Sunday, October 10, 2010

रोइए...कि आप नर्क में हैं

( किस्त छह )

 कानपुर का एक बड़ा नामी-दामी आस्पताल है - रामा हास्पिटल । यहाँ हर तरह की सुविधाएँ हैं...उच्च तकनीकों से युक्त मशीनें हैं...बड़े-बड़े अनुभवी डाक्टर हैं । कोई भी कमी नहीं है इस अस्पताल में । डाक्टर भी अपने पेशे के प्रति ईमानदार हैं । गरीब-अमीर यहाँ सब बराबर...उनकी जो देखभाल की जाती है , वह प्रशंसनीय है । पर कभी-कभी एक छोटी सी लापरवाही मरीज के परिजनों को किसी डाक्टर के प्रति किस तरह आक्रोश से भर देती है , यह वही महसूस कर सकता है जिसका कोई प्रिय ख़तरे में चला गया हो ।
          डाक्टर एस.के. कटियार , उम्र बहुत छोटी , पर अनुभव बहुत बड़ा । हमारे परिवार के दुर्भाग्यजनित रोग पथरी का उन्होंने चार सदस्यों का सफ़ल आपरेशन किया । जितना हमारा उनके ऊपर विश्वास बढ़ा , उतने ही वे सहज हो गए । पाँचवे आपरेशन के वक़्त वे इतने सहज थे कि उन्होंने आनन-फानन में अपने असिस्टेन्ट को बाहर भेज कर बहन को आपरेशन थियेटर में बुलवा लिया । उन्होंने मेरी किसी भी बात को गम्भीरता से लेने की कोशिश ही नहीं की ।
          घर से चलते वक़्त सब कुछ ठीक था पर अस्पताल पहुँच कर सहसा ही न जाने कैसे मेरी बहन की आँखों में एक गहरा पीलापन उतर आया । उस पीलेपन को देख कर मैं परेशान हो गई । उस परेशानी के चलते मैं अपनी बात बार-बार कह रही थी...नर्स से...असिस्टेन्ट से...। डाक्टर आए नहीं थे या अन्दर ओ.टी में थे , नहीं जानती थी । अन्दर जाना मना था । क्या असिस्टेन्ट का यह फ़र्ज़ नहीं था कि वह डाक्टर से मेरी बात कहता ? या क्या डाक्टर ने उसकी पीली आँखें नहीं देखी ? ये बहुत से ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब मुझे चाहिए ।
          आपरेशन के बाद किसी ने मुझसे कहा कि पीलिया में कभी भी आपरेशन नहीं कराना चाहिए...। आपरेशन से नसें खुल जाती हैं और खून में विषाक्तता घुल जाती है । पहले पीलिया का इलाज कराना चाहिए , फिर आगे की सोचे । पर कहते हैं न कि ‘ होनी बहुत बलवान होती है ’। इतनी कि बुद्धि को कुन्द कर देती है । अगर ऐसा न होता तो अपनी बहन को ओ.टी में जाने से मैं जबरिया रोक न लेती ?
          पेट के अन्दर चुपके से क्या पनप रहा है , कोई कैसे जान सकता है ? सदियों पहले तो कोई सुविधा भी नहीं थी । साथ ही शुद्ध चीजों के कारण रोगों की इतनी भरमार भी नहीं थी , पर आज ?
          जितने रोग बढ़े हैं , उतनी ही तकनीकी प्रगति भी , पर बावजूद इसके कुछ रोग इतने चुपके से पनपते हुए अपने ख़तरनाक मोड़ पर पहुँच जाते हैं कि कोई जान नहीं पाता...। अल्ट्रासाउण्ड , कैट स्कैनिंग या अन्य किसी तरीके से रोग पकड़ में आने पर सब कुछ डाक्टर के हाथ में चला जाता है । अब एक योग्य डाक्टर उसे दूर करने के लिए कितनी मशक्कत करता है , यह उसके स्वभाव और कर्तव्य-भावना पर निर्भर करता है , पर आज के इस आधुनिकीकरण के युग में कर्तव्य-भावना लगभग ज़ीरो हो गई है ।
          पीलिया में ही आपरेशन हो जाने के कारण स्नेह की ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ गई । डाक्टर ने तरह-तरह की आशंका जता कर हम सब के मन में एक अनकहा-अनजाना भय तो बैठा दिया पर यह नहीं कहा कि उसके सही इलाज का रास्ता क्या है ? घर ले जाना उचित होगा या नहीं ? जिस आशंका को उन्होंने जाहिर किया , क्या उसके लिए उस अस्पताल में या इतने बड़े शहर में कोई भी योग्य डाक्टर नहीं था ?
