हर इन्सान की अपनी ज़िन्दगी होती है...उसके सुख-दुःख होते हैं...कई आन्तरिक समस्यायें होती हैं, जो कभी उलझती हैं तो कभी सुलझती हैं...। कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जिन्हें वह किसी से शेयर भी नहीं कर सकता और अगर करने की कोशिश करता भी है तो कई बार मानो क़यामत ही आ जाती है...। इन्हीं सब बातों से घबरा कर अक्सर लोग चुप ही रहते हैं, पर इससे होता क्या है...? कहते हैं न आप किसी की ज़ुबान पर ताला नहीं लगा सकते...ठीक उसी तरह किसी की भेदिया प्रवृति और निगाह पर कोई बन्दिश भी नहीं लग सकती। हमारे समाज में कुछ ऐसी भेदिया निगाहें हैं जो अपने आप ही सब कुछ भाँप लेने का दावा करती हैं...कुछ-कुछ लिफ़ाफ़ा देख कर मजमून भाँप लेने जैसा...। ये निगाहें आपके घर में, ऑफ़िस में, मोहल्ले में, नाते-रिश्तेदारी में...कहीं भी आपका पीछा कर सकती हैं। आप बचना चाहें तो भी नहीं बच सकते।
मेरे मोहल्ले की एक मासूम बच्ची ऐसी ही कुटिल भेदिया निगाहों का कुछ ऐसा शिकार हुई कि न केवल उसकी माँ को अपनी बच्ची के साथ वह मकान छोड़ना पड़ा, बल्कि आसपास उन्हें कोई और अपना मकान किराये पर देने को तैयार भी न हुआ। बात यहीं ख़त्म नहीं हुई, माँ को बच्ची का नाम पास के स्कूल से भी कटवाना पड़ गया।
इस बच्ची की कहानी उसकी उम्र की ही तरह बेहद छोटी-सी है। करीब साल भर पहले हमारे मोहल्ले में एक बेहद खूबसूरत सी बच्ची, जिसकी उम्र तेरह या चौदह वर्ष की रही होगी, अपनी माँ के साथ एक छोटे से शहर से आई थी। पिता किसी और शहर में एक मामूली सी नौकरी में थे। आर्थिक तंगी बहुत थी। कानपुर में हमारे मोहल्ले में दूर के रिश्ते की एक बुआ रहती थी। उनका काफ़ी बड़ा मकान था, सो उन्होंने माँ-बेटी को गेट के पास बना एक छोटा-सा कमरा रहने को दे दिया। बेटी को पास के स्कूल में फ़ीस माफ़ करा के एडमिशन करा दिया। माँ उनके अहसान तले इस क़दर दब गई कि उनका छोटा-मोटा घर का काम कर देती। इधर वह उनके अहसान तले जितना दब रही थी, मजबूर समझ कर वह उतना ही उसे दबा रही थी। माँ तो दब जाती थी, पर बच्ची मासूम थी। वह उनकी इजाज़त के बिना कभी गेट पर खड़ी हो जाती, कभी मोहल्ले के लड़के-लड़कियों के साथ खेलने लगती...। उम्र के इस मोड़ पर मोहल्ले के कई लड़के उसके दीवाने हो गए, पर उससे बेख़बर वह अपने में ही मस्त थी...। उसकी यह मासूमियत आसपास की कुछ भेदिया और चुगलखोर महिलाओं को रास नहीं आई...। कमरा देकर महा-अहसान करने वाली बुआ तो क़यामत लाने वाली हद तक ख़ार खाए बैठी थी। मोहल्ले में उसके व उसकी माँ के चरित्र को लेकर बुआ ने हल्का सा धुआँ क्या उठा दिया कि हर कोई उसमें अपनी तरफ़ से आग में घी डालने वाला काम करने लगा। शाम के वक़्त मोहल्ले में औरतों की चौपाल लगती तो उसमें मसला सिर्फ़ माँ-बेटी का चरित्र ही होता...। देश-दुनिया में क्या हो रहा है, अपने शहर की क्या समस्यायें हैं, अपनी खुद की ज़िन्दगी किस रास्ते जा रही, इससे किसी का कुछ लेना-देना नहीं था। उनकी