`कथाक्रम' के जुलाई-सितम्बर २०१४ के अंक में प्रकाशित मेरी कहानी...
उस भयानक सपने के कारण सहसा उसकी
नींद फिर टूट गई थी...। चारो तरफ़ अन्धेरा ही अन्धेरा था और वह पूरी तरह अन्धेरे में
डूबी हुई थी...। कुछ इस तरह जैसे किसी ने उसे उठा कर नमकीन पानी से भरे ड्रम में फेंक
दिया हो। ड्रम में उसका दम घुटने लगा था। दिल की धड़कन बेकाबू हो गई थी। उसने अनायास
ही सीने पर हाथ का दबाव दिया और घबरा कर उठ बैठी, पर दूसरे ही क्षण चौंक गई।
यह क्या...? उसका तो पूरा बदन ही पसीने से इस कदर सराबोर था, जैसे अभी-अभी किसी चिपचिपे झरने के नीचे से निकल कर आइ हो। आखिर
उसे हो क्या जाता है? अच्छी-खासी तो सोती है
पर रात बीतते न बीतते नींद में ही बेचैन होने लगती है...। यह कैसा सपना है जो आधी रात
के बाद उसका पीछा करता है और फिर ऐसी जगह लाकर छोड़ देता है, जहाँ सिर्फ़ अन्धेरा है। एक अजीब सा अन्धेरा...हाथ को हाथ सुझाई
नहीं देता। मदद के लिए चीखना चाहती है तो आवाज़ नहीं निकलती...भागना चाहती है तो पैर
जवाब दे जाते हैं...। ऐसे में वह अवश-असहाय सी रह जाती है...।
उसने आँखें फाड़ कर चारो ओर
देखा। सामने की प्लास्टर उखड़ी...सफ़ेद...बदरंग दीवार पर दादी की बड़ी सी तस्वीर टँगी
थी और उस तस्वीर पर जाने कब की मुर्झाई माला झूल रही थी। न तो माँ ने और न ही किसी
और ने उस ओर ध्यान दिया...। जीते-जी भी दादी का जीवन कोई बहुत अच्छा नहीं बीता था...।
शायद इसी वजह से तस्वीर में भी दादी बहुत उदास दिख रही थी। उस निपट अन्धेरे में भी
उसने उनके अशक्त होंठो के कम्पन को महसूस किया,"लाडोऽऽऽ, एक बात जानती है...दूसरे का दिया
अन्धेरा तो डराता ही है, पर अपने
मन का अन्धेरा...? ये डराता ही नहीं, बल्कि खा जाता है और तुझे इस अन्धेरे से बचना ही नहीं, जीतना भी है...।"
उसकी आँखों में आँसू आ गए।
दादी जब तक ज़िन्दा रही, उसे उस
अन्धेरे से बचाने की भरसक कोशिश करती रही। उनकी इस कोशिश में उनकी वह जंग लगी...सड़ी-सी
सन्दूकची भी शामिल थी, जिसमें न जाने कब का टूटा-फूटा...बदरंग
और बेकार का सामान ही नहीं रखा था, बल्कि
टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखी कुछ पोथियाँ भी थी। इन पोथियों में दादी ने अपने मन की
उन ढेर सारी बातों को दर्ज़ किया हुआ था, जिन्हें कोई कभी सुनता नहीं था। उन सबके लिए वो कोरी बकवास थी, पर न जाने क्यों ये पोथियाँ या इनमें लिखी बातें उसके लिए किसी
जिन्न से कम नहीं थी...। ये जिन्न मुसीबत के समय उसके लिए एक सुरक्षा घेरा बना देते
थे, पर अब...? दादी क्या गई, सारे जिन्न अपने साथ ले गई, पर अपनी
यादें...? उन्हें एक धरोहर की तरह सहेज कर
उसके पास छोड़ गई।
बचपन से लेकर अब तक उसे दादी
की एक-एक बात याद है जैसे...खास तौर से वह कि अन्धेरे से कभी हारना नहीं है...पर वह
क्या करे...? यह जंगली अन्धेरा एक काली बिल्ली
की तरह उसके भीतर अपने पैने पंजों को गड़ा कर जो बैठ गया है...इसे वह अपने वजूद से कैसे
अलग करे...?
एक भरे-पूरे परिवार में रहने
के बावजूद उसे जो कैक्टसी अकेलापन घेरता है, उसके लिए वह माँ को पूरी तरह से दोषी नहीं मान सकती। यद्यपि इस कैक्टसी पौधे को
उसके बचपन में माँ अनजाने ही रोप बैठी। ढेर सारे पसीने से गन्धाते बदन को धक्का मारती
माँ की उँगली पकड़े छुक-छुक करती ट्रेन के गन्दे से डिब्बे की नंगी सीट पर छोटी सी पालथी
मार कर वह माँ के लिए जगह बना ही लेती...। माँ भीड़ से परेशान रहती, पर उसे उस गन्धाती...थप्पड़ मारती हवा के बीच भी इतना मज़ा आता
कि वह उठ कर खिड़की के बाहर झाँकने का प्रयास करती और इस दौरान ढेरों बेतुके प्रश्न...ये
लाइन से इतने सारे पेड़ क्यों खड़े हैं...? माँऽऽऽ, ये ट्रेन भाग रही है या पेड़...? माँऽऽऽ, इत्ते
सारे लोग गाड़ी में कहाँ से आए...? गाड़ी
कौन चला रहा है...?
