कविता
एक शाश्वत सच
कल जब
नीले आसमान से
छिटक कर चाँद
सहसा ही
उतर आया
मेरी कोमल..गोरी नर्म हथेली की ज़मीन पर
और ज़िद कर बैठा
मेरी आँखों के भीतर दुबके बैठे-सपनों से
सपने...
आँखमिचौली का "खेल" खेल कर थक गए थे
कुछ देर सोना चाहते थे
पर चाँद की ज़िद
बस एक बार और...आँखमिचौली का खेल
सपना पल भर ठिठका
उनींदी आँखों से चाँद को निहारा
और फिर खिल-खिल करते
उसने भी छलाँग लगा दी
इठलाती-बलखाती यादों की उस नदी में
जो मेरे नटखट बचपन के घर के
बाजू में बहती थी
और उसमें तैरती थी
मेरी कागज़ की कश्ती
न जाने किस ठांव जाने की चाह में
समुद्र-
मेरे आजू-बाजू नहीं था
पर फिर भी
रेत का घरौंदा-चुपके से
हर रात आता मेरे सपनों में
सपनों की तरह
वह कभी बनता- कभी बिखरता
वक़्त-
ढोलक की थाप पर थिरकता
मेरे कानों में
कभी गुनगुनाता, तो कभी चीखता
और मैं?
उसकी थाप पर डोलती रही
मदमस्त नचनिया सी
मेरे साथ ज़िन्दगी भी थिरकती रही
और फिर एक दिन
थक कर बैठ गई
चाँद-
मेरी हथेली पर सो गया था
तारे, न जाने कब छिटक गए
आसमान की चादर पर बिखर गए
मेरे आसपास
गझिन अंधेरा घिर आया था
चिहुंक कर चाँद उठा
और जा छुपा बादलों की ओट में
मैं...हैरान...परेशान
अभी-अभी तो तैर रहा था
मेरी क़ागज़ की नाव के साथ
एक अनकहा उजाला
अब मेरे पास
न चाँद था न कोई तारा
मेरी खाली हथेली पर
काली स्याही से लिखे
कुछ अनसुलझे सवाल थे
मेरे घर की
बाजू वाली नदी
इठलाना भूल
धीरे-धीरे बहने लगी थी
मेरे मिट्टी के घरौंदे की छत पर
चोंच मारती चिडिया
अपनी अंतहीन तलाश से बेख़बर
चोंच को सिर्फ़
घायल कर रही थी
मैंने,
अपनी आँखों से बहते झरने के झीने परदे को
अपनी खाली हथेली से सरका कर
आकाश की ओर देखा
और फिर
धरती पर उतरते गझिन अंधेरे से
भयभीत हो जड़ हो गई
यह क्या?
अब मेरी हथेली सख़्त थी
और
उस पर उग आई थी
जंगली दूब सी
अनगिनत रेखाएं
अपनी सिकुड़न के साथ
मैं,
जानती थी कि
वे सिर्फ़ रेखाएं नहीं थी-
एक सत्य था...
शाश्वत...
अब,
वह सत्य मेरे चेहरे पर भी उग आया है
मैं क्या करूँ?
आकाश की गोद में इठलाते चाँद की उजास
मेरी छत की सतह पर उतर आई है
चुपके से...दबे पाँव
और मैं खामोश हूँ
मेरी खिड़की की सलाखों से
आर-पार होती हवा हँसी है
और चाँद भी
चाहती तो हूँ
कि,
उनके साथ खिलखिल करती
मैं भी हँसू
बचपन और जवानी की चुलबुलाहट के साथ
पर क्या करूँ
सत्य की कडुवाहट
अपनी पूरी शाश्वता के साथ
मेरे मुरझाते जा रहे होंठो पर ठहर गई है...।
(सभी चित्र गूगल से साभार)
बहुत ही गहरे और सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....
ReplyDeleteमानी आंटी,
ReplyDeleteबहुत बहुत पसंद आई कविता...सच में ये एक शाश्वत सच ही है!!!