साल दर साल बीतने के साथ उम्र भी बढ़ती जाती है
और जब उम्र बढ़ती है तो तन के साथ मन भी थकने लगता है । उम्रदराज पुरुष तो किसी तरह
अपने तन व मन को थकने से बचा लेते हैं । उनका जब मन होता है, ऑफिस से छुट्टी लेकर अपने दोस्तों के साथ...परिवार के साथ मौज
मस्ती करके मन को तरोताजा कर लेते हैं, पर स्त्रियाँ ...?
पुरुष तो साठ के बाद रिटायर भी हो जाते हैं अपने काम से, पर स्त्रियों
के बारे में कहा जाता है कि वह तो मरने के बाद ही रिटायर होती हैं...| जवानी से लेकर
बुढ़ापे तक वे गृहस्थी की चक्की में इस कदर पिसती रहती हैं कि उन्हें तो यह भी याद
नहीं रहता कि उनके पास अपना भी कोई मन है | तन थक जाता है तो थोड़ी देर आराम करके फिर
गृहस्थी की चक्की में पिसने को तैयार हो जाती हैं, पर मन... उसका क्या करें...? घर गृहस्थी के कामों के साथ-साथ
उनके ऊपर बच्चों की जिम्मेदारी होती है...| उनके भविष्य की चिंता में पति साथ तो देते
हैं पर चिंता में घुलती स्त्रियाँ ज्यादा हैं ।
इन स्त्रियों से इतर मैं भी नहीं हूँ | अति संवेदनशील
होने के कारण गृहस्थी व बच्चों के चिंता में कुछ ज्यादा ही घुलती रहती हूँ | इस कारण
मेरा अपना कुछ भी नहीं रह गया है | उम्र बढ़ने के कारण तन के साथ मन भी कुछ ज्यादा
थक जाता है | इस थकान के साथ फिर कुछ भी नहीं कर पाती | इससे निजात पाने के लिए मैं
प्रयास भी नहीं करती | मेरी इस आदत से परेशान होकर दूसरे शहर में बीटेक की पढ़ाई कर
रहा मेरा नाती जब घर आया तो बोला, " अम्मा तुम क्या सारी जिंदगी इसी तरह रहोगी...? थोड़ा अपने लिए भी समय निकाल
लो | आज के बाद तुम हफ्ते में एक दिन अपने लिए रखोगी...| उस दिन ना घर का कोई काम करोगी
और ना किसी की चिंता करोगी | जब मैं छुट्टी में आऊँ तो मेरे साथ घूमोगी और जब मैं बाहर
रहूँ तो अपने किसी परिचित के साथ मौज मस्ती करोगी | अरे, जब महिलाओं के लिए इंटरनेशनल
विमेंस डे है, तो तुम्हारी जैसी के लिए हफ्ते में एक दिन भी अपना नहीं...?"
मैं चौक गई | इस दिन को तो मैं भूल ही गई थी | उसने
याद दिलाया तो उससे बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर कहा नहीं...| साल भर में सिर्फ एक दिन
का दिखावा करके कोई क्या साबित करना चाहता है कि उस दिन महिलाओं का महत्व बहुत ज्यादा
है...? बड़े-बड़े भाषण देकर इस एक रोज के लिए जश्न मना कर क्या कर लिया जाता है...?
मैं यहाँ दुनिया की बात ना करके सिर्फ अपने देश की स्त्रियों के बारे में बात करूँगी
|
क्या कभी किसी ने यह जानने की कोशिश की है कि हमारे
यहाँ 80% महिलाएं ऐसी हैं
जिनके लिए कोई भी दिन अपना नहीं है...? उनके लिए ना तन की थकन महत्व रखती है और ना
मन की...| गृहस्थी की चक्की में पिसते पिसते एक दिन वह खत्म हो जाती हैं | आँख बंद
करते वक्त भी वे उफ़ तक नहीं कर पाती | वह परिवार के लिए होती हैं, पर परिवार उनके लिए
नहीं होता | जवानी में पति परमेश्वर की छाया तले जीती हैं...फिर बुढ़ापे में बच्चों
की मेहरबानी पर...| दिन हो या रात उसमें उनका एक भी पल नहीं...|
दुनिया में अनगिनत स्त्रियाँ ऐसी हैं जिनके लिए महिला दिवस के कोई मायने नहीं...।
मायने है तो सिर्फ बच्चे पैदा करना, परिवार को संभालना...पति का मुँह जोहना...। पति को कभी उन पर
तरस आया तो थोड़ा बहुत घुमा फिरा दिया, वे उसी में खुश...। मैंने ऐसी तन से निचुड़ी और मरे हुए मन के
साथ जीती स्त्रियों को देखा है, जो चलती फिरती एक जिंदा लाश से ज्यादा कुछ नहीं...|
मेरी चचेरी बहन सोमा एक ऐसे ही अभिशप्त स्त्री है
जो अपनी कुछ कमियों के चलते अपने जीवन को बस ढो रही है...। उसका अपना कुछ भी नहीं...और
परिवार के पास भी उसके लिए कुछ नहीं | मैं समाज से पूछना चाहती हूँ कि दुनिया में बाहरी
सौंदर्य ही महत्वपूर्ण है...? मन की खूबसूरती कोई मायने नहीं रखती...?