माँ उसके सवालों का जवाब देते-देते
पस्त हो जाती। अगर मायके जाने का मोह न होता तो कभी इतनी दूर भीषण गर्मी में सफ़र न
करती, पर क्या करे...? इसी समय हर जगह स्कूलों की छुट्टी होती और उसके भाई-बहन भी अपने
बच्चों समेत तभी इकठ्ठा होते...।
माँ के चेहरे के चढ़ते-उतरते
भावों की महीन ऊब भरी रेखाओं से वह अनजान नहीं थी। उस नन्हीं सी उम्र में इतनी समझ
तो आ ही गई थी, पर उन प्रश्नों का क्या करती जो
हर गर्मी की छुट्टी में नानी के घर जाते वक़्त उसे परेशान करते थे।
ट्रेन और शोर अपनी गति से थे
और वह अपनी बाल-गति से...। कुछ देर चुप रहने के बाद उसने मुँह खोला ही था कि तभी माँ
झल्ला उठी थी,"बकबक करना बन्द करो...नहीं तो
यहीं इस जंगल में उतार दूँगी...समझीऽऽऽ...। फिर तुम भी इन पेड़ों के साथ भागती फिरना...।"
वह एकदम सहम गई थी, पर उस सहमन के बीच भी एक प्रश्न करना नहीं भूली थी,"माँऽऽऽ, जंगल
में तो ढेर सारे जानवर होते हैं न...? शेर, भालू...चीता और भूत भी...और माँ...फिर
तो हम मर जाएँगे न...?"
"हाँ...इसीलिए तो कह रही
हूँ कि चुपचाप बैठो और बाहर भागते हुए जंगल को देखो...।" वह माँ के जवाब से बेहद
डर गई थी। उसके चेहरे पर एक ख़ौफ़ सा उभर आया था...। नानी के घर पहुँच कर भी ख़ौफ़ के साए
में बंधी उसकी वह खामोशी नहीं टूटी थी। माँ क्या, कोई भी नहीं समझ पाया था कि उसकी छोटी-सी दुनिया में जंगल अपने पूरे अन्धेरे के
साथ उतर गया था।
सहसा वह चिहुंक पड़ी...। आसपास
अब भी हल्का-सा अन्धेरा पसरा था और वह नींद में ही उस सपने से डर गई थी। यद्यपि माँ
अब भी उसके डर की वजह नहीं जान पाई थी, फिर भी उसके कहने पर उन्होंने उसके कमरे में ज़ीरो वॉट का बल्ब लगवा दिया था...।
ज़ीरो वॉट का वह बल्ब रोशनी कम, भयावहता
ज्यादा फैलाता था, पर माँ से इस अहसास को
कैसे बाँटती? माँ इस बात को कैसे समझ पाती कि
चुप कराने के लिए नन्हीं बच्ची को जिस जंगल
से उन्होंने डराया था, वह तो अब उसके भीतर एक
विशाल, घने जंअगल का रूप ले चुका है...।
दिन के उजाले में सारे जीव भीतर दुबके रहते हैं, पर शाम घिरते ही धीरे-धीरे अंगड़ाई लेना शुरू कर देते हैं...और फिर जब सारा घर सो
रहा होता है, तो वह जागते हुए उन खतरनाक जीवों
से लड़ रही होती है...और जब थक कर आँखें बन्द करती है तो सपने का आकार लेकर वे फिर उसे
डरा देते हैं...।
आज भी उस कटखने सपने ने उसे
इस कदर डरा दिया था कि लगा कि दिल पूरी रफ़्तार से दौड़ लगाता अपनी परिधि से बाहर आ जाएगा...और
वह...? उसकी आँखों में पूरा समुद्र भरा
हुआ था पर गला था कि इस कदर चटख रहा था, जैसे जलते हुए रेगिस्तान की बलूई ज़मीन पर चलते हुए उसने मीलों का रास्ता पार किया
हो।
वह उठ कर बैठ गई। गीली आँखों
से दीवार घड़ी की ओर देखा , उसकी
सुई पाँच पर चहलकदमी कर रही थी। उफ़ऽऽऽ, जाग तो गई थी फिर उठने में देर कैसे हो गई...। अभी थोड़ी देर और होती तो चीख-चिल्लाहट
से मन खीज जाता,"दीदीऽऽऽ...ज़रा जल्दी बाथरूम खाली
कीजिए न...आज मेरा टेस्ट है साइंस का...जल्दी कॉलेज पहुँचना है...।"
"लाडोऽऽऽ, थोड़ा और जल्दी उठा कर बेटा...जानती तो है कि पिताजी को एनीमा
लेने की आदत है...। क्या करूँ बेटा, मेरे
इस गठिया के दर्द ने तो मुझे मार ही डाला है...वरना क्या तुझे परेशान करती...?"
उसने माँ की बात का कोई उत्तर
नहीं दिया। माँ ही अगर समझती तो यह दिन क्यों आता? क्या बड़ी बेटी होना अपराध है जो पूरे घर की जिम्मेदारी सम्भालते हुए अपनी ज़िन्दगी
को एक अभिशाप की तरह ढोए? अब रोज़
इससे जल्दी क्या करे? सारी रात तो जागती है, एक तो देर होने के भय से...और दूसरा वह सपना...।
रोज की तरह गुसलखाने के बाहर
एक लम्बी कतार थी। उसका दरवाज़ा आधा सड़ कर टूट गया था। उसमें नहाने वाले की आधी नंगी
टाँग साफ़ दिखाई पड़ती थी...। पैरों में साबुन लगाने की जहमत भाई तो उठा लेते थे, पर बहनें डरती थी...। सामने पिताजी के कमरे का दरवाज़ा जो पड़ता
था और पिताजी ठीक दरवाज़े के सामने बिछे तख्त पर लेटे बाहर का सारा नज़ारा देखते रहते
थे। पिताजी के कमरे और आँगन में बने गुसलखाने के बीच जो छोटा-सा दालान था, माँ ने उसके एक कोने में ही रसोई बना रखी थी। रसोई क्या थी...पूरा
कबाड़खाना...। एक कोने में पता नहीं कितनी पुरानी लकड़ी की अलमारी टँगी थी, जिस पर बेतरतीब बर्तन रख दिए गए थे। जगह की कमी के चलते फ़्रिज
भी वहीं एक कोने में रखा था। सामने छोटे से पत्थर पर गैस-चूल्हा...कुल मिला कर ठीक-ठाक
सी रसोई थी। कोई बाहरी आता नहीं था और परिवार के लोगों का खाना आराम से तैयार हो जाता
था। माँ हमेशा पूजा-पाठ या पिताजी की सेवा में जुटी रहती...भाई-बहन अपनी पढ़ाई में और
वह पूरे घर के खर्चे का भार अपने कन्धे पर उठाए फिरती...। पिताजी जब लेबर-ऑफ़िस में
इंस्पेक्टर थे, तब तन्क़्वाह भले ही अधिक न रही
हो, पर फिर भी घर ठीक-ठाक चल रहा था।
पर उनके बीमार पड़ने, समय से पहले रिटायर हो
जाने के कारण सब कुछ ऐसा तहस-नहस हुआ कि अगर वह बीच में पढाई छोड़ कर नौकरी न करती तो...?