          क्या आपरेशन करके , दो-तीन दिन अपनी निगरानी में रख कर डाक्टर का फ़र्ज़ पूरा हो गया ? परिजन डाक्टरी क्या जाने...आप उन्हें सही राय तो दे सकते थे । मैं डाक्टर से पूछना चाहती हूँ कि यदि उनके परिवार में कोई इस तरह फँस जाए तो वे क्या करेंगे ?
          पर डाक्टर ने तो आपरेशन करके अपना कर्तव्य निभा दिया । अस्पताल से यह कह कर छुट्टी भी दे दी कि अब जैसा चाहे , इलाज कराइए । साधारण पीलिया समझ कर उसका इलाज चलता रहा । किसी ने कुछ सलाह दी तो किसी ने कुछ...। रोग बढ़ता जा रहा था और उसके साथ हम सब के समझने की शक्ति भी गुम होती जा रही थी ।
          कहते हैं कि मुसीबत के समय ही आदमी की परख होती है । सुख के समय जो भीड़ आपके साथ खड़ी होगी , दुःख के समय वह भीड़ कब छँट गई , आपको पता भी नहीं चलेगा...और जब पता चलेगा तो आप पाएँगे कि आप तो बिल्कुल अकेले हैं...। जिसके लिए आपने बहुत कुछ किया , वह भागदौड़ की मेहनत और पैसा खर्च होने के भय से गायब हो जाएगा । पर बावजूद इसके , जब अपना दिमाग़ काम करना बन्द कर देता है तो किसी सशक्त सहारे की बहुत ज़रूरत होती है ।
          ऐसे में डाक्टर अनूप अग्रवाल के रूप में हमें एक ऐसे इंसान मिले जो इलाज के साथ-साथ दूसरों की मदद करने को भी तत्पर रहते हैं । वे हमारे परिवार के लिए बहुत बड़ा सम्बल थे । उन्होंने रोग को हाथ से बाहर जाते देख पी.जी.आई रिफ़र कर दिया , पर शायद उन्हें भी आभास नहीं था कि अनजाने ही उन्हों ने एक इंसान को जीते-जी नर्क की ओर धकेल दिया है...।
          ‘ संजय गाँधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ’...जितना भारी-भरकम नाम है , उतना ही भारी-भरकम इसका डील-डौल भी है । जिस समय संजय गाँधी के नाम पर इसकी स्थापना की गई थी , सरकार ने जनता से बहुत बड़े-बड़े वायदे किए थे । देश के नामी-गिरामी ( अब गिरहकट् ) डाक्टरों को जगह दी थी , शानदार और जानदार उसका ढाँचा खड़ा किया था व और भी कई ऐसी सुविधाएँ तकनीकी रूप से इस अस्पताल को मुहैया कराई जो कम-से-कम उत्तर प्रदेश के अस्पतालों में उस स्तर तक नहीं थी । सरकार के इस कदम से जनता में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई । अब कम-से-कम गम्भीर रोगों के लिए अपने घर से दूर दिल्ली-मुम्बई तो नहीं जाना पड़ेगा । जिस मर्ज़ का इलाज अपने शहर में नहीं , वह यहाँ है और वह भी कम खर्च में...। कम खर्च में खाने-रहने की भी व्यवस्था...। आसपास न जाने कितने होटल , मोटल खुल गए...एक आश्रम की भी स्थापना हुई । अस्पताल में ही कैण्टीन है यानि खाने के लिए परिजनों को परिसर से बाहर जाने का कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा । ( अब यह बात दूसरी है कि कैण्टीन का खाना जल्दी गले से नहीं उतरता , पर कोई भूखा रह कर अपने प्रिय मरीज के साथ मर तो नहीं जाएगा न...सो मजबूरी में पेट भर लिया जाता है...। )
             आह ! और वाह ! के साथ टूटे हुए लोगों की भीड़ उधर खिंचने लगी । वाह ! उत्तर प्रदेश की शान लखनऊ और वहाँ की...? पी.जी.आई...। ‘ मुस्कराइए कि आप लखनऊ में हैं...’ पर जनाब , रोइए भी कि आप पी.जी.आई में हैं । आज ये अस्पताल लखनऊ का कलंक बनने की ओर पूरी तौर से अग्रसर् है । अफ़सोस...सरकार की नाक के नीचे ये नर्क फल-फूल रहा है और उन्हें सुध नहीं...?
