माँ,
आज तुम्हारी इजाज़त के बग़ैर
मैं
तुम्हारे भीतर की सुरंग में उतर रही हूँ
यद्दपि,
तुमने जीते जी
कभी वहाँ झाँकने भी नहीं दिया
पर आज,
जब मेरे पाँव तले की धरती
खिसक रही है
मैं जानना चाहती हूँ कि
बिना किसी ठोस आधार के
तुम जीती कैसे थी?
एक इतिहास
जो ढेरो-ढेर स्त्रियों के क्रंदन का है
तुमने रचा
और बंद कर लिया अपनी गुफा में
वह गुफा
काफी लम्बी...गहरी और अंधेरे से भरी हुई है
माँ,
मैं जानती हूँ कि
ऊबड़-खाबड़ पत्थरों
दलदली मिट्टी
और दरकती दीवारों वाली खोह में
कहीं दफ़न है वह इतिहास
और उसके पीले पन्नों में
आज भी दर्ज है
प्रागैतिहासिक काल का सच
माँ,
मैं तुम्हारी बड़की
देखती थी कि
जब-जब तुम्हारे भीतर का अंधेरा
तुम्हारी आँखों के रस्ते
बाहर आने को ललकता था
तब-तब
पानी की एक घूंट भर कर
तुम उसे भीतर सरका देती थी
क्या तुम्हें पता नहीं था कि
उसे भी,
हवा-पानी और रोशनी की दरकार थी
माँ,
तुम्हारी कोशिश को नकार
तुम्हारा अंधेरा
तुम्हारी आँखों की कोर-बिन्दु से टपक
मेरे भीतर भर गया था
और उसी दिन
तुम्हारी आँखों से टपका
एक मोती
मैने चुपके से चुरा लिया था
समय से परे वह मोती
आज भी मेरे आँचल से बंधा है
और अक्सर
मेरे एकांत में
तुम्हारी चुगली करता है
माँऽऽऽ
नानी की कहानी सुनाते वक़्त
तुम कितना-कितना तो रोई थी
आठ बेटियों के बोझ(?) से दबी
मेरी नानी
अपनी कोख का बदला चुकाते वक़्त
कैसे भूल जाती थी
तुम्हारे नन्हे-नन्हे हाथों को
जो बर्तन घिसते-घिसते
खुद घिस गए थे
और कच्चे फ़र्श की धूल
तुम आठों बहनों की आँखों में भर कर
तुम सबके सपनों की उजास को
ढँक लेती थी
आज जब
नन्हें-मुन्नों से लेकर
जवान-जहान लड़कियों को
टाइट स्कर्ट और जीन्स में देखती हूँ
तब सोंचती हूँ कि
मात्र आठ बरस की उमर में
कैसे पहनती थी तुम
पाँच गज़ की साडी...?
और तेरह बरस की कच्ची उम्र में
ढेर सारे
भारी गहनों से लदकर
नन्हें-नन्हें पाँवों में महावर रचा
नंगे पाँव
कैसे उतरी होगी पालकी से
सासरे की ठोस-पथरीली ज़मीन पर?
माँ,
आज पूरी निडरता से पूछती हूँ तुमसे
क्या नानी की छाती में
दिल नहीं धडकता था?
तुम आठों बहनों का
क्या कसूर था?
तुम्हारी मासूमियत
उन्हें पिघलाती नहीं थी?
माँ,
तुम्ही से जाना था
नाना अंग्रेजों के ज़माने के अफसर थे
हिन्दुस्तानी होने के बावज़ूद
उनके अंग्रेज मातहत भी काँपते थे उनसे
अंग्रेजों
का साम्राज्य
ऐसे विद्वान अफसरों पर ही तो टिका था
मैं जानना चाहती हूँ कि
ऐसे विद्वान-कडक आदमी को भी
एक बेटे का सहारा चाहिए था?
