कविता
लड़ाई जारी है
बीच चौराहे पर
लाल ईंटों वाले घेरे में
खडे होकर
मन्नू चीख रहा है
लोग आते हैं- चले जाते हैं
पर बच्चे खुश हैं
ताली बजा रहे हैं
बहुत दिन बाद
गर्मी की छुट्टी में
डुगडुगी बजाता नट
तमाशा दिखा रहा है
पर,
बच्चे नहीं जानते
यह " तमाशा" नहीं
" तमाचा" है
आदमियत के गाल पर
मन्नू शरीर से नहीं
मन से बच्चा है
वह भी नहीं जानता
"तमाचा" और "तमाशा" का फ़र्क
इस फ़र्क और अर्थबोध से परे
उसकी देह पर कपड़े का एक टुकड़ा नहीं
मन्नू के लिए
भीतर के नंगेपन से बेहतर है
बाहर का नंगापन
उसके आसपास से ग़ुज़रते लोग
निर्लिप्त हैं-
उन्हें पता है
मन्नू पागल है
पर मन्नू- सिर्फ़ मन्नू जानता है कि
वह नहीं,
दुनिया पागल है
मन्नू बरसों से नहाया नहीं है
बजबजाती व्यवस्था के ख़िलाफ़
उसकी लड़ाई जारी है
इस लड़ाई में उसके साथ कोई नहीं
अकेला मन्नू ही काफी है
दुश्मनों को खदेड़ने के लिए
अपनी पतली-छिपकली की पूँछ सरीखी
उंगलियों का निशाना साध कर
वार करता है-दुश्मनों पर
ठांय...ठांय...ठांय...
मन्नू जश्न मनाता है
अपने धँसे हुए पेट के साथ
मन्नू अकेला ही लड़ रहा है
दुश्मनों के तमाम मोर्चे
ध्वस्त करने का सपना लिए
सामने चमक रहा है
बड़ा सा विज्ञापन
"गंगा" साबुन का
और,
दो कप...सिर्फ़ दो कप बोर्नविटा पिला कर
बच्चों को स्वस्थ रखने का सरल उपाय पाकर
मुस्कराती हुई माँ नही जानती
कि, उसकी छाती में दूध कहाँ?
हम,
इक्कीसवीं सदी में क्या पेड़ लगाएंगे
हमने तो सारी जड़ों को खोद रखा है
मन्नू नहाएगा नहीं
गंगा के पानी में घुली है
लाशों की सड़ांध
पूरी देह बजबजा रही है
सरकारी व्यवस्था की तरह
रोटी के हर टुकड़े में
मिलावट है,
घूसखोरी की
मिनरल वाटर के नाम पर
बोतलों में बंद गंदा पानी
हमारी नसों में बहने लगा है
मन्नू हारेगा नहीं
वह डटा है अपने मोर्चे पर
एक वीर सिपाही की तरह
वह नारे लगा रहा है
अनुरोध कर रहा है
ठीक गांधी बाबा की तरह
विदेशी कपडे मत पहनो
मिलावट की रोटी मत खाओ
पानी में ज़हर घुल गया है
ज़हर को नसों में मत बहने दो
हर किसी को समझाता मन्नू
खुद बौरा गया है
ढेरों पैसा कमाने की जल्दी में
लोग उसकी बात क्यों नहीं सुनते?
मन्नू पत्थर मार कर समझाता है
औरों को भी पत्थर मारना आता है
हम क्या खाएं?
अपने बच्चों को क्या पिलाएं?
तुम सिर्फ़ अपनी बात कहते हो
हमारी बात क्यों नही समझते?
पूरा देश मिलावट की झाग में डूबा है
बाहर से उजले दिखते लोग
सस्ते डिटर्जेंट को पाकर
बौरा गए हैं
गंगा साबुन से नहाकर
गंगा की सड़ांध को भूल गए हैं
कोई क्या करे
हर कोई एक-दूसरे पर पत्थर फेंक रहा है
मन्नू खुश है... बहुत खुश
अब वह अकेला नहीं है
बहरों के इस देश में
चीखने के लिए
गूंगे उसके साथ हैं...।
व्यवस्था से उपजे आक्रोश को बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त किया है…………शानदार दिल को छूती प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रविष्टि...बधाई
ReplyDeleteसशक्त और प्रभावशाली रचना.....
ReplyDeleteज़्यादा सभ्य होकर मनुष्य ने जो अपना सबसे बड़ा गुण खो दिया , वह है -संवेदना । आपने इस दर्द को मंजू के माध्यम से बखूबी व्यक्त किया है । कनाडा में इस तरह के बच्चों की उपेक्षा नहीं होती , बल्कि उनके लिए हर तरह की प्राथमिकता है , हर स्तर पर अम गाँधी जी के देश वाले इसे कब समझेंगे?
ReplyDeleteआंटी...क्या कहूँ मैं...
ReplyDeleteबहुत ही प्रभावशाली कविता है...एकदम सही आक्रोश और बहुत ही उम्दा कविता!!
उम्दा रचना...
ReplyDeleteआप एवं आपके परिवार का नव वर्ष में हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.
सादर
समीर लाल
प्रभावशाली रचना!
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