             पर इसमें उनका क्या दोष ? सरकारी कामकाज़ का भारी-भरकम बोझ और विपक्षी नेताओं का वार उन्हें इतनी फुर्सत ही नहीं देता कि वे तड़पते-कलपते मरीजों और उनका इलाज करते आकाओं (?) की सुध ले सकें । अब यह बात दूसरी है कि किसी आला अधिकारी के आने पर वहाँ ऐसा शानदार भूकम्प आता है कि सब कुछ उल्टा-पुल्टा होने की बजाय सीधा-सीधा हो जाता है । वी.आई.पी कमरे तक जाने का रास्ता हो या आसपास का वातावरण...सब साफ़-सफ़ाई , रंग-रोगन से लेकर खुशबुओं से इस क़दर भर जाता है कि हमारे वी.आई.पी ही नहीं , कुछ पल के लिए मरीज के परिजन भी भावविभोर हो उठते हैं और ये भूल जाते हैं कि इस धरती पर जगह की कमी की वजह से एक ही जगह को दो हिस्सों में बाँट दिया गया है...आधा नर्क...आधा स्वर्ग...।
            पर यह स्वर्ग-दर्शन कुछ ही दिनों का होता है । वी.आई.पी स्वस्थ तो बाकी अस्वस्थ...फिर नर्क में रहो...। कोई पूछने नहीं आएगा कि भैया , कितने महीनों से इस नर्क में हो और कब इससे मुक्ति मिलेगी...?
            पी.जी.आई में जब स्नेह को लेकर गए तो एक तरह से कमरे के लिए , बेड के लिए गिड़गिड़ाना ही पड़ा , पर बावजूद इसके , किसी का भी दिल नहीं पसीजा । उनके पास सिर्फ़ बहाना ही था...कोई कमरा खाली नहीं...जनरल वार्ड में भी कोई बेड नहीं...। बहन की गम्भीर हालत में भी उसे लेकर दो दिन होटल में गुज़ारने पड़े । पी.जी.आई की इस तथाकथित व्यस्ततम हालत के बारे में जानती तो शायद वहाँ का रुख़ कभी न करती...।
            आज सोच कर दिल काँप जाता है कि वह वक़्त हमने कैसे गुज़ारा ? बहन की चिन्तनीय स्थिति...कानपुर से तीन घण्टे का सफ़र...सुबह चार बजे के बाद से मुँह में अन्न के एक भी दाने का न जाना...सात बजे के पहुँचे बारह बजे तक रजिस्ट्रेशन हो पाना और फिर डाक्टर के कमरे के बाहर मरीजों की लम्बी लाइन...। पसीने से गंधाता पूरा वातावरण...भीषण कराहट के साथ पथराती आँखें...साथ आए रिश्तेदारों की बेचैनी और इससे ज़्यादा मरीज की पस्त होती हालत...। उफ़ ! यह दशा सिर्फ़ हमारी ही नहीं थी । न जाने कितने अनजाने सांझे दुःख के भागीदार बन गए थे ," बहन जी , उन्हें क्या हुआ ? " सारी कहानी दोहराई जाती और् उस कहानी के दरमियान रोगी की आशा-निराशा के बीच कभी झूलती तो कभी स्थिर होती आँखें...। लगता , जैसे एक सवाल उसकी आँखों में आँसू की बूँद की तरह ठहर गया हो ," क्या होगा मेरा ? अगर मुझे कुछ हो गया तो क्या होगा मेरे परिवार का...? कहीं मेरी दुर्दशा तो नहीं होगी...?"
            मेरी बहन का सिर मेरी गोद में था...। सुबह से बिना कुछ खाए-पिए एक मासूम बच्ची सी दिख रही थी वह और हम सबके पूरा साथ देने के बावजूद जैसे एकदम अनाथ - असहाय सी...। नाथ (ईश्वर) जिसका साथ छोड़ दे , वह अनाथ ही तो हो जाता है...।
            पर वह वहाँ अकेली तो नहीं थी । न जाने कितने अनाथों की आँखों में मेरी बहन की हल्दी-घुली आँखों की तरह ही एक अबूझा सवाल अटका हुआ था ," मेरा क्या होगा , और...?"


( जारी है )

1 comment:

  1. कहते हैं हमारा देश विकास के कुलांचे भर रहा है..पर ये नर्क देखने बाद कड़वे सच का पता चलता है..

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