Wednesday, May 22, 2019

चूड़ीहारों के शहर में

 
(मेरे माता-पिता...जिनकी यादें ही शेष हैं...)
     


उन दिनों हमारे पिताजी लेबर ऑफिस में लेबर इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत थे | नौकरी चूंकि सरकारी थी इसीलिए हर दो-तीन साल में सरकार जहाँ चाहती, ट्रांसफर कर देती थी...फिर चाहे उस शहर में जाने का मन हो, ना हो...| पिताजी का ट्रांसफर जब फिरोजाबाद हुआ तो वे अनमने-से हो उठे । एक तो हम बच्चों के वार्षिक इम्तहान देने का वक्त था, तो दूसरे आज की तरह वह शहर इतना डेवेलप नहीं था, पर बावजूद इसके शीशे के सामान व खूबसूरत चूड़ियों के व्यापार के कारण प्रसिद्ध था | व्यापारी दूर-दूर से वहाँ आते और सस्ते में शीशे के शोपीस व चूड़ियों के गजरे ले जाते | शीशे के सामानों और चूड़ियों में की गई कारीगरी को देखकर देशी-विदेशी सभी लोग दंग रह जाते थे।

पिताजी का जिस भी जगह ट्रांसफर होता वहाँ सरकारी मकान मिलता था | फिरोजाबाद में भी मिला और ऐसी जगह मिला जहाँ आबादी बहुत कम थी और थोड़ी ही दूरी पर घना जंगल था | हम सब डरे तो बहुत, पर मजबूरी थी...| हमारे घर के ठीक सामने चूड़ी का कारखाना था जहाँ गई रात तक चूड़ी हारे कोई गीत सुनाते हुए चूड़ी बनाते रहते और जब रात गहरी हो जाती तो वहीं  सो जाते | वहाँ हम लोगों को डर तो बहुत लगता, पर उन चूड़ीहारों के कारण थोड़ी राहत भी थी| यदयपि पिताजी का ऑफिस नीचे के तल पर था, पर वह भी पाँच बजते बजते बंद हो जाता...| पिताजी को वार्षिक टूर्नामेंट के लिए चंदा इकट्ठा करने के लिए अक्सर बाहर जाना पड़ता । अपने पाँच बच्चों व एक बूढ़े नौकर के साथ घर माँ के हवाले रहता | ज्यादा पढ़ी-लिखी ना होने के बावजूद माँ हर काम में तो माहिर थीं ही, साथ में बहादुर भी बहुत थीं...। उनसे जुड़ी एक घटना मुझे आज भी याद है...| यदयपि उस समय मैं भी काफी छोटी थी, पर घटना इतनी बड़ी थी कि माँ अक्सर हम सबको हिम्मती बनाने के लिए सुनाया करती।

बात जाड़े के दिनों की है, जब रात बड़ी जल्दी गहराने लगती है...| पिताजी शायद चंदा इकट्ठा करने के लिए शहर से बाहर थे | खाना खाकर हम पांचों भाई बहन रजाई के अंदर दुबक गए | बूढ़ा नौकर अपनी कोठरी में जाकर सो गया और माँ सोने की तैयारी कर ही रही थी कि उसी समय किसी ने छज्जे की झंझरी की ओर रस्सी फेंकी | माँ ने देखा तो हैरान रह गई...| इतनी रात यह कौन शरारत कर रहा है...? धीरे से झाँक कर देखा तो नीचे चार या पांच घोड़ों पर साफा बांधे बड़ी बड़ी मूँछों वाले हट्टे-कट्टे आदमी फिल्मी स्टाइल में काँटे वाली रस्सी छज्जे पर अटकाने की कोशिश कर रहे थे । माँ समझ गई कि वे डाकू हैं जो पिताजी द्वारा इकट्ठा किए गए चंदे को लूटने आए हैं...| उन्होंने नौकर को आवाज दी, पर वह कोठरी का दरवाज़ा अन्दर से बंद किए हुए गहरी नींद में सो रहा था...| नौकर तो नहीं जागा, पर हम बच्चे जाग गए और थरथर लगे काँपने...। पल भर माँ हकबकाई सी रहीं, फिर सहसा ही सजग हो गईं...।

माँ की एक आदत ने ही हम सबको उस दिन बचा लिया...| उन दिनों आज की तरह गैस का चूल्हा नहीं था बल्कि मिट्टी के चूल्हे में लकड़ी जलाकर खाना बनाने का चलन था...| माँ खाना बनाने के बाद भी चूल्हे की लकड़ियों को बुझाती नहीं थी, बल्कि उन्हें एकदम मद्धिम सा जलने देती...| मिट्टी का तेल घर में हमेशा बड़ी मात्रा में रहता ही था...| माँ ने उस पल भी त्वरित गति से चूल्हे में और लकड़ी डालकर मिट्टी का तेल डाल दिया...| लकड़ी भड़क उठी तो माँ ने पहला काम किया कि ऊपर छज्जे से अटकी रस्सी पकड़ कर कोई डाकू ऊपर चढ़ता, उससे पहले ही माँ ने उसमें भी मिट्टी का तेल डालकर जलती लकड़ी से आग लगा दी थी...| इधर रस्सी जल उठी उधर माँ ने जोर-जोर से चिल्लाते हुए जलती लकड़ी के टुकड़े डकैतों पर फेंकने शुरू कर दिए...| सामने जलती हुई आग और माँ की चीख-पुकार देख-सुन कर चूड़ी के कारखाने में सोये हुए चूड़ीहारों की नींद खुल गई और फिर उन्हें समझते देर नहीं लगी कि इधर डकैत आ गए हैं...| अब क्या था...मोटे डंडे लेकर बीस-पच्चीस चूड़ीहारे चीते की फुर्ती से उन पर टूट पड़े तो सहसा हुए इस हमले से डकैत सरपट जो भागे, तो फिर उधर मुड़कर कभी नहीं देखा...।

आज माँ नहीं है, पर जब भी इस घटना की याद आती है तो मन गर्वित हो उठता है कि मेरी माँ डिग्रीधारी ना होने के बावजूद इतनी बुद्धिमान और साहसी थीं...।

- प्रेम गुप्ता 'मानी'

9 comments:

  1. बहुत रोमांचक और प्रेरक संस्मरण, आदरणीय माँ की बुद्धिमत्ता को रेखांकित करते हुए! आभार और बधाई!!!

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    1. आपकी टिप्पणी के लिए बहुत आभार...|

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  2. बहुत प्रेरक और रोमांचक संस्मरण, आदरणीय माँ की बुद्धिमत्ता को रेखांकित करते हुए। आभार और बधाई!!!

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  3. Bahut hi sundar charitra chitran. Dil ko chhu lene wala sahas aur apne bachhon me liye kuchh bhi kar gujarne ki himmat MAA hi just sakti HAI. Pranam MAA ko

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    1. बहुत धन्यवाद इस टिप्पणी के लिए...|

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