कविता
औरत- गाथा
औरत
बनने से पहले
वह
एक बच्ची थी
जो
माँ की उँगली पकड कर
मचलती
थी
घर
में-
बाज़ार
में-
मेहमानॊं से लबरेज़ ड्राइंगरूम में-
सिर्फ़
एक गुड्डे के लिए
औरत
होने से पहले
वह
एक लडकी थी
जो
सोलहवें वसन्त के इंतज़ार में
माँ
से आँखें चुरा कर
डोलती थी-
छ्ज्जे
पर...
सडकों
पर....
और
स्कूल के गेट पर...
पर,
सीटी
मारता वसन्त
मिलता
पान की दुकान पर
औरत
बनने के बाद
वह एक स्त्री थी
जो
अपने घोंसले के
नन्हें
से आँगन में
ममता
से भरी
धूप-छाँव
की तरह
खेलती
थी-
दुःख-सुख
के साथ आँखमिचौली
औरत
की पहचान पाने से पहले
वह
एक माँ थी
मुंडेर
पर बैठी धूप की तरह
अपने
पंख फैलाए...
बारिश...तपन...छाँव
को अपने भीतर समेटे
सॄष्टि
की श्रेष्ठ रचना
वह
खुश थी
किसी
गौरैया की तरह
अपनी
डाल पर बैठी
चोंच
से दाना चुगाती बच्चों को
पर
अब?
ज़िन्दगी
की सारी सीढियाँ फलांग कर
वह
खडी है,
आकाश
के आंगन में
एक
भरी-पुरी औरत की तरह
सॄष्टि
अब उसकी मुठ्ठी में है
पर
फिर भी,
हथेली
खाली है
खाली
हथेली में अपनी पहचान खोजती
औरत- पशोपेश में है
औरत
होने से पहले पूरा आकाश था
उसकी
आगोश में
वसन्त
उसकी प्रतीक्षा में था
छाती
से उतरता अमॄत था
पर
अब?
एक
पूरी औरत बन कर भी
उसके
पास कुछ भी नहीं
न
घर-
न
आँगन-
न
खिलौना-
न
आकाश....
(चित्र गूगल से साभार...)
behatreen
ReplyDeleteबहुत ही गहरे और सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....
ReplyDeleteयही सच है !
ReplyDeleteप्रेम जी हृदय को निचोड़ कर रख दिया है आपने कविता में . वाह ..
ReplyDeleteWah!
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