Saturday, October 23, 2010

और इन्तज़ार ख़त्म हुआ पर...( 4 )

( किस्त - तेरह )



                    उन लोगों ने बड़ा अहसान-सा किया जो जनरल वार्ड में एक बेड दे दिया , पर अब एक और इन्तज़ार ने अपना फन काढ़ लिया था...डाक्टर के आने का...।
                    स्नेह की पलंग के ठीक सामने बनारस ( वाराणसी ) का कोई बन्दा था...बेहद बिन्दास और हँसमुख...। उसे वहाँ आए काफ़ी दिन हो गए थे । पता नहीं किस मर्ज़ का इलाज चल रहा था , पर सामने पेशाब की थैली के पास पट्टी बँधी थी...जिस पर हल्का सा खून भी था...। अगल-बगल दो बैग लटके...एक में पेशाब तो दूसरे में शायद गन्दा खून...। दर्द के बावजूद वह हँस रहा था...ठेठ बनारसी बोली बोल कर दूसरों को हँसा रहा था...। उसको हँसते देख कर पल भर के लिए अपनी पीड़ा भूल सी गई...। दो दिन बाद -" भ‍इयाऽऽऽ , चला-चली का बखत ( वक़्त ) है..." कहता छुट्टी पाकर घर चला गया , फिर आने के लिए...। वह दुबारा लौटा कि नहीं , नहीं जानती...। पर उसका वह हँसता , दुबला चेहरा आज भी याद है ।
                    दुःख के कँटीले रास्ते पर सुख की तलाश...। अपनी तलाश में उसने उस अनजान माँ को भी शामिल कर लिया था जो अपनी  लम्बी बीमारी के कारण पी.जी.आई में बसेरा ही बना बैठी थी...। बेटा व पति पास थे फिर भी वह अपनी अनिश्चित ज़िन्दगी को लेकर हमेशा रोती रहती थी । उसे भी जॉन्डिस ( पीलिया ) था...लीवर में कोई और भी खराबी थी...और भी जाने क्या-क्या...। दो महीने का लम्बा वक़्त उस जगह गुज़रने को था , पर फिर भी उसके सामने आशा की एक नन्ही सी किरन भी नहीं थी...।
                   हर कोई एक-दूसरे की छिटपुट जानकारी लेता , सान्त्वना देता और फिर एक बार अपने की पीड़ा में गुम हो जाता । मैं भी अलग नहीं थी उनसे...। बहन की पीड़ा के आगे कुछ भी सुझाई नहीं दे रहा था...। हमें वार्ड में आए करीब दो घण्टे बीत चुके थे पर कोई आया क्यों नहीं...?
                   काफ़ी देर बाद एक बेहद काली - नाटी सी नर्स आराम से चलती हुई आई...। उसके साथ एक जूनियर डाक्टर...डाक्टर के साथ एक और आदमी...। डाक्टर ने बहन की फ़ाइल पर एक उचटती सी निगाह डाली , उन्हें कुछ समझाया और फिर सधे कदमों से वापस चला गया ।
                  पता नहीं किस जनम के पापों की सज़ा भुगत रही थी स्नेह...। दूसरों को अपनी जान में कभी दुःख नहीं दिया , पर ईश्वर उसे दुःख दे रहा था...तिस पर नीचे , धरती के कसाई...। स्नेह के हाथों की नस काफ़ी पतली थी शायद...जल्दी दिखाई नहीं दे रही थी...। उसे वीगो लगना था ग्लूकोज़ के लिए...। उन दोनो ने स्नेह का वही हाथ पकड़ कर कस कर ठोंकना शुरू किया , जिस में महीने भर पहले ही फ़्रैक्चर हुआ था । वह दर्द से एकदम चीख उठी...। मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ , " सुनिएऽऽऽ, इस हाथ में फ़्रैक्चर है , हड्डी अभी ठीक से जुड़ी नहीं है...। आप दूसरे हाथ में वीगो लगा दीजिए...।"
                  सहसा वह काला आदमी नाग की तरह फुंफकारा , " एई मैडमऽऽऽ , आप किनारे हटिए और हमें अपना काम करने दीजिए...।"
                " पर..." होंठो को भींच कर बहन ने मुझे आँखों से इशारा किया , चुप रहने का...। मैं कसमसा कर रह गई...। जी चाहा उस आदमी की कलाई को मरोड़ कर उसकी हड्डी तोड़ दूँ और फिर कस कर मरोड़ कर कहूँ , " क्यों , अब कैसा लग रहा ? "
                " दीदीऽऽऽ , यहाँ ऐसा कुछ मत करना जिससे इन लोगों को मेरी दुर्दशा करने का बहाना मिल जाए...।"
                  स्नेह की डरी हुई आवाज़ मुझे भीतर तक सिहरा गई थी...। कितनी-कितनी बार यही बात दोहरा कर वह मेरी मिन्नतें करती रही थी और मैं हर बार नए सिरे से पस्त हो जाती...। अन्याय को न सहने वाली मैं कितनी लाचार हो गई थी...।
                  पहली बार मुझे अनुभव हुआ कि जेल और अस्पताल ( खास कर सरकारी ) में कुछ खास अन्तर नहीं होता । एक में कसूरवार यातना झेलता है तो दूसरे में बेक़सूर...। जेल में नम्बर के बैरक हैं और शक्ति के अनुसार सुविधा , तो यहाँ भी शक्ति और वैभव का गठजोड़ है...। इतनी समानता...? उफ़...! यातना की इंतहा भी...!




( जारी है )

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