"लो...फिर से वही...। फ़्रिज
कित्ता तो खराब हो गया है...देख...। पानी की नली जाम होने से सारा पानी फिर भीतर ही
गिर गया और ये सब्जियाँ फिर खराब हो गई...। बाकी सामान तो ढँक-ढूँक कर रख देती हूँ, पर इन सब्जियों का क्या करूँ...? बाकी को तो बना कर खिला दूँगी, पर पिताजी
को यह गीला-सड़ा पालक नुकसान करेगा न...।"
माँ रुआँसी होकर कुछ और रोना
रोती कि तभी उसने सौ का नोट लाकर माँ के हाथों में थमा दिया,"माँऽऽऽ, डॉक्टर
ने पिताजी को ताज़ी हरी सब्जी और सेब खाने को कहा है न...ऐसा करो, तुम उनके लिए ताज़ी सब्ज़ी मँगा लो...बाकी हम लोग खा लेंगे...।"
सहसा माँ रोने लगी,"बेटा, मैं तुझे
परेशान नहीं करना चाहती...पर क्या करूँ...? तेरे पिताजी की बीमारी ने घर के खर्चे बढ़ा दिए हैं...फिर निशा, ऊषा, राजू
और बबलू की पढ़ाई...कुछ सूझता नहीं है...। पेन्शन भी इतनी कम है कि उससे तो सिर्फ़ तेरे
पिताजी का इलाज ही हो पाता है...। अगर तू न संभाले तोऽऽऽ...।"
एक अजीब सी खीझभरी सिहरन उसके
भीतर तक उतर गई...। यह रोज सुबह-सुबह सारी सच्चाई जानने के बावजूद माँ क्यों सारी परेशानियों
का रोना रोती रहती है...? वह भी
तो सब कुछ जानती है , फिर क्यों याद दिला कर
उसके दिन के चन्द उजाले को अन्धेरे में तब्दील कर दिया जाता है। जिस डर से बचना चाहती
है, माँ अनजाने ही उसे उस डर के सामने
ला खड़ा कर देती हैं...।
माँ रसोई में नाश्ता बनाते-बनाते
बड़बड़ा रही थी, पर उसने जबरिया अपने को इन बातों
से अलग किया और पूरी तौर से तैयार होकर बाहर आ गई। घड़ी की सुई नौ बजा रही थी और उसे
समय से ऑफ़िस भी पहुँचना था...।
माँ ने उसे टिफ़िन पकड़ाया तो
सहसा ही वह ठिठक गई। माँ ने पिताजी के लिए सूजी का हलवा बनाया था। सुबह-सुबह इतना भारी
नाश्ता...और वह भी पिताजी को...। डॉक्टर ने कितना समझाया है कि उन्हें जिस तरह दिल
की बीमारी है, उसमें ऐसा घी वाला भारी नाश्ता
कितना नुकसान पहुँचा सकता है...। ये घी, मलाई...सब ज़हर है उनके लिए...पर माँ को कौन समझाए...? उनके तर्क और पिताजी के चटोरेपन से वो हारी है...। सादा खाना खाने को पिताजी तैयार
नहीं और लजीज़ पकवान खिलाने को माँ हर वक़्त आतुर,"यह डॉक्टर तो बस बकवास करते हैं...। अरे, अच्छा खाना खाने से कोई बीमार पड़ता है भला...? घी-दूध से तन्दरुस्ती बनती है न कि बिगड़ती है...।"
एक बार घर की हवा बिगड़ती है
तो बस सब कुछ गड़बड़ा ही जाता है...। वह न माँ को सँभाल सकती है और न खुद को...यह किचकिच
रोज़ की बात है, क्या करे? घर से बाहर जाती है तो भयानक शोर उसका पीछा करता है...। ऑफ़िस
पहुँचती है तो वहाँ भी शोर उसके इंतज़ार में ही होता है,"आपको पता है कि क्या समय हो गया है? वह मिस्टर जोशी आपका इंतज़ार करके चले गए...। उनके काम का क्या हुआ...?"
