तव में हमारा बसेरा सचमुच के शहर में ही है|
मन में जब कोई इच्छा जोरो से पनपती है तो सबसे पहले अपनी जन्मभूमि
याद आती है | आप सबको याद आती है
कि नहीं मैं नहीं जानती. पर मुझे याद आती है| आज भी अपने उस इलाहाबाद की जहां मेरा जन्म हुआ, जहां मैं पली-बढ़ी...जहां
की भीषण गर्मी-सर्दी के साथ वहां का दशहरा-मेला, कुंभ, दिवाली के त्यौहार पर मोमबत्ती की रोशनी में नहाया पूरा शहर...गंगा
का पवित्र पानी और उसके साथ कभी-कभी हो जाने वाले दंगे...डरे हुए लोग...|
पर यही शहर क्यों, और भी बहुत से ऐसे शहर हैं जिन्हें मैंने बचपन में अबोध होते
हुए भी दिल की गहराइयों से महसूस किया है | सरकारी नौकरी में होने के कारण हर तीन साल
में बोरिया बिस्तर बांध कर मेरे पापा को शहर-दर-शहर जाना जो पड़ता था| मेरी यादों में
आज भी ऐसे बहुत से शहर है जिन्हें मैं भुला नहीं सकती...| आगरा, मसूरी, सहारनपुर, हाथरस,
फिरोजाबाद, मथुरा...पर इन शहरों के बारे में फिर कभी...| अभी वर्तमान में तो मैं कानपुर
में हूँ| बरसों से यहाँ की हवा को ऑक्सीजन की तरह अपनी सांसों में भर रही हूँ| यहाँ
का अनाज-पानी...तेज रफ्तार ट्रैफिक...गुस्से में भरे लोग...बीमार लोगों से भरा हर अस्पताल
और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पड़े कूड़े के ढेर…बरसों से इनका साथ
होने की वजह से अब ये पराए नहीं लगते...|
इस शहर में
बहुत कुछ है...| जैसे इंसान अच्छा या बुरा होता है, साफ-सुथरा या गंदा होता
है, वैसा ही यह शहर भी है...| संवेदनहीनता व कूड़ा कचरा यहाँ की खासियत है...| कूड़े से गंदगी फैलती है, हवा प्रदूषित
होती है तो क्या...? गंदगी से बचकर निकलना हम इंसानों ने अच्छी तरह सीख लिया है| हम
कोई जानवर तो है नहीं जो गंदगी में लोटते रहें ।
गंदगी और कूड़े के ढेर से मुझे याद आया कि आज से
कुछ बरस पहले एक बहुत ही खूबसूरत नारा दिया गया था-‘स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत’... |
नारा बहुत प्रभावी था| हर आदमी खुश हो गया...| अब हर शहर साफ सुथरा हो जाएगा, इस कल्पना
से प्रसन्नता व गर्व की लहर इस कदर दौड़ी कि झाड़ू बेचने वालों की चाँदी हो गई| हर
हाथ में झाड़ू आ गए| घर से सड़क तक नए-नए झाडुओं से सड़के बुहारी जाने लगी...| इस यज्ञ
में क्या बड़ा, क्या छोटा...सब का भेद मिट गया| एक ही स्थान पर पाँच-पाँच लोग जुट गए...|
झाड़ू-झाड़ू टकराई...धड़ाधड़ फोटो खींची गईं और फिर सोशल मीडिया पर अपनी फोटो में
लोग दांत निपोड़ने लगे...| हमारे मोहल्ले में भी कुछ परिवार साफ सफाई में इस कदर मशगूल
हुए कि उन्हें याद ही नहीं रहा कि किनारे इकट्ठा किया कूड़ा कहाँ जाएगा...? बहरहाल मौसम
से इंसानों की यह स्वार्थी प्रवृत्ति बर्दाश्त नहीं हुई वह आँधी बन कर आई और फिर पूरा
कूड़ा बिखर गया सड़कों पर...| घर का कूड़ा घर के भीतर फिर सरक गया...| रोज की तरह कूड़ा
उठाने वाला अपनी कूड़ा-गाड़ी लेकर आया...| गाड़ी कूड़े से पूरी तरह भरी हुई थी, पूरे
मोहल्ले का कूड़ा करकट जो था...| कूड़े वाले के आते ही घर वाले राहत की साँस लेते कि
आखिरकार गंदगी हटी...| लेकिन कूड़े वाले को भी तो राहत की साँस लेनी होती है...| राहत
