बढ़े-बूढ़ों को अक्सर कहते सुना है कि बच्चे भगवान की देन हैं। यह सच है कि ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता, पर इसके इतर एक बात और भी सच है कि बहुत बार हमारी ज़िन्दगी में जो हमारी इच्छा के विरुद्ध होता है, उसमें भी ईश्वर की ही मर्ज़ी होती है। हम ईश्वर की इच्छा के आगे भले कुछ हद तक बेबस हों, लेकिन फिर भी मेरा मानना है कि अगर इन्सान निर्णय कर ले तो वह अपने कर्म से अपने भाग्य को बदल सकता है...और साथ-साथ कुछ मामलों में ईश्वर की मर्ज़ी को भी...। हम आमतौर पर सिर्फ़ अपनी किस्मत को कोसते रह जाते हैं। हम यह क्यों नहीं समझते कि यह ज़िन्दगी हमें बहुत मुश्किल से मिली है, और सिर्फ़ रोते हुए इसे गुज़ार देना किसी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता। लाख मुश्किलें सही, पर यह फिर भी आप पर है कि आप इसे किस तरह मंज़िल तक ले जाते हैं। राह में ठोकरें भी मिलती हैं, पर ज़रूरी नहीं कि हर ठोकर पर आँसू बहाया ही जाए।
यहाँ यह सारी भूमिका बाँधने का मेरा एक खास मक़सद है...एक इशारा है...और वह इशारा है औलाद के लिए तरसते लोगों की ओर...और ऐसे अधिकांश लोगों को नज़र न आने वाले अनगिनत नन्हें फ़रिश्तों की ओर...। आज हमारे समाज में जाने कितने ऐसे विवाहित जोड़े हैं, जिनकी लाख कोशिशों के बावजूद उनका घर आज भी किलकारियों की गूँज से अछूता है...। कुछ में ऐसी शारीरिक कमियाँ हैं कि लाख प्रयत्न के बावजूद उनके घर कोई नन्हा फ़रिश्ता जन्म नहीं ले सकता। ऐसे कुछ परिवारों में अगर वे चाहें तो अपने आसपास मौजूद ऐसे नन्हें फ़रिश्तों को अपना बना कर अपने घर ला सकते हैं, जिनके सिर से उनके माँ-बाप का साया उठ चुका है। पर नहीं, कुछ लोगों को स्वाभाविक रूप से अपने ही खून का वारिस चाहिए। कई बार युवा दम्पत्ति की भी यही मानसिकता होती है, पर अधिकांश मामलों में परिवार के बड़े-बूढ़ों की संकीर्ण मानसिकता के चलते न जाने कितने दम्पत्ति हारे हैं...। आज मेडिकल साइंस जाने कितने तरह के चमत्कार दिखा रहा है, पर ऐसी संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों के लिए साइंस भी बेबस है।
यहाँ मुझे यह बताने की ज़रूरत नहीं कि हमारे समाज में माता-पिता और परिवार के प्यार को तरसते अनाथ बच्चों की संख्या कितनी अधिक है। पर सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यही है कि ईश्वर की मर्ज़ी कह कर ऐसे संकीर्ण विचारधारा वाले लोग बिना बच्चे के सारी ज़िन्दगी रोते-बिसूरते काट लेंगे, पर उन अनाथों के प्रति उनके दिल में ज़रा भी माया-ममता नहीं जागती...। उन्हें यह समझ नहीं आता कि ऐसे बच्चों को अपना कर, उन्हें ममता की छाँव देकर वह न केवल एक पुण्य का ही काम करते हैं, बल्कि ज़िन्दगी को एक खूबसूरत और सार्थक तरीके से जीने का मक़सद भी पा जाते हैं...। उनका घर-आँगन चिड़ियों की चहकन के साथ इन नन्हें फ़रिश्तों की किलकारियों से भी गूँज उठता है...।
जो लोग इस बात पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं कि वह न जाने किसका खून होगा, तो उन्हें अपनी बुद्धि में यह बात डाल लेनी चाहिए कि वह सिर्फ़ एक इन्सान का खून है और इन्सानी खून का बस एक ही रंग होता है...। जाति-धर्म से परे ये नन्हें फ़रिश्ते कच्ची मिट्टी सी सोंधी गन्ध से लिपटे होते हैं...। इन्हें अपने रंग में रंग कर ही नहीं, बल्कि अपने रूप में ढाल कर तो देखिए...पता भी नहीं चलेगा कि ये कब आपके ही अंश हो गए...।
Bahut Sahi kaha hai aunty. Log aisa karne se jaane kyun bachte hain aur naye naye scientific tareekon ka sahara lete hain.
ReplyDeleteशुक्रिया अभिषेक, सही कह रहे हो...|
Deleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल सोमवार (17-10-2016) के चर्चा मंच "शरद सुंदरी का अभिनन्दन" {चर्चा अंक- 2498} पर भी होगी!
ReplyDeleteशरदपूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सार्थक बात .कुछ लोग इस दिशा में बढ़ तो रहे हैं फिर भी इसके लिये उदार बहुत उदार मानसिकता की आवस्यकता है .
ReplyDeleteजी हाँ गिरिजा जी...| टिप्पणी के लिए आभार !
Deleteआभार !
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