बॉस गुस्से में बकते रहते और
उन क्षणों में उसकी ज़ुबान पर ताला लगा होता या यूँ कहें कि वह जानबूझ कर लगा लेती...।
बस, उस समय बातों के वाद्य-यन्त्र
पर उसकी गर्दन थिरकती रहती...। अब तो इस थिरकन की वह इतनी आदी हो चुकी है कि घर में
भी यह थिरकती रहती है...। इस पर ब्रेक भी तभी लगता है जब कोई उसे झिंझोड़ कर जगाता है...।
"ऑफ़िस जा रही है क्या
बेटाऽऽऽ? मेरी दवा खत्म हो गई है...। यह
पर्ची ले ले...और हाँ, दवा के साथ ईनो की एक बड़ी
शीशी ज़रूर ले लेना, कल से खट्टी डकारें आ रही
हैं। पखाना भी साफ़ नहीं हो रहा है...। फोन पर ज़रा डॉक्टर से भी बात कर लेना...।"
गर्दन की थिरकन पर सहसा ब्रेक
लगा था। नहीं सम्हालती तो एक्सीडेण्ट हो जाता। वह नहीं पर पिता तो ज़रूर घायल हो जाते,"जब हज़म नहीं होता तो इतना खाते क्यों हैं?" डॉक्टर ने कितना समझाया है कि जितना कम और हल्का खाएँगे, उतनी जल्दी ठीक होंगे, पर नहीं...राजा हैं न पूरे घर के...। पड़े-पड़े हलवा-पूरी चाहिए और वह भी शुद्ध देशी
घी में...और यह माँ...माँ को क्या कहें...। कहने को तो पिता की बड़ी चिन्ता रहती है
उन्हें। उनकी उम्र बनी रहे इस लिए अब भी सुहागन का पूरा श्रंगार करती हैं। चौड़ी माँग
में इतना ढेर सारा सिन्दूर भर लेती हैं कि पूरा माथा रंग जाता है...। पैरों की उँगलियों
में सूजन बनी रहती है पर फिर भी दो-दो बिछुए...पायल...चूड़ी की खनक से भरी कलाई...।
उन्हें समझ में क्यों नहीं आता कि अगर उन्होंने अपना रवैया नहीं बदला तो जल्दी ही किसी
दिन यमराज पिताजी को इनसे छीन ले जाएंगे, पर ये तो अपने को सावित्री से कम नहीं समझती...। गरदन की थिरकन लगभग ठहरने को थी
और भीतर जंगल में तूफ़ान आने का आसार भी था कि तभी सभी कुछ गीला-गीला सा हो गया, पता नहीं कैसे माँ उसके भीतर के तूफ़ान को भाँप लेती थी,"गुस्सा मत कर बेटा...सारी ज़िन्दगी बढ़िया खा आए हैं...अब इस उमर
में रूखा-सूखा गले से उतरता भी तो नहीं है...। वो बेचारे तो खा भी लें, पर मेरे हाथ से ही नहीं निकलता...। उनकी बीमारी ने तो उन्हें
नरक में धकेल ही दिया है, जीते-जी
हम सब भी नरक भोग ही रहे हैं...।"
भीगी ज़मीन चटकती नहीं, पर फिर भी उस बरसात से चटक गई थी,"ऐसा क्यों कहती हो माँ...। मैं सम्हाल रही हूँ न...। मैं बेटी नहीं, इस घर का बेटा हूँ...समझीऽऽऽ...।"
माँ को सम्भालते-सम्भालते
वह खुद लड़खड़ा गई थी...। घड़ी पर नज़र गई तो चिहुंक पड़ी,"अरे बाप रे...नौ तो यहीं बज गए...। दस तक ऑफ़िस नहीं पहुँची तो खैर नहीं...। बॉस
की दहाड़ किसी चीते की दहाड़ से कम नहीं थी और वह उसी से डरती थी...। चेहरे की घबराहट
को काबू में करते वह सन्नाटे से भरी गली में आ गई,"माँऽऽऽ, मैं जा रही हूँ...। दरवाज़ा बन्द
कर लो...।"
माँ ने उत्तर नहीं दिया पर
छोटी बहन की चीख ने गली के अन्तिम छोर तक उसका पीछा किया,"दीदीऽऽऽ, टेलर के यहाँ से मेरा सूट लेती
आना...ज़रुर से...भूलना नहीं, कल कॉलेज़
के फ़ँक्शन में पहनना है...।"
उसने सिर हिला कर हामी भरी
और फिर तेज़ कदमों से आगे निकल गई। अभी पल भर भी रुकी तो फ़रमाइशों की बारिश हो जाएगी।
इस बारिश में भीगने की अब हिम्मत नहीं थी। घर से बाहर निकल कर उसने राहत की साँस लेने
की कोशिश की, पर ले नहीं पाई। आकाश के पूरी
तरह से खुले होने के बावजूद एक अजीब सी तपिश थी जो भीतर और बाहर से उसे झुलसा रही थी...।
चुँधियाती आँखों से उसने ऊपर की ओर देखा। आसमानी समन्दर में सफ़ेद बगुले पूरी निडरता
से तैर रहे थे।
विचारों में खोई पैदल चलते-चलते
वह कब बस-स्टॉप तक पहुँच गई, उसे पता
भी नहीं चला। बस अभी आई नहीं थी। उसने राहत की साँस ली पर सिर्फ़ चन्द मिनटों के लिए
ही...। दूर से नौ नम्बर की बस आते दिखी। बस में लोग बाहर पायदान तक लटके हुए थे। ऐसा
रोज़ ही होता है...यह बस कभी खाली नहीं मिलती। इसमें वैसे तो ज्यादातर ऑफ़िस जाने वाले
लोग होते हैं, पर मौका पाकर कुछ शोहदे भी घुस
जाते हैं।
बस के रुकते ही भीड़ तेज़ी
से लपकी। वह भी बचते-बचाते पहुँची और रॉड पकड़ कर तेज़ी से अन्दर घुस गई। अन्दर जैसे
तिल तक धरने की जगह भी नहीं बची थी । दो जन की सीट पर चार-चार लोग ठुँसे हुए थे और
जिन्हें सीट नहीं मिल पाई थी, वे उपर
की रॉड पकड़े हिचकोले खा रहे थे...।
जब कोई जगह खाली नहीं दिखी
तो मजबूरी में वह भी रॉड पकड़ कर खड़ी हो गई, पर खड़ी होते ही ऊपर हाथ उठाए बगल में खड़े शख़्स के पसीने का ऐसा बदबूदार झोंका आया
कि उसका जी मिचला गया। घबरा कर उसने रुमाल से मुँह ढाँका तो गिरते-गिरते बची। तुरन्त
अपने को सम्भाल कर उसने दोबारा रॉड की ओर हाथ बढ़ाया कि तभी एक शोहदे ने खुद गिरने की
एक्टिंग करते हुए उसके बदन को छू दिया। उसे ऐसा करते देख कर सामने की सीट पर बैठा एक
अधेड़ गुर्राया,"क्यों बेऽऽऽ, हरामी के जने...तेरे घर में माँ-बहनें नहीं है क्या...? सालों को जब भी मौका मिला नहीं कि औरत का बदन छूने को लपक पड़े...सालाऽऽऽ...।"
"ऐ दद्दू...जरा ज़बान
को लगाम दो...। साले, मैने क्या जानबूझ कर इन
बहनजी को छुआ है...? अरे गिर रहा था सो हल्के
से पकड़ लिया...कौन सा गुनाह किया...? और फिर बुढ़ऊ...तू कौन सा दूध का धुला है...?"