नाना,
दूसरी शादी करते कि
नानी एक के बाद एक
चार बेटों की सौगात दे मुक्त हो गई
उस दुनिया से ही
जहाँ बेटियों की कोई कदर नहीं थी
और,
भारतमाता की तरह
बेटियों की माएं भी गुलाम थी
वे परम्पराओं की जंजीर से बंध कर
उसमें अपनी बेटियों को भी जकड लेती थी
पर माँ,
मैं पूछती हूँ तुमसे
तुम तो आज़ाद भारत में माँ बनी थी?
पिता भी आज़ादी का समर्थन करते थे
फिर किन सरोकारों के चलते
एक बेटे की चाहत ने
तुम दोनो को जकड लिया था
और बडे अरमान से तुमने
अपनी मन्नतों की कोख को सींच कर
सड़ी-गली मान्यताओं की
अंधेरी...सीलन भरी उस कोठरी में
जहाँ दस बेटियाँ जन्मी थी
तुमने सहसा
एक बेटे को जनम दे
चौंका दिया था
दादा-दादी और पिता को
उन सबका बस यही एक अरमान था
माँ - याद है?
पूरा महीना "घर"
रोशनी से नहाया रहा
और तुम्हारे वे पाँव
जो मात्र तेरह बरस की उमर में
पथरीली ज़मीन की ठसक से आहत थे
अब उन पर पिता के हाथों का मरहम था
माँ- तुमने और पिता ने
उस बेटे का नाम भी रखा तो..."अरमान"
पर माँ
एक बेटे की कीमत पर
कहीं-न-कहीं नानी की तरह
तुम भी हारी थी
यद्यपि
पिताजी नानाजी की तरह कडक नहीं थे
पर परम्पराओं से आज़ाद भी नहीं थे
वंश को आगे बढाने के लिए
उन्हें भी चाहिए था
एक बेटा...
एक ऐसा बेटा जो बुढापे का सहारा बने
माँ...तुम्ही बताओ
क्या बेटियाँ सहारा नहीं बनती?
वंश-ग्रंथावली में उनका नाम क्यों नहीं होता?
माँ,
तुम नानी की तरह
अपने बोझ(?) का बदला
अपनी बेटियों से नहीं लेती थी
पर हर बरस
जब तुम्हारी कोख हरी होती
तब पूरे नौ महीने
तुम्हारी आँखों में
एक अनकही पीड़ा भरी रहती
पिताजी,
अपने सपनो की सारी उजास
सारी खुशियाँ
तुम्हारे आँचल में डाल देते
पर उन्हें लेते भी
तुम्हारे हाथ काँप-काँप जाते
चकित हूँ माँ
यह सोच कर कि
साल-दर-साल का ही फ़र्क था हम बहनों में
पर फिर भी
अपनी मासूम आँखों से
तुम्हारे दर्द को महसूसती ही नहीं थी
बल्कि,
अपनी नन्हीं हथेलियों से उन्हें
समेटने की कोशिश करती थी
अपने गोल घडे जैसे पेट को
सावधानी से पकड कर
अपने भीषण दर्द को होंठो से दबा कर
अपने बच्चों के लिए ढेर सी
पूडी-सब्जी बना कर
जब तुम पतली-मरगिल्ली सी
दाई के साथ
अंधेरी कोठरी में जाती थी
तब पल भर के लिए
हम सब की सांसे थम जाती थी
पिता बहुत बेचैन हो उठते
उनके हर क़दम के साथ
तुम्हारी ज़िन्दगी भी जैसे
चलती-थमती थी
और हम सब की खुशियाँ भी
माँ,
ग्यारहवीं बार तुमने
कूडे के ढेर ( बेटियों) पर
एक हीरे (?) को जनम दिया
माँ-
आज तुम नहीं हो
पिता भी नहीं हैं
पर काश! माँ,
उस वक़्त हम नन्हीं बच्चियाँ
तुम्हें बता सकती
पिताजी के सपनों की उस उजास की बात
जो पूरे घर में फैल गई थी
मरियल सी दाई के पैरों पर झुके
पिताजी की आँखों से गिरे
खुशी के वे आँसू
आज भी
हमारे घर की दीवार पर टँगी
पिताजी की तस्वीर पर
ठहरी हुई है
माँ-
तुम नानी की तरह नहीं थी
पर उनका अंश तुम्हारे भीतर था
तभी तो
अरमान को पालने, बडा करने
खूब पढाने
और बडा आदमी बनाने के जनून में
अपनी बेटियों के अरमानों को भूल गई
और जब याद आया
पिताजी ने तुम्हारा साथ छोड़ दिया
और उसके चंद महीने बाद
तुमने अपनी बेटियों का...
