कविता
माँ ज़िन्दा रहेगी
मेरे पिता के सामने
माँ...
हमेशा एक बच्ची बनी रही
पिता की एक-एक
उचित-अनुचित
आज्ञा का पालन करती हुई
और पिता?
उसके ऊपर शासन करते रहे
ठीक एक तानाशाह की तरह
कड़कती ठंड में भी माँ-
न चाहने पर भी
सूरज के मुँह धोने से पहले
यूनिफार्म पहन कर तैयार हो जाती थी
ठीक उस सैनिक की तरह
जिसे देश का तानाशाह
कभी भी हुक्म दे सकता था
दुश्मनों के गढ़ में जाने के लिए
माँ-
एक सैनिक से ज़्यादा मुस्तैद थी
हुक्म बजा लाने में
पिता की आँख उठती
उससे पहले माँ समझ जाती
उन्हें क्या चाहिए
माँ-
बहुत डरती थी सजा से
अब
उसकी पीठ खाली नहीं थी
बोझ उठाते-उठाते थक गई थी-माँ
पर,
पिता की चाबुक उठते ही
सरपट भागती थी
पुराने...टूटे हुए खड़खड़े की घोड़ी की तरह
रास्ता बहुत लंबा और ऊबड़-खाबड़ था
माँ के पैरों की नाल घिस चुकी थी
कितनी बार
उसकी नाल बदलवाने की
कह चुके थे-पिता
पर,
नाल बदलने का वक़्त कभी नहीं आया
माँ-
जब खाली होती थी
तब-
पिता "घर" पर नहीं होते थे
और जब पिता "घर" पर होते
तब माँ खाली नहीं होती थी
"खाली" होने के इंतज़ार में
माँ के पैरों की नाल
घिसती जा रही थी
माँ को कराहने की भी इज़ाज़त नहीं थी
पिता को सबसे अधिक चिढ़
माँ की कराहट से थी
इसीलिए-
नाल घिसने के बावजूद
माँ-
हमेशा मुस्कराती रहती थी
वह पिता को खुश रखना चाहती थी
वह जब...
निर्जल...निर्जीव रहकर
करवाचौथ और तीज का व्रत रखती
तब,
उसकी उम्र का एक नन्हा क़तरा
पिता के भीतर समा जाता
माँ यही चाहती थी
"चाहत" की यह सीख
उसे अपनी दादी...नानी...माँ से मिली थी
विरासत में मिले इस गुण(?) के कारण ही
माँ
आज भी ज़िन्दा है
और हमेशा ज़िन्दा रहेगी
तानाशाहों का हुक्म बजाती
औरतों के भीतर...।
( चित्र गूगल से साभार)