पूरी बस में एक जोरदार ठहाका
लगा। वह सिमट कर एक किनारे हो गई। खिसिया कर उस अधेड़ ने अपनी सीट खाली कर दी,"आप इधर बैठ जाइए...लड़कियों का बस में सफ़र करना ही मुश्किल है...।"
"तो उनके लिए स्पेशल
गाड़ी चलवा दो भैयाऽऽऽ...।"
तू-तू, मैं-मैं बढ़ती कि तभी कंडक्टर ने बीच-बचाव कर दिया,"ठण्डे रहो भइया...ठण्डे रहो...। बस में भले घर की लड़कियाँ सफ़र
करती हैं...। गाली-गलौज और ओछी हरकतें करना क्या शोभा देता है...? अरे, रोज़ की
बात है...आराम से रास्ता काटिए...।"
सहसा उसका दम घुटने लगा...।
ऑफ़िस टाइम था, इसी से उस बस में ही नहीं बल्कि
हर जगह भीड़ थी। जहाँ तक नज़र जाती, बस लोग
ही लोग...। टैम्पो के इंतज़ार में सड़क किनारे खड़े लोग...साइकिल...रिक्शा और पैदल चलने
वाले...। ऐसा लगता था जैसे सारी दुनिया इसी एक शहर में सिमट गई हो...। उसके सिमटने
के कारण ही हवा तक को रास्ता नहीं मिल पा रहा है...।
उसका दम पूरी तरह से घुटता
कि तभी बस एक झटके से रुक गई। यह उसका आखिरी स्टॉप था और उसका ऑफ़िस वहाँ से बस चन्द
कदमों के फ़ासले पर...।
भीड़ का रेला एक-दूसरे
को धकियाता हुआ नीचे उतरने लगा था पर वह किनारे खड़ी रास्ता खुलने का इंतज़ार कर रही
थी। उठती-गिरती लहरों की तरह भागती भीड़ से उसे हमेशा डर लगता रहा है...। भीड़ छँट जाने
के बाद ही वह बस से नीचे उतरती है और इस दौरान दूसरों को समझाने वाला कंडक्टर हमेशा
उसके बदन को एक हल्की-सी रगड़ देना नहीं भूलता...।
बस के पायदान से नीचे उतर
कर उसने पसीने से चिपके कपड़े को हल्का-सा झटका दिया तो दुपट्टा कन्धे से सरक कर नीचे
गिर गया। झुक कर उठाया तो सामने खड़े शोहदे ने फिकरा कसा,"अरे भईऽऽऽ...जब संभलता नहीं तो लोग लेते क्यों हैं...?"
दुपट्टा संभालती वह तेज़ी
से आगे बढ़ गई। उसने मुड़ कर शोहदे की ओर देखा भी नहीं। किस-किस से उलझेगी...? कल कटियार ने भी तो कहा था,"सब कुछ खुद ही संभालती रहिएगा कि कभी हमें भी मौका दीजिएगाऽऽऽ...?"
उसने गुस्से में उसे देखा
था तो कटियार ने खींसे निपोर दी,"अरे भई, मज़ाक कर रहा था। तुम तो यूँ ही छोटी-छोटी बात का बुरा मान जाती
हो। अरे, जब पूरा दिन एक साथ काम करते हैं
तो इतना तो बनता है न...?"
"ठीक है...अगर बनता
है तो आप अपनी पत्नी के साथ बनाया कीजिए न...उनके साथ भी तो आप रहते ही हैं न...?"
ठहाके से पूरा कमरा भर गया
तो कटियार खिसिया कर अपना काम करने लगा।
उसने भी अपनी सीट संभाल ली।
इन लोगों के चक्कर में पड़ी तो कुछ नहीं कर पाएगी। फिर यह एक दिन की बात तो थी नहीं...रोज़
ही कुछ-न-कुछ तमाशा होता रहता है...।
उसे यह सब कभी पसन्द नहीं
था, अगर मजबूरी न होती तो...। आगे
सोच नहीं पाई। बगल में अपनी काली...भारी भरकम देह के साथ अम्बिका बाबू जो आ बैठे थे,"यह मिश्रा और कटियार दोनो ही बहुत हरामी हैं...। ससुरे यहाँ
काम करने आते हैं या अपनी बीवी के साथ अपने सम्बन्धों का बखान करने...। अरे, रात के अन्धेरे में कौन किसके साथ मस्ती करता है, हमें क्या...? हम कोई सबके छेद में झाँकने थोड़े न जाते हैं...।"
"और रेनू तुमऽऽऽ..."
अम्बिका ने अपनी कुर्सी थोड़ा और आगे खिसका ली। उसने सवालिया निगाहों से उनकी ओर देखा, तभी अम्बिका ने उसकी हथेली अपने काले-खुरदुरे हाथों में दाब
ली,"देखो रेनू...काम करने घर से बाहर
निकली हो तो इतना तो तुम्हें समझना चाहिए न कि घर के भीतर और उसके बाहर बहुत कुछ अलग
होता है...और हमें यह सब बर्दाश्त करना पड़ता है...।"
"पर अम्बिका जी..."
अम्बिका बाबू ने उसकी बात
काट दी,"अरे, मैं तुम्हारी बात समझता हूँ। तुम एक संस्कारी लड़की हो, पर आज जहाँ औरत-मर्द बराबरी के हिस्से में आ गए हैं, वहाँ इतना संकोच नहीं चलता। थोड़ी-बहुत मौज-मस्ती तो चलती ही रहती है...।"
"पर इस तरह...?"