अपनी एक लॉबी बन गई थी...। माँ-बेटी को इस लॉबी ने कुछ इस क़दर बदनाम कर दिया था कि उनका आसपास निकलना दूभर हो गया था। एक मुँह से दूसरे मुँह तक बात फैलती पास के दुकानदारों तक भी पहुँच गई थी। उनमें से कई उनको देख कर चटखारे लेते, सिसकारी भरते पर सारी बातों से अनजान माँ-बेटी कुछ समझ न पाती। लेकिन आखिर कब तक...? एक दिन कहीं से उड़ती-फिरती सारी बात माँ के कानों में भी पहुँच ही गई। सब सुन कर वह बेहद घबरा गई। उसे डर था कि यह सब जान कर कहीं उसकी बेटी कोई घातक कदम न उठा ले।
कुछ दिन बाद वो माँ-बेटी इस मोहल्ले से चली गई। आज वे कहाँ हैं, किस हाल में हैं, मुझे नहीं पता...पर इतना ज़रूर पता चल गया कि ऊपर से बहुत सभ्य-सुसंस्कृत नज़र आने वाली...संस्कारों, परम्पराओं और रीति-रिवाज़ों की बड़ी-बड़ी बातें करने वाली ऐसी कुछ महिलायें हमेशा अपनी कुटिल चालों और भेदिया निगाहों से दूसरों को घायल करने की फ़िराक में रहती हैं और गुपचुप तरीके से की गई इस मानसिक हिंसा पर जीत मिलने पर आन्तरिक खुशी महसूस करती हैं...।
आज जो मैने यह घटना बताई, यह कहानी सिर्फ़ मेरे मोहल्ले की ही नहीं है। किसी भी मोहल्ले. इलाके या शहर में ऐसा हो सकता है...। आपकी ज़िन्दगी में झाँक कर, आपकी मन की तहों को खोल कर जानने के बाद आपकी मदद को आगे बढ़ने वाले हाथ सिर्फ़ उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। पर आपको बर्बाद करने के लिए हज़ारों खुफ़िया निगाहें हैं।
यहाँ एक छोटी सी घटना को इंगित कर ज़िन्दगी और उसमें शामिल रिश्तों को समझने की एक मामूली कोशिश की है मैने, पर इससे इतर एक बात साफ़ करना चाहूँगी कि जिनके बेटे उस बच्ची की खूबसूरती व मासूमियत पर फ़िदा थे, उसे उम्र का नाज़ुक मोड़ समझ कर क्या अपने बेटों को सम्हाला नहीं जा सकता था...? पर शायद नहीं...मोहल्ले की ऐसी पंचायती औरतों को अपने बेटे के गुस्से और ज़िद का सामना करने से ज़्यादा सरल और बेहतर उस बच्ची को अपनी कुटिल चालों का शिकार बनाना लगा...। उन्होंने यह जानने की कोशिश नहीं की कि कई सारी बातों से खार खाई बुआ ने उन माँ-बेटी से अपनी अनजानी जलन का बदला किस तरह चुकाया।
हम आखिर इतने कान के कच्चे और मूढ़मगज़ क्यों हो जाते हैं...? दूसरों की फ़िज़ूल बातों को बड़ी आसानी से मान कर...किसी भी मामले की तह तक जाए बिना सज़ा सुना देने का हक़ हमें किसने दिया...? हम यह क्यों नहीं समझ पाते कि जिस तरह इस घटना में वो माँ-बेटी अनजान थी, उसी तरह हो सकता है कि अपने आसपास फैल रही अपनी किसी बदनामी से आप भी अनभिज्ञ हों...। हो सकता है कि जो इंसान चुपके से आपकी पीठ में खंजर भोंकने को तैयार बैठा हो, आप उसी की बगल में बैठ कर किसी और के लिए अपनी कटार में धार दे रहे हों...। दूसरों पर उँगली उठाने से पहले एक बार अपनी ओर उठी हुई चारों उँगलियों को ध्यान से देखिएगा...शायद आपको खुद के अन्दर ही एक बड़ा अपराधी नज़र आ जाए...।
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