Thursday, October 7, 2010

रोइए...कि आप नर्क में हैं

( किस्त  पांच )


हम सारी ज़िन्दगी अपने बड़ों से यही बात सुनते आ रहे थे कि " तन्दुरुस्ती हज़ार नियामत है..." बावजूद इसके हम तरह-तरह की बीमारियों से ग्रसित होने पर मजबूर हैं । हमें पता ही नहीं चलता और शरीर के भीतर ‘ साइलेंट किलर ’ अपना काम दिखा देता है...। तन के बाहर की बीमारी अक्सर आसानी से पकड़ में आ जाती है पर अन्दर के कुछ रोग बड़े चुपके से पनपते हैं औए आदमी जब तक कुछ समझ पाता है , उसकी जान पर बन आती है...।
            गाँवों की बात छोड़ दीजिए...शहरों में भी स्वास्थ्य सेवाएँ और उत्कृष्ट तकनीक विकसित होने के बाद भी लापरवाही के चलते कभी प्रसव के दौरान तो कभी कैंसर तो कभी अन्य गम्भीर रोगों के कारण न जाने कितने लोग मौत के मुँह में समा जाते हैं ।
            विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक " स्वास्थ्य का अर्थ मात्र निरोग होना नहीं है , बल्कि मानसिक और शारीरिक तंदुरस्ती का संतुलन होना है ।"
            संगठन की बात पूरी तरह् दुरुस्त है पर बढ़ती मँहगाई , प्रदूषण से बढ़ती शारीरिक और मानसिक विकृति , एकल परिवार की समस्याएँ और सबसे बड़ी बात , दुनिया में असंख्य उपायों के बावजूद भीड़ का बढ़ते चले जाना इन्सान को अस्वस्थ बना रहा है । हर तरह से स्वस्थ रहने के लिए आदमी मेडिटेशन , योग , सुबह की सैर , कसरत...सब कुछ कर रहा है , पर परेशानी के बादल हैं कि छँटते ही नहीं...।
            इसी सन्दर्भ में कभी प्रदेश के सेवानिवृत स्वास्थ्य निदेशक डा. रामबाबू ( २४ अप्रैल् , २०१० ) ने बड़ी नेक सलाह् दी थी (कुछ करने की पहल नहीं ) कि चिकित्सीय उपचार से पहले पोषण , स्वच्छता , पर्यावरण पर ध्यान दिया जाए तो कैंसर , मधुमेह , हृदयरोग , मोटापा , कई नान-कम्यूनिकेबिल डिज़ीज़ ( गैर संचारी बीमारियों ) से बचा जा सकता है । वाह निदेशक महोदय ! बचने की बड़ी नेक सलाह दी है - पोषण- पर यह तो बताइए कि पोषण करें कैसे ?
            आज खाद्य वस्तुओं में इतने धड़ल्ले से मिलावट की जा रही है , खाद्यान्नों में कीटनाशकों का छिड़काव ज़रूरत से ज्यादा है , बेमौसम सब्जियों की ग़लत तरीके से उपलब्धता है और यही नहीं , अब तो मेवे भी इसकी चपेट में हैं । किसी टी.वी चैनल पर दिखाया गया था कि गंधक से छुआरे और काजू को बड़ा व चमकीला बनाया जाता है । इन्हें रोकने के लिए छापे भी पड़े पर होगा क्या ? हमेशा की तरह सब टाँय-टाँय फिस्स...हम फिर ज़हर खाने को मजबूर...। कुछ चन्द रिश्वतख़ोर लोग न खुद चैन से जीते हैं न हमें जीने देते हैं । आम , केला , सेब , खरबूज़ा...सारे फल भी ज़हर हो गए हैं...आदमी कैसे सेहत बनाए...?
             साँसों में ज़हर घुल रहा है और पानी ? वह भी तो ज़हरीला है । पहले गंगा का जल इतना साफ़ और पवित्र था कि उसके पीने से ही कई बीमारियों का अन्त हो जाता था , पर आज गंगा में पड़े जानवरों , आदमियों के शव , कूड़ा-कचरा , उसमें गिरता नाले का गन्दा पानी , फ़ैक्ट्रियों-टैनरियों का ज़हरीला रसायन ,और भी पता नहीं क्या-क्या...। सरकारी विभागों की लापरवाही कई बार इन्सान को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है , जहाँ से रास्ता सीधे मौत की ओर जाता है...। गंगा की सफ़ाई का अभियान अक्सर चलता है , पर जब कुछ लोग सिर्फ़ अपनी भलाई सोचते हैं तो दूसरा चाहे जिए या मरे...उनका क्या ? भ्रष्टाचार ने ज्यादातर लोगों की आँखें बन्द कर रखी है । उनकी नींद तब खुलती है जब खुद उनपर ही ग़ाज़ गिरती है । हमारी सरकार आम आदमियों से ही बनी है पर उनके लिए है नहीं ।
            आम आदमी का खुद पर से भरोसा उठ गया है तो गानों के माध्यम से ख़ुदा का पता पूछ रहा है ( ऐ ख़ुदा , मुझको बता...तू रहता कहाँ , क्या तेरा पता...?) , पर शायद पता पूछने वाला यह नहीं जानता कि उस तक पहुँचने का रास्ता आसान नहीं रह गया है...।