"अरे, छोटी-सी बात है...। कुछ बातें कह देने से तुम्हारे साथ कोई सो
तो नहीं जाता न...।"
वह हाथ छुड़ा कर सिर झुकाए
चुपचाप अपने काम में जुट गई। जानती थी कि भलमानसी की आड़ में यह अम्बिका बहुत कुछ इशारा
कर जाता है...। इससे भी ज्यादा बहस करना ठीक नहीं...।
अम्बिका वहाँ डट कर बैठ
गया था। अक्सर ही बैठ जाता था और समझाने के बहाने गन्दी बातों की ओर इशारा करता। आज
भी वह यही कर रहा था, पर न जाने क्यों उससे बर्दाश्त
नहीं हुआ। वह उठी और ‘एक्स्क्यूज़ मी’ कह कर तेज़ी से बाथरूम में घुस गई। बाथरूम उस समय
एकदम खाली था, उसके वजूद की तरह...। पल भर खड़ी
वह कुछ सोचती रही और फिर पूरा नल खोल दिया। नल से पारदर्शी पानी की धार फूट पड़ी, साथ ही उसकी आँखों से भी...। इतना बड़ा परिवार...माँ-बाप खुदगर्ज़...या
शायद उन्हें अपने बच्चों की नहीं, सिर्फ़
अपनी परवाह है...। कोई क्या कर रहा है, उन्हें मतलब नहीं...। माँ को अपना सुहाग सलामत चाहिए तो पिता को बढ़िया...मनपसन्द
खाना...।
सहसा, आँखों से बहता झरना थम गया, साथ ही भीतर कुछ कड़वा-सा घुल गया। माँ न उसकी ओर ध्यान देती है और न बाकी बेटियों
की ओर...। छुटकी तो अभी काफ़ी छोटी है और भाई लोग भी अभी नासमझ ही हैं, पर यह मझली...? उससे सिर्फ़ दो साल ही तो छोटी है...। इन्टर में फ़ेल हो चुकी है, पर किसी को परवाह नहीं...। अकसर अपने साथ पढ़ने वाले लड़कों को
घर ले आती है और उनसे फूहड़ मज़ाक करती है। कितनी बार माँ से कहा,"माँ...बीच-बीच में तुम भी कमरे में चली जाया करो या मझली को
समझा दो कि घर हो या बाहर, इस तरह
का फूहड़पन अच्छा नहीं लगता...।"
"अरे बड़कीऽऽऽ...तू
तो अभी से बुढ़ियों जैसी बातें करने लगी है...। थोड़ा-बहुत हँसी-मज़ाक...मौज-मस्ती कर
लेती है तो क्या हुआ...? घर में
ही तो करती है और फिर शादी हो जाने पर ये सब कहाँ नसीब होगा...? अब बस, तू पुरखिन
बनना बन्द कर दे...।"
उसने माँ से तो कुछ नहीं
कहा, पर आँखें पूरी तरह से भर आई थी।
मझली को हर बात की छूट है, पर माँ
ने उसकी मौज-मस्ती का तो कभी ख़्याल नहीं किया। इण्टर पास किया ही था कि पिताजी को सीवियर
हॉर्ट-अटैक पड़ा। वे साल भर पहले ही रिटायर हुए थे। रिटायरमेण्ट पर मिला पैसा उनके इलाज
की भेंट चढ़ चुका था। वह सबसे बड़ी थी, इसी से उसकी ही क़ुर्बानी दी गई।
आसपास का वातावरण भीषण
शोर-शराबे से भरा होने के बावजूद सहज था। कोई बतियाने में लगा था तो कोई सिर झुकाए
फ़ाइलों में उलझा था। ऑफ़िस की भाषा में यह असहजता नहीं थी, पर पता नहीं क्यों काफ़ी अर्से से यहाँ होने के बावजूद वह कभी अपने को सहज नहीं
महसूस कर पाई।
"मैऽऽऽम...आपको सर
बुला रहे हैं...।" ऑफ़िस प्यून राकेश ने आकर कहा तो सहसा वो चौंक पड़ी..."आँ..."
"मैऽऽऽम...सर ने कहा, अर्जेण्ट है...।"
"अच्छा...अच्छा...जा
रही...पहले एक गिलास पानी पिला दो...।"
पानी का गिलास लाने में
राकेश ने ज़रा भी देरी नहीं की। उसने गिलास थामा और एक ही साँस में पी गई। भीतर कहीं
कुछ अटका हुआ था, जो पानी की धार से भी नहीं
सरका। उसने राकेश की ओर देखा और सकपका गई। राकेश के होंठो पर एक अर्थपूर्ण मुस्कराहट
थी। गिलास थमाते हुए उसने एकदम सहज दिखने की कोशिश की,"राकेश, तुम्हारी बच्ची अब कैसी है...? उसका बुखार उतरा कि नहीं...?"
"जी मैम...अब ठीक
है...पर डॉक्टर पैसा बहुत खा गया...। और आपके बाबूजी कैसे हैं...?" हड़बड़ा कर राकेश भी सहज हो गया।
"अभी दवा चल रही है...।"
वह जानती थी कि राकेश न
उसका मज़ाक उड़ा रहा था और न ही उसे दुःख देना चाहता था। वह अर्थपूर्ण मुस्कराहट तो अनायास
ही उसके चेहरे पर उभर आती थी। वह ही नहीं बल्कि ऑफ़िस का हर शख़्स जानता था कि ढेर सारी
लड़कियों की उपस्थिति के बावजूद सिंह साहब सिर्फ़ उसी पर फ़िदा थे...। उसके तीखे नैन-नक़्श, गोरा रंग और साँचे में ढला शरीर उन्हें ही नहीं बल्कि कइयों
को आकर्षित करता था, पर वह क्या करे...? इन सबसे उलझन होने के बावजूद उसके वश में कुछ नहीं था।
उसके दुःखी या गुस्सा होने
पर हर कोई यही कहता था,"अरे यार...बाहर
की दुनिया में तो यह सब चलता ही रहता है। इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है...?"
"शुक्र मनाओ कि भगवान
ने इतना बड़ा खज़ाना तुम्हें दिया है...। मुझे देखो...मेरी ओर तो कोई देखता भी नहीं...।"
कमला कह कर जोरदार ठहाका मार कर हँसी थी। वह एकदम रुआँसी हो उठी थी।
"मैऽऽऽम...सिंह साहब
इंतज़ार कर रहे हैं...। उन्होंने कहा है कि शैलेश के केस वाली फ़ाइल भी उन्हें चाहिए...।"
"अच्छा...अच्छा..."