की साँस लेना सबका अधिकार है...| उसे भी दूसरे दिन के लिए अपनी गाड़ी खाली करनी होती
थी| बड़े ही शांत भाव से कूड़े की गाड़ी आगे बढ़ती है...| थोड़ी ही दूरी पर एक मैदान
है, किनारे बड़ा सा बोर्ड लगा है-‘कानपुर को स्वच्छ बनाना है...गंदगी के कलंक को मिटाना
है’-| सामने ही चाट का ठेला भी खड़ा है...लोग मजे लेकर खा रहे हैं...| कूड़े-वाला इधर
उधर देखता है...कूड़ा गाड़ी वहीं बोर्ड के सामने पलट देता है...और फिर छूमंतर...| हमारे
शहर की एक बहुत बड़ी खासियत है कोई किसी के फटे में टांग अड़ाता नहीं है, पर साथ ही
अपने फटने को भी नजरअंदाज करता है...| अब देखिए ना. उसे ध्यान है कि सामने कूड़े के
ऊपर भिन्नाती मक्खियाँ...आस-पास से गुजरते
वाहनों की धूल ठेले पर रखे गोलगप्पे, मटर चाट या टिकिया पर कब्जा जमाते रहते हैं और
हम इधर अपने फटने की परवाह किए बगैर चटखारे लेते रहते हैं...| आखिर स्वाद भी कोई चीज
है...| जब तक जिंदगी है, तभी तक स्वाद है ना...| जिंदगी खत्म होती है तो हो, पर स्वाद
खत्म नहीं होना चाहिए...| इस स्वाद के चलते हम कहाँ जा रहे हैं, इसकी परवाह हम क्यों करें?
इधर कुछ अरसे से कानपुर की हवा इतनी जहरीली हो गई
है कि अब वह जहर हमारे भीतर भर गया है...| रिश्ते-नाते...प्यार-दुलार...सब पीछे छूट
गया है...| इंसानियत व संवेदना ने पूरी तरह मुँह मोड़ लिया है...| हमारी जिंदगी का
बस एक ही मकसद है-‘हाय पैसा’...| कोई सड़क पर गिरे-पड़े- मरे...पर इस शहर की रफ्तार
कम नहीं होगी | तेज रफ्तार भागती गाड़ियाँ, शहर को घेर कर बैठे सांड...लड़ते कुत्ते...लोगों
को कुचल कर भागते ट्रैक्टर...सबकी सोच यही हो गई है| अपनी जिंदगी बचानी है तो खुद बचो,
हम अपनी रफ्तार कम क्यों करें...? आखिर हमें अपनी मंजिल तक जल्दी पहुँचना जो है...|
इधर यह शहर बड़ी तेजी से एक नए रूप में तरक्की कर रहा है...| महीनों में सड़क बनती
है, पर उसे खुदने में दिन भी नहीं लगते...| आखिर आधुनिकीकरण की दौड़ में यह शहर पीछे
क्यों रहे...? सड़कें खुदती हैं...मोटी मोटी पाइप डाली जाती हैं और फिर उन पर मिट्टी
डाल दी जाती है...| बरसात के दिनों में कोई गीली मिट्टी के गड्ढे में गिरता है तो यह
उसकी समस्या है, शहर की नहीं,,,| शहर में तो काम हो रहा है ना...?
अरे तो इसमें इतना रोने की क्या बात है? अब हम कोई बच्चे तो रह नहीं गए कि दूध की बोतल के लिए रोते रहे| हम लोग तो समझदार
हो गए हैं ना...तो कुछ समझदार लोग अधिक समझदार होने के बाद अपना रास्ता नाप लेते हैं
और कुछ लोग बेहद समझदारी से बूढ़े जर्जर तंगहाल माँ- बाप को अपनी जान समझ के उनसे कहीं
दूर जा ही नहीं पाते...| ठीक वैसे ही मेरे जैसे कुछ लोगों के लिए यह शहर जैसा भी हो...गंदा...प्रदूषित...संवेदनहीन...पर
है तो हमारी जान ही ना...|
- प्रेम गुप्ता ‘मानी’
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 16/05/2019 की बुलेटिन, " मुफ़्त का धनिया - काबिल इंसान - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteशुक्रिया
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