Sunday, December 12, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? - ( 7 )

( किस्त - उन्नीस )


डाक्टर शिवकुमार...मृत्यु के देवता ‘ शिव ’...पर शिव क्या सिर्फ़ मृत्यु ही देते हैं ? भगवान शिव के नाम को याद कर जब इनका नामकरण किया गया होगा , तब क्या इनकी आत्मा में ईश्वर का एक नन्हा-सा अंश भी समाया होगा ? शायद अगर वह नन्हा सा अंश इनमें होता तो यह अपने मरीजों की देखभाल में कोई कोर-कसर न छोड़ते...। पर उन्होंने तो स्नेह को पलट कर देखा भी नहीं , उसका हाल भी जानने की कोशिश नहीं की...सिर्फ़ अपना एक रुटीनी खेल खेलते रहे...। लॉबी में घण्टों इन्तज़ार के बाद अल्ट्रासाउण्ड के माध्यम से पेट के घाव को दबा-दबा कर यह जानने की कोशिश करते रहे कि रोग के जीवाणु किस गति से बढ़ रहे हैं , मौत का ग्रास बनने में मरीज को अभी कितना वक़्त और लग सकता है...और जब यह सब निश्चित हो गया , तो उन्होंने अपना हाथ इस तरह खींच लिया , जैसे वे कभी वहाँ थे ही नहीं...। भगवान अपने भक्तों को कभी बेसहारा नहीं छोड़ते...मरीज भी अपने डाक्टर को भगवान का ही दर्जा देते हैं , तब क्यों डाक्टर शिवकुमार ने भगवान के नाम को लजाया...?
                  लीवर ट्रान्सप्लाण्ट वार्ड की वह पतली-दुबली , अशक्त , पर बेहद फ़ुर्तीली सी उस माँ ने , जो लखीमपुर से आई थी , एक दिन आँखों में आँसू भर कर कहा था , " मेरे बच्चे यहाँ मेरा इलाज कराने लाए हैं या मुझे बेमौत मारने...? "
                  वहाँ के इन्तज़ाम से दुःखी होकर ही उन्होंने अपने बच्चों पर यह इल्ज़ाम मढ़ा था , पर इतना तो वे भी जानती थी कि चारो तरफ़ से हार कर ही वे एक आशा से वहाँ आए हैं...। अब यह बात दूसरी है कि दिन-पर-दिन उनकी आशा भी औरों की तरह निराशा में बदल रही थी और वह फ़ुर्तीली सी ममतामयी माँ , जो अपने बच्चों के लिए अभी और जीना चाहती थी , उसे देखने आने वालों की वहाँ तो आवभगत करती ही थी , पर घर लौट कर और भी ज्यादा आवभगत करना चाहती थी...। वह अपने पति को उस उम्र में नहीं छोड़ना चाहती थी और अपनी इसी जिजीविषा के चलते वह सुबह होते ही एक्सरसाइज़ व नाश्ता करने में जुट जाती...। अस्पताल का बेस्वाद खाना गले से नहीं उतरता तो अपनी बड़ी बेटी के हाथ का बना खाना ( बिना भूख के ही ) खाने की कोशिश करती , सिर्फ़ इस लिए कि अपने घर लौट सके...। सिर्फ़ एक बार और...थोड़ा-सा और सहेज दे घर को...। उन्होंने घर के मोह को नहीं छोड़ा , पर ज़िन्दगी ने उनके मोह को छोड़ दिया और एक दिन भरे मन से वह भी विदा हो गई...।
                 " विदा "...यह शब्द मन को कितना भारी कर देता है...। अपनी उम्र पूरी कर , दुनिया के तमाम तामझाम को समेट कर जब कोई दूसरी दुनिया में जाने के लिए अपने परिवार से विदा लेता है तो दुःखी होने के बावजूद मन के किसी कोने में यह सन्तोष भी रहता है , पर इसके उलट समाज में फैले भ्रष्टाचार के चलते जब कोई असमय ही विदा हो जाता है तो दुःख भीतर जड़ जमा लेता है...। काश ! लापरवाही बरतने वाले डाक्टर , क्रूरता से पेश आने वाली नर्सें , खाने के सामान को ज़हरीला बना देने वाले हैवान और हर वक़्त जैसे सोए हुए से रह कर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले देश के तथाकथित नेता किसी के दुःख को महसूस कर पाते तो कितना अच्छा होता...।

                  
 ( जारी है )

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