वह एकदम हड़बड़ा गई। शैलेश के केस की फ़ाइल तो वह भूल ही गई थी। उसमें से दो-तीन रिमाइन्डर
भी भेजने थे, पर अब...?
डरते हुए उसने केबिन का
दरवाज़ा नॉक किया,"मे आई
कम इन सर...?"
"हाँ-हाँ...आओ न...।
इसमें पूछने की क्या बात है...।"
सिंह साहब काफ़ी खुशनुमा
मूड में थे। ऐसे में उसे सहज हो जाना चाहिए था, पर वो हो नहीं पाई। एक अजीब सी अनहोनी की आशंका उसे उस केबिन में घुसते वक़्त ही
घेर लेती थी।
"अरे बैठो न...खड़ी
क्यों हो...?"
"जी..."कुर्सी
खींच कर वह उनके सामने बैठ गई,"सर, इधर तबियत ठीक नहीं थी। पापा की वजह से भी कुछ परेशान थी। इसी
लिए इस केस की फ़ाइल पूरी तरह कम्प्लीट नहीं कर पाई...। प्लीज़ सर...एक दिन का टाइम और
दे दीजिए...।"
"पगली हो...इतना डर क्यों रही हो...? मैने कुछ कहा...? परेशान थी तो मुझसे कहा होता। मैं नमन से कह देता रिमाइण्डर भेजने के लिए...।"
सिंह साहब की आँखों में
लाल डोरे उभरने लगे थे,"एक बात
कहूँ रेनू...इस लाल सूट में बहुत गज़ब लग रही हो...।"
"थैंक्स सर...।
सर, मेरे पचास हज़ार के लोन का क्या
हुआ...? एप्लाई किए हुए महीना हो रहा है...।
अभी कितने टाइम की और उम्मीद करूँ...? सर प्लीज़...मेरी तनख़्वाह से काट लीजिएगा...।"
"अरे हाँऽऽऽ...याद
आया...तुमने कहा तो था मुझसे...। मैं ही भूल गया था...। छः महीने बाद तुम्हारी बहन
की शादी है न...। अरे भई, छोटी
बहन की शादी है और तुम अभी तक यूँ ही बैठी हो...यह बात गले से नीचे नहीं उतर रही...।
क्या तुम्हें साथी की ज़रूरत महसूस नहीं होती...?"
"ऐसी कोई बात नहीं
है सर...बहन की शादी हो जाए तो माँ मेरे बारे में भी सोचेगी...।"
"और जो मैं तुम्हारे
बारे में दिन रात सोचता हूँ...वो...उसका क्या...?"
"जीऽऽऽ...?" वह जब तक कुछ समझे-संभले...उसके पास आ चुके सिंह साहब ने उसके
चारो ओर अपनी बाँहों का मजबूत घेरा कस दिया था,"तुम चीज़ ही ऐसी हो रेनू...कोई भी अपना आपा खो दे...। उफ़...कितना गुदाज़ जिस्म है
तुम्हारा...। प्लीज़ रेनूऽऽऽ...एक बार मेरे साथ कहीं बाहर चलो न...उसके बाद कुछ नहीं
कहूँगा...। और तुम्हें ये पचास हज़ार का लोन लेने की भी ज़रूरत नहीं...वह तुम पर यूँ
ही न्यौछावर...।"
उसे शुरू से ही सिंह साहब
की नीयत पर शक़ था, पर क्या करती...? छोटी-मोटी आश्लील बातों के सिवा अब तक उन्होंने कुछ और किया
भी नहीं था। ऑफ़िस में इस तरह की बातों को बर्दाश्त करना ही पड़ता है, वरना घर बैठो...हर कोई उसे यही समझाता था। दादी ने खुद एक बार
कहा था,"बेटा, एक बात कहूँ...? मैं तुम सब की तरह पढ़ी-लिखी
भले न हूँ पर अनुभव में तुम सब से ज्यादा ही हूँ। तुम्हारे माँ और पिताजी तो मेरी बात
पर ध्यान देते नहीं, पर मैं जानती हूँ कि तुम
सब समझती हो...। बेटाऽऽऽ, किसी
को डराने के लिए तो जंगल का बहाना चल जाता है, पर बेटा...किस-किस से डरोगी...? अब तो
ये जंगल पूरी दुनिया में फैल गया है...अपने झाड़-झंखाड़ और काँटों के साथ...। जंगली जानवर
भी यहाँ-वहाँ पसरे पड़े हैं...। फ़र्क सिर्फ़ इतना ही है कि मानव-खोल में उनका असली चेहरा
छिप गया है। अब ये तुम्हारे ऊपर है कि उनके बीच रह कर तुम अपने को कितना सुरक्षित कर
सकती हो...।"
दादी की बात सुन कर वो
अवाक थी। जो बात दूसरे नहीं समझ पाते थे, वो बात दादी कैसे समझ लेती थी...? पर वो दादी को कैसे समझाती कि दादी...जब जन्म देने वाले ही अपनी ज़रूरतों को पूरा
करने के लिए औलाद को खुँख्वार जानवरों के आगे धकेल देते हैं तो बचने का कौन सा रास्ता
रह जाता है...?
"रेनूऽऽऽ...तुमने
जवाब नहीं दिया...।" छाती पर बाँहों का घेरा कुछ जरूरत से ज्यादा कस गया तो छटपटा
कर उसने पूरी ताकत से हाथ अलग किया और छिटक कर दूर जा खड़ी हुई,"सरऽऽऽ...मैं उस तरह की लड़की नहीं हूँ...। आज मेरे पापा बीमार
न होते तो मैं इस नर्क में आती ही क्यों...?"