            पहले के हमारे बढ़े-बूढ़े शुद्ध चीजें खाकर , अपनी पूरी उम्र जीकर खुशी-खुशी ईश्वर के पास जाते थे , पर अब उम्र पूरी भी नहीं हो पाती कि ईश्वर तक पहुँचने के रास्ते पर खड़े ‘ यम ’ उन्हें बीच में ही लपक लेते हैं और फिर नर्क का रास्ता दिखा देते हैं । ये ‘ यम ’ इतने भयानक हैं कि ईश्वर भी जैसे पीछे हट जाता है , फिर आदमी की बिसात ही क्या ? मरे क्या न करे भाई ? शक्तिशाली बन्दा ईश्वर के दर्शन करके भी अपनी लक्ज़री गाड़ी से वापस आ जाता है , एक और स्वस्थ ज़िन्दगी जीने के लिए पर कमज़ोर-असहाय तो इस वाक्य को भूल ही गया है कि " सेहत ही सबसे बड़ी नेमत है "। उसे अब याद है तो बस इतना कि ज़िन्दा रहने के लिए , यमों की यातना से बचने के लिए और चिन्ता-चिता से उठकर वापस अपने डेरे पर जाने के लिए जिन बातों की ज़रूरत पड़ती है वह है- अपार धन , सोर्स , राजनैतिक-सामाजिक शक्ति , सरोकार तथा गहन जानकारी...इनके अभाव में यातनाभरी मौत पक्की...।
            कितने लोग...? शायद लाखों-करोड़ों लोग भरसक इस अंधेरी , यातनाभरी सुरंग से बाहर आने की कोशिश करते हैं पर उपरोक्त चीजों के अभाव में बाहर आने से पहले ही दम तोड़ देते हैं । सिर्फ़ उपरोक्त बातें ही क्यों...आज के इस प्रगतिशील और तकनीकीकरण के इस युग में मुन्नाभाई छाप डाक्टरों की बढ़ती तादाद , उनकी धन-लोलुपता , संवेदनहीनता , सरकारी अस्पतालों की लापरवाही , कुव्यवस्था आदि इसके लिए और भी ज़िम्मेदार हैं । काश ! ख़ुदा एक बार तो इनसे कहे कि कभी तुम्हारे ऊपर भी ग़ाज़ गिर सकती है ।
            रही सरकार की बात...वह तो मासूम है...। उसे तो गोबरछत्ते की तरह उगी विपक्षी पार्टियाँ ही इतना अधिक परेशान किए रहती हैं कि वह करे तो क्या...? कीड़े-मकोड़ों की सुरक्षा करे कि अपनी कुर्सी बचाए ? जनता खुद समझदार है...अपनी सुरक्षा स्वयं क्यों नहीं करती...?
           मूर्ख जनता में हम भी तो शुमार हैं । अपनी रक्षा नहीं कर पाए और हमारा एक प्रिय ‘ यम ’ के चंगुल में फँस कर अंधेरी सुरंग में कहीं खो गया...।
           भ्रम में थे । घर में पानी को शुद्ध् करने के लिए वाटर प्योरिफ़ायर लगा था...अच्छे स्टोर से राशन आता था...दूषित फल-सब्ज़ी से भरसक दूर रहते...परिवार में कोई बुरी लत नहीं...। दूसरों की बीमारी की गंभीरता को भाँप कर सहम से जाते और ईश्वर से प्रार्थना करते कि ऐसी मुसीबतों से हम किसी तरह् बचे रहें...। पर यह जो तन है न , उसका कोई न कोई पुर्जा जाने-अनजाने खराब हो ही जाता है । लाख कोशिशों के बावजूद होनी से टक्कर लेना कठिन हो जाता है । होनी बहुत बलवान है । इसे हम सब ने महसूस किया है...उसी दिन से...उसी क्षण से...।
          हाथ में प्लास्टर चढ़ने के चन्द दिनों बाद ही उसकी कमर व पीठ में तीव्र दर्द रहने लगा । सोचा शायद गिरने की धसक की वजह से ऐसा है...। दर्द लगाता बढ़ता ही जा रहा था । चिन्तित हो अल्ट्रासाउन्ड करवाया तो पता लगा कि गॉल ब्लेडर ( पित्त की थैली ) में पथरी है...पथरी ?
         पत्थर हो चुके इस युग की यह सबसे बड़ी देन है । हर दूसरे-तीसरे घर में सुनाई पड़ता है कि फलां को पथरी है...उसका आपरेशन हुआ है । ज़्यादातर लोग इससे सुरक्षित ही निकल आते हैं , शायद भविष्य में किसी दूसरी बीमारी से मरने के लिए...और जो नहीं निकल पाते , वे कभी भाग्य को तो कभी डाक्टर को कोसते हुए चले जाते हैं किसी अनन्त यात्रा पर...। पथरी का आपरेशन कराओ तो मुश्किल...न कराओ तो और भी मुश्किल...। आपरेशन कराने पर न सौ प्रतिशत , पर फिर भी चाँस तो रहता है बच कर बाहर आने का , पर उसे नज़र-अन्दाज़ कर देने पर तो भविष्य में और भी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है । किडनी की पथरी तो दवा से निकलती सुनी है , पर पित्त की थैली के लिए ऐसी कोई कारगर दवा है , नहीं जानती पर इतना समझती हूँ कि अगर होती तो हज़ारों की संख्या में मरीज डाक्टरों की क्लीनिक में लाइन न लगाते...।
         एक आम इंसान के लिए यह समझना मुश्किल है कि शरीर के भीतर इतने पत्थर इकठ्ठे कैसे हो जाते हैं ? कोई कहता है इसके लिए गंदा पानी ज़िम्मेदार है , तो कोई मिलावटी खाने को इसका कारण बताता है...। अभी हाल ही में मