( किस्त - सोलह )
एम्बुलेन्स आ गई थी । स्नेह को लेकर हम लोग कानपुर की ओर रवाना हो गए । ज़िन्दगी की एक आस थी जो डाक्टर अनूप अग्रवाल ने दी थी । कानपुर का कुलवन्ती अस्पताल...बहुत बड़ा तो नहीं , पर वहाँ के डाक्टर और नर्स बहुत बड़े हैं...कर्तव्य से...भावना से...। उन्होंने अन्तिम दम तक मौत से लड़ने का वायदा किया...दिलासा दिया और सब कुछ ऊपर वाले पर छोड़ देने का भरोसा...। संसार में चमत्कार भी होते हैं शायद...।
स्नेह के मुँह में आक्सीजन लगी थी और ए.सी एम्बुलेन्स लगातार हॉर्न बजाती , भीड़ को परे करती , पूरी रफ़्तार से कानपुर की ओर भाग रही थी...। जीवन में पहली बार एम्बुलेन्स से वास्ता पड़ा था और उस वास्ते का अनुभव भी कैसा...?
अर्धबेहोशी में स्नेह बार-बार ऑक्सीजन की नली हटा देती...। एक हाथ से ऑक्सीजन पकड़े , दूसरे हाथ से स्नेह को संभाले तेज़ रफ़्तार गाड़ी में खुद को संभालना मुश्किल हो रहा था...। छोटा भाई राजू भी दोनो तरफ़ से उसे पकड़े बैठा था...। बाकी भाई-बहन पहले ही तेज़ रफ़्तार से अपनी गाड़ी से कानपुर रवाना हो चुके थे , हम लोगों के पहुँचने से पहले ही अस्पताल में सारी व्यवस्था करने...।
एम्बुलेन्स जैसे चल नहीं , उड़ रही थी...। पहले मैं इसका तेज़ , कानफाड़ू हॉर्न सुनकर अपनी गाड़ी किनारे तो कर लेती थी और मन में हल्का दुःख का अहसास भी होता था कि उस गाड़ी में पता नहीं कितना गम्भीर मरीज होगा . पर आज...आत्मा की पूरी गहराई तक इस दुःखभरे क्षण में अहसास हो रहा था कि बाहर कितना भी शोर हो , पर भीतर ज़िन्दगी और मौत की जंग लड़ती अपनी बहन के कारण जो सन्नाटा पसरा था , वह बहुतों ने अपने लिए महसूस किया होगा...।
एक तरफ़ बहन का दुःख था तो दूसरी तरफ़ एक अजीब सा सन्तोष भी था...उस भीषण नर्क से छूट जाने का...। नर्क काफ़ी पीछे छूट गया था , पर उसके प्रति मेरी घृणा , मेरा आक्रोश ज्यों-का-त्यों था...।
बहुत दिनों पहले मैने श्री हरिवंशराय बच्चन जी की आत्मकथा " क्या भूलूँ , क्या याद करूँ " पढ़ी थी । वे एक महान हस्ती थे । उन्होंने अपनी आत्मकथा में जो कहा , वह बेमिसाल और अमर हो गया । पर मैं अपने स्तर पर यह नहीं समझ पा रही हूँ कि अपने उस पन्द्रह दिनों के नरकवास का मैं क्या याद रखूँ और क्या भूल जाऊँ...?
क्या उस पच्चीस-छब्बीस साल के नौजवान को भूल जाऊँ , जो आँत के ऑपरेशन के बाद कंकाल-सरीखा लग रहा था...। जो कुछ उसके पिता से सुना , उससे यही पता चला कि कुछ महीने पहले पी.जी.आई में ही उसकी आँत का ऑपरेशन हुआ था , पर कुछ दिनों बाद एक अजीब सी गिल्टी फूल आई थी उसके पेट के निचले हिस्से में...मजबूरन वह दोबारा वहाँ आ गया...। पिता की आँखों में इस क़दर बेचारगी भरी हुई थी कि पास खड़े एक बुजुर्ग को बर्दाश्त नहीं हुआ । उसने कहा , " यहाँ दोबारा नहीं आना चाहिए था...। "
" क्या करूँ भैया...दूसरा डाक्टर इसे हाथ नहीं लगा रहा था...। कह रहा था , जहाँ इसका ऑपरेशन हुआ है , वहीं ले जाओ...। " कहते-कहते उसकी आवाज़ रुँध गई । आगे वह कुछ नहीं बोल पाया ।
जिस डाक्टर ने ऑपरेशन किया था , वह तरह-तरह के फलसफ़े झाड़ कर बाप को समझाने की कोशिश कर रहा था और बाप के पास सिर हिलाने के सिवा कोई और चारा नहीं था...। उस वक़्त वह डाक्टर ही उसका भगवान था । चाहे तो बचा ले , चाहे तो...। उसी समय मैं वापस चल दी थी । पता नहीं हाड़-माँस के उस अकेले या उस जैसे सैकड़ों का क्या होता होगा...? अब इस युग में ‘ राम जाने ’ भी नहीं कह सकती...कोई मायने भी तो नहीं है...।
प्राइवेट अस्पतालों के इमर्जेन्सी वार्ड की हालत तब भी बेहतर है...आखिर उन्हें अपना नाम जो कायम रखना है , पर सरकारी अस्पतालों की हालत अन्य सरकारी विभागों की तरह ही है । कोई सुनवाई नहीं वहाँ...सब बहरे हैं जैसे...।
दर्द की उस मंडी की उस करुण चीख को भी नहीं भूल सकती जो एक युवा सरदार के मुँह से चीत्कार बन कर निकली थी और पूरे इमरजेन्सी वार्ड को कँपा गई थी...।
उस नौजवान सरदार का पूरा शरीर ल्यूकोडर्मा की गिरफ़्त में था । दुबला-पतला , बेहद अशक्त सा वह युवक बहुत बेचैन था । उस वार्ड में हर कोई अपने-अपने प्रिय की देखभाल में व्यस्त था । किसी के पास भी इतनी फ़ुर्सत नहीं थी कि वह जाने कि आखिर उसे हुआ क्या है और वह इतना अधिक बेचैन क्यों है...?