"यह नर्क है...? अरे, यह तो
जन्नत है...जन्नत...। लड़कियाँ मेरी एक निगाह के लिए तरसती हैं, पर क्या करूँ...? तुम्हारे सिवा मुझे किसी से इश्क़ हुआ ही नहीं...।"
सिंह साहब पूरी बेशर्मी
से मुस्करा रहे थे,"इतना
डर क्यों रही हो...? किसी को पता तक नहीं चलेगा...।"
उसकी साँस इतनी तेज़ चल
रही थी कि लगा जैसे दिल उछल कर बाहर आ जाएगा। सिंह की मेज़ पर पानी का भरा गिलास रखा
था, उसने बिना पूछे उठाया और एक ही
साँस में खाली कर दिया। पल भर बाद जब कुछ संयत हुई तो दुपट्टे से आँसू पोंछते हुए बाहर
निकल गई,"सर, कुछ तो ख्याल कीजिए...। भाभी जी का...कितना विश्वास करती होंगी आप पर...और आपके
बच्चे...? उन्हें पता लगेगा तो शर्म से मर
ही जाएँगे...।"
उसने मुड़ कर भी नहीं देखा...देखना
भी नहीं चाहती थी कि जंगली-बेशर्म चेहरे पर उसकी बातों की क्या प्रतिक्रिया हुई। उसे सिर्फ़ इस बात की चिन्ता थी कि जल भुन कर सिंह
कहीं उसे नौकरी से न निकाल दे। अगर निकाल दिया तो क्या होगा...? छोटी का ब्याह सिर पर है...पिताजी बीमार हैं...बाकी भाई-बहनों
की पढ़ाई...घर के खर्चे...और पेन्शन इतनी कम...।
बाहर निकलते ही इतनी ज़ोर
से लड़खड़ाई कि लपक कर रीता न संभालती तो मेज का कोना पेट घायल ही कर देता,"क्या हुआ रेनूऽऽऽ...? सर ने डाँटा क्या...?"
"ये सर भी न...। अरे, एक फ़ाइल ही तो इनकम्प्लीट है न...तू मुझे दे, मैं कर देती हूँ...। तू घर जा...तेरी तबियत ठीक नहीं लग रही...।"
वह माथा पकड़ कर वहीं धम्म
से बैठ गई। पूरा ऑफ़िस सच्चाई जानता था पर सवालों की आड़ में हर कोई अनजान बन जाता था...।
वह खुद भी तो यही कर रही थी। एक झीना सा नक़ाब था जिसने उसके चेहरे को ही नहीं, बल्कि आँखों के समन्दर को भी कोहरे की तरह ढँक लिया था...।
उसने अपनी धौंकती साँसों
पर किसी तरह काबू पाया और फिर उठ खड़ी हुई,"तुम लोग परेशान न हो। मेरी तबियत सुबह से ही खराब थी, घर जाकर आराम करूँगी तो ठीक हो जाएगी...।"
उसने फ़ाइल रीता को दी
और फिर तेज़ी से बाहर निकल गई। पल भर भी और रुकती वहाँ तो सुनामी ही आ जाती...। समन्दर
की लहरों ने पूरी प्रचण्डता से उछाल मार दिया था...। लॉबी के एकान्त में वह पूरी तरह
डूब गई थी...। किनारे के लिए हाथ-पाँव मारे भी, पर किनारा था कहाँ...?
किनारा नहीं था, पर लहरों को जाने क्या सूझा, उन्होंने उसे बाहर उछाल दिया पर बाहर तो और भी डरावना मंजर था। पूरा शहर एक भयानक
जंगल में तब्दील हो चुका था और खुँख़्वार जानवरों ने नक़ाब पहन लिया।
होशोहवास को संभालते वह
किस कदर घर पहुँची, उसे नहीं पता...। पर वहाँ
घर था कहाँ...एक शमशानी सन्नाटे ने पूरे घर को घेर जो रखा था। सोचा था, अन्दर जाकर पहले शॉवर के नीचे इतना रगड़-रगड़ कर नहाएगी कि सिंह
के हाथों की वह गन्दी छुअन पूरी तरह घुल जाएगी और फिर माँ के सीने से चिपट कर अपना
सारा दुःख आँखों के रास्ते बहा देगी...। वो माँ हैं...उसका सारा दुःख लेकर उसे ज़रूर
मुक्त कर देंगी...।
दहलीज़ के अन्दर पाँव रखते
ही वह एक बार फिर लड़खड़ा गई। सामने मंझली और छोटी बुरी तरह रो रही थी। अपना दुःख भूल
कर वह तेज़ी से उधर लपकी,"क्या
हुआ...? तुम लोग रो क्यों रही हो...?"
"दीदी, पिताजी कॉर्डियोलॉजी में हैं...। माँ बार-बार तुम्हें फोन लगा
रही थी, पर फोन स्विच ऑफ़ था।"
"क्या हुआ पिताजी
को?" उसकी साँसें फिर तेज़ हो गई।
"पिताजी को अटैक पड़ा
है...डॉक्टर ने पेसमेकर लगाने को कहा है...। अगर नहीं लगा तो पिताजी...।"
मझली बुरी तरह सुबक पड़ी,"माँ ने कहा है कि आप अपने ऑफ़िस से तुरन्त रुपयों का इंतज़ाम कर
दीजिए...।"
पल भर वह अवाक खड़ी रही, फिर जैसे होश आया। उसने तुरन्त सिंह साहब का नम्बर मिला दिया,"सर, मुझे
पचास हज़ार की सख़्त ज़रुरत है...तुरन्त...औरऽऽऽ...मुझे आपकी शर्त मंजूर है...।"
फोन उसके हाथ से छूट गया।
वह चकरा कर ज़मीन पर बैठ गई। आँखों के आगे घना अन्धेरा छा गया...। काले अन्धेरे से घिरे
भयानक जंगल ने उसे चारो ओर से घेर लिया था और वह रास्ता भटक गई थी।
सहसा, वह बुक्का फाड़ कर रो पड़ी। लगा जैसे खुँख़्वार जानवरों ने एक-एक
करके उसके सारे कपड़े नोच लिए हैं और अब वो किसी भी क्षण उसके नग्न शरीर में अपने पैने
दाँत गड़ा सकते हैं...।
(चित्र गूगल के सौजन्य से )
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार भावसंयोजन .आपको बधाई
आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.