सोमा का एकदम औसत कद...साधारण चेहरा...कुछ शारीरिक
परेशानी उसके जीवन का अभिशाप बन गया| बीस साल की उम्र में कई परिवार में उसके विवाह
के बात चली, पर किसी भी लड़के को वह आकर्षक नहीं लगी | हर जगह से इनकार होने के
बाद मायके में मायूसी छाने के साथ एक अदृश्य गुस्सा फूटने लगा...| पता नहीं कौन सा
खोटा भाग्य लेकर यह लड़की पैदा हुई है, जिसकी शादी ही नहीं हो पा रही...| इसे देखने
आए लड़के इसकी छोटी बहन का हाथ मांग बैठते । इन सब कारणों से वह डिप्रेशन में जाने
लगी, तभी एक बेहद ही साधारण
परिवार के हाई स्कूल पास,
मामूली पद पर कार्यरत
लड़के का पता चला । सोमा को दिखाया गया । इत्तेफाक से उसे पसंद कर लिया गया...।
सोमा डबल एम.ए, पति हाई स्कूल…, सोमा अपनी शारीरिक
व मानसिक कमजोरी को जानती थी, इसलिए स्वीकार करने के सिवा उसके पास कोई और रास्ता नहीं
था...| सोचती विवाह के बाद शायद उसकी जिंदगी बदल जाए, पर यह क्या...? जिंदगी बदल तो
गई पर उसका अपना जो भी मायके में थोड़ा बहुत था, पूरी तरह खत्म हो गया | बेहद रसिक
मिजाज पति...हर वक्त उसे गाली देकर बात करने वाला ससुर...असहाय सास...| वह अपने को
भूलकर दिन-रात सब की सेवा में जुट गई | शायद सब का मन उसकी सेवा से पिघल जाए...पर पत्थर
कभी पिघलता है क्या...? इधर चार- पाँच साल के अंतराल
पर माता-पिता चले गए, उधर थोड़ा सा सहारा बनी सास का भी देहांत हो गया | कुछ दिन भाई
बहनों ने पूछा, फिर अपनी परेशानियों के चलते उन्होंने भी हाथ खींच लिया | उस अभागी
स्त्री की जिंदगी और भी अभिशप्त तब हो गई जब पाँच साल के बाद भी उसे कोई संतान नहीं
हुई | पति दूसरी औरत लाने की बात करने लगा...ससुर की गालियाँ और बढ़ गई | एक अभागी
और बाँझ स्त्री का कलंक लिए वह जीती रहती कि तभी मायके वालों ने उसे एक बच्चा गोद दिला
दिया | भयानक विद्रोह के बीच भी वह मौन रहकर एक गूंगी जिंदगी जीते हुए बच्चे को पालती
रही | आज भी वह मानती है कि उसके भाग्य में अगर कुछ अच्छा हुआ तो इतना भर...कि मानसिक
प्रताड़ना के बावजूद पति ने कभी हाथ नहीं उठाया |
एक बार मैंने उससे कहा था कि मानसिक प्रताड़ना
भी देना एक तरह का अपराध है | वह चाहे तो इसके खिलाफ मैं उसकी सहायता कर सकती हूँ...तो
उसने जो जवाब दिया उसने मुझे गूंगा बना दिया, “दीदी प्रताड़ना का विरोध वह करता है,
जिसके पास कोई दम हो...सहारा हो...| अपनी बीमारी के चलते मेरा तन इतना थक गया है कि
मैं चाहूँ तब भी कुछ नहीं कर सकती | एक बात तुमसे पूछती हूँ कि अगर मेरे मुँह खोलते
ही यह मुझे घर से निकाल दे तो क्या तुम मुझे सहारा दोगी...? मेरे साथ-साथ इस बच्चे
का खर्चा उठा लोगी...? नहीं ना...?
अपनी शारीरिक अक्षमता के चलते मैं नौकरी भी नहीं कर सकती | यहाँ
कम से कम गाली के साथ रोटी तो मिलती है...| बड़े होते बच्चे की पढ़ाई तो चल रही है...|
आधी जिंदगी बीत गई, आधी भी बीत जाएगी...| दीदी, तुम दुखी मत हो | इस दुनिया में मुझसे
भी ज्यादा बुरी जिंदगी जीती स्त्रियाँ है, जो मरती नहीं...बस जिए जाती हैं, पर उफ़ नहीं
करती...।"
मैं निरुत्तर थी...पर मेरा मन बेचैन हो उठा...।
काश ! एक दिन इसकी जिंदगी में भी ऐसा आए, जब कभी इसका जवान नाती इससे
कहे, "अम्मा...बस सिर्फ
यह एक दिन नहीं, अब हर दिन तुम्हारा
है...।"
-प्रेम गुप्ता 'मानी'