विभिन्न न्यूज़ चैनल्स पर महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव लातूर में पानी की भयानक किल्लत देख कर मन भर आया। एक-एक बूँद पानी के लिए वहाँ लोग तरस रहे थे। ‘मरता क्या न करता’ वाले हिसाब से गन्दे...काई जमे तालाब से पानी लेकर पीने को मजबूर हैं वे लोग...। इस सूखे की मार झेलते जाने कितने किसानों ने आत्महत्या कर ली है। यह सब देख कर कुछ देर के लिए हमारा मन ज़रूर भर आता है, पर असल में हम करते क्या हैं? सूखा सिर्फ़ लातूर या उस जैसे देश के कई अन्य हिस्सों में ही नहीं पड़ा है, बल्कि हमारे भीतर भी संवेदना की नदी इस कदर सूख गई है कि किसी के आँखों की नमी हमारी आत्मा तक पहुँचती ही नहीं...। हम अपने शहर...अपने घरों के अन्दर सुख और सकून से जीते हुए उसे ही सारी दुनिया का सच माने रहते हैं...।
काश! हम ज़िन्दगी की ज़रूरतों से उपजे छोटे-छोटे सुख-दुःख को समझ पाते...और समझ पाते कि रोटी-कपड़ा-मकान से भी ज़्यादा ज़िन्दा रहने के लिए जिस चीज़ की ज़रूरत है, वो है-पानी...। हम अपने घर में पानी का इफ़रात इस्तेमाल करते हैं, लापरवाही से नलों को खुला छोड़ देते हैं...। सड़कों पर किसी सार्वजनिक नल के खुला होने या किसी पाइप लाइन के टूटे होने पर फ़ालतू बहता पानी हमें कभी भी अपनी चिन्ता या ज़िम्मेदारी का विषय नहीं लगता...। हम इन सबसे बेपरवाह अपनी ही दुनिया में मस्त रहते हैं...।
पर लातूर या उस जैसे अन्य जगहों को देख कर हमको अब भी सचेत नहीं हो जाना चाहिए...? पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुंध दोहन के रूप में अपनी अब तक की ग़लतियों के ऐसे भीषण परिणाम से क्या अब हमको सबक नहीं लेना चाहिए...? कितना अच्छा हो यदि हम अब भी इन सब से सीख लेकर सुधरने की शुरुआत पानी से ही करें...। अपनी ज़रूरत के हिसाब से ही उसे खर्च करें और यथासम्भव कोशिश करें कि हम उसकी एक बूँद भी बर्बाद नहीं होने देंगे।
ऐसा करके हम अपने ही बच्चों के उस भविष्य को सुरक्षित करेंगे जिनके लिए हम आज खून-पसीना बहा कर भौतिक सम्पदा इकठ्ठी करते हैं...। कल को कहीं ऐसा न हो कि हमारी जमा की गई भौतिक सम्पदा के ढेर पर बैठे...एक बूँद पानी को तरसते हमारे बच्चे भी ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून...’ को बेहद शिद्दत से महसूस करते हुए हमको कोस के रह जाएँ...।
(चित्र गूगल से साभार )
काश! हम ज़िन्दगी की ज़रूरतों से उपजे छोटे-छोटे सुख-दुःख को समझ पाते...और समझ पाते कि रोटी-कपड़ा-मकान से भी ज़्यादा ज़िन्दा रहने के लिए जिस चीज़ की ज़रूरत है, वो है-पानी...। हम अपने घर में पानी का इफ़रात इस्तेमाल करते हैं, लापरवाही से नलों को खुला छोड़ देते हैं...। सड़कों पर किसी सार्वजनिक नल के खुला होने या किसी पाइप लाइन के टूटे होने पर फ़ालतू बहता पानी हमें कभी भी अपनी चिन्ता या ज़िम्मेदारी का विषय नहीं लगता...। हम इन सबसे बेपरवाह अपनी ही दुनिया में मस्त रहते हैं...।
पर लातूर या उस जैसे अन्य जगहों को देख कर हमको अब भी सचेत नहीं हो जाना चाहिए...? पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुंध दोहन के रूप में अपनी अब तक की ग़लतियों के ऐसे भीषण परिणाम से क्या अब हमको सबक नहीं लेना चाहिए...? कितना अच्छा हो यदि हम अब भी इन सब से सीख लेकर सुधरने की शुरुआत पानी से ही करें...। अपनी ज़रूरत के हिसाब से ही उसे खर्च करें और यथासम्भव कोशिश करें कि हम उसकी एक बूँद भी बर्बाद नहीं होने देंगे।
ऐसा करके हम अपने ही बच्चों के उस भविष्य को सुरक्षित करेंगे जिनके लिए हम आज खून-पसीना बहा कर भौतिक सम्पदा इकठ्ठी करते हैं...। कल को कहीं ऐसा न हो कि हमारी जमा की गई भौतिक सम्पदा के ढेर पर बैठे...एक बूँद पानी को तरसते हमारे बच्चे भी ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून...’ को बेहद शिद्दत से महसूस करते हुए हमको कोस के रह जाएँ...।
(चित्र गूगल से साभार )
असंवेदनशील हो चुके समाज मे संवेदना कायम करने की मुहिम चलनी चाहिए। संवेदन् हीनता का सामाजिक बहिसकार भी शायद उपाय हो
ReplyDeleteशायद...| टिप्पणी के लिए आभार...|
Deleteसार्थक सामयिक चिंतन..... बिन पानी सब सून. .
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए आभार...|
Deleteसार्थक सामयिक
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteआभार
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