माँ-
आज मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ
कि जिस अरमान को
तुमने बड़े अरमान से पाला था
वह विदेश में
अपनी पत्नी के साथ सुखी है
और इतना सुखी कि
उसने हमारी ओर मुड़ कर भी नहीं देखा
माँ
क्या तुम जानना नहीं चाहोगी
कि तुम्हारी बेटियाँ कैसी हैं?
आज मैं तुम्हें ही नहीं
पिताजी को भी बताना चाहती हूँ
कि छुटकी
किसी आवारा लड़के के साथ भाग गई है
और मंझली...
गैंगरेप का शिकार हो
ख़ुदकुशी कर चुकी है
माँ,
दुःख के क्षणों में तुम्ही कहा करती थी न
कि हम
दस बहनें नहीं,
दस उँगलियाँ हैं तुम्हारी
मुट्ठी बंध जाए तो तुम्हारी ताकत हैं
पर माँ
दो उँगलियाँ तो कट गई
और आठ उँगलियों से मुट्ठी नहीं बंधती
बांधने की कोशिश करते हैं
तो एक खालीपन घेर लेता है
माँ,
हम आज़ाद देश की लड़कियाँ हैं
हमें पूरी आज़ादी है
चाहे तो छोटे-छोटे कपड़े पहन कर
बाज़ारों में घूम सकते हैं
बिना कपड़ों के भी
खुली हवा में साँस ले सकते हैं
माँ,
जानती हो
आज हमारे देश में
हर बरस
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है
उन्हें शिक्षित करने का संकल्प लिया जाता है
पुरुषों के कंधे-से-कंधा मिला कर
चलने की हिम्मत दी जाती है
सब कुछ है
इस आज़ाद (?) देश में
पर बेटियों के
जिस्म की सुरक्षा का संकल्प नहीं
जिन बेटियों के पास कोई "अरमान" नहीं
उनकी सुरक्षा का संकल्प कौन लेगा?
मंदिर-मस्ज़िद-गुरुद्वारा
या कोई महिला-आश्रम...?
माँ,
हम पूरी दुनिया को बताना चाहते हैं
कि हम भी झांसी की रानी है
हम भी इंदिरा गांधी हैं
हम भी ठोस हैं- इस धरती की तरह
पर माँ,
अब दुनिया हमें बता रही है
झांसी की रानी का अंत
इंदिरा गांधी का हश्र
और ख़त्म होती ओजोन परत से
सूखती धरती का भविष्य...
माँ,
जिस घर को
पिताजी ने अरमान के लिए
बड़े "अरमान" से बनाया था
अब उसके चौबारे पर
गुंडों का कब्जा है
सारी रात शराब और शबाब का दौर है
और है काँपती हुई फ़िज़ा
माँ, याद है तुम्हें?
दसवीं बार में जब तुमने छुटकी को जन्मा था
तब तुम्हारे होंठ बुरी तरह काँपे थे
और तुम्हारी आँखों से बहा था
खारे पानी का झरना
सारी रात उस झरने के नीचे बैठ कर
तुमने किससे कहा था-
"अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो"
माँ...
वह झरना आज भी बह रहा है
और तुम्हारी बेटियाँ भी
सारी रात भीगती हैं उसमें
पर माँ,
इस जनम का क्या करूँ ?
सोचती हूँ
इस पुरानी...जर्जर हवेली का
चरमराता दरवाज़ा टूटे
उससे पहले ही
हमें पूरी हिम्मत के साथ
बाहर आना होगा...
बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका
Deleteसुंदर रचना.... आपकी लेखनी कि यही ख़ास बात है कि आप कि रचना बाँध लेती है
ReplyDeleteशुक्रिया संजय जी...|
Deleteआभार !
ReplyDelete