बला की गर्मी थी इमरजेन्सी वार्ड में...। सिरहाने चलता पंखा हर कोई अपने ऊपर करने की होड़ में था । मरीज...तीमारदार...सब पसीने से तर-ब-तर...। बार-बार पानी पीने के बाद भी गले की चटकन कम नहीं हो रही थी । लगता था जैसे प्यास हलक में कहीं अटक गई हो...। ऐसी जानलेवा गर्मी में आदमी बीमार पड़ता है और फिर घर-बार छोड़ कर उसे नर्क में आना ही पड़ता है...।
इस नर्क में कौन उस युवक को यातना दे रहा था ? एक अधेड़ सी महिला और दूसरी कुछ युवा सी , उसे पैरों और कन्धे की ओर से कस कर पकड़े हुई थी...कुछ इस तरह कि बस उसे जिबह किया जाना है...। एक नर्स जबरिया उसकी नाक में नली ठूँसते हुए गुर्रा रही थी , " पियोऽऽऽ , चलोऽऽऽ , पानी पियो..." और वह महिलाओं की पकड़ से छूटने का प्रयास करता हुआ इतनी बुरी तरह डकरा रहा था कि हमारी तो रुह ही काँप गई । यातना की यह कौन सी अंधी सुरंग थी जहाँ बदनसीबी से हम सब आकर फँस गए थे...। एक तरफ़ खाई थी और दूसरी तरफ़ फिसलन भरी सपाट चट्टान...। रास्ता इतना संकरा और चिपचिपा था कि चलना मुश्किल...। अनचाहे ही सही , ठहरना जरूरी था...।
ठीक है कि वह युवक मुँह से पानी भी नहीं ले पा रहा था और नली डाल कर खाना-पानी देना ज़रूरी था , पर क्या यह भी ज़रूरी था कि उस प्रक्रिया को इतनी बेदर्दी से अंजाम दिया जाए...?
यहाँ कानपुर के कुलवन्ती अस्पताल मे स्नेह के आखिरी समय में जब उसने खाना-पीना त्याग दिया था और डाक्टर ने नली लगाने की बात कही , तो मैं भय से चीख पड़ी थी और इसका पुरजोर विरोध किया था । मेरे इस विरोध पर डाक्टर ने बड़ी नर्मी से समझाया था कि देखिए , ज़िन्दगी को समय देने के लिए यह ज़रूरी है...। हम इसके माध्यम से जूस , पानी तो देंगे ही , साथ ही दवा भी आसानी से दे सकेंगे...। मैं मजबूर थी हामी भरने के लिए , पर उस समय दंग रह गई , जब डाक्टर ने बेहद कोमलता से , बहन को दर्द का ज़रा भी अहसास कराए बग़ैर उसकी नाक में नली डाल दी और फिर उतनी ही आसानी से उसे दवा-पानी देने लगे...।
मैं सोचने पर मजबूर थी...। अस्पताल दोनो ही हैं , पर दोनो में इतना फ़र्क क्यों...? डाक्टर व नर्स यहाँ भी हैं , पर वहाँ मानवता-प्यार कम क्यों...? जहाँ प्राइवेट अस्पताल को अच्छा-से-अच्छा इलाज करके अपनी साख़ बचानी होती है , वहीं सरकारी अस्पताल लापरवाही बरत कर सरकार के मत्थे सारा दोष क्यों मढ़ देते हैं...? सरकार उन्हें मोटी तन्ख़्वाह देती है तो क्या सिर्फ़ इसलिए कि वे सरकार पर सारी ज़िम्मेदारी डाल कर खुद मस्त हो जाएँ...? उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वक़्त किसी का नहीं होता...। एक दिन उन्हें भी उस प्यार की झप्पी की सख़्त जरूरत पड़ सकती है , जिसे वे अपने मरीजों को देने में अपनी हेठी समझते हैं...।
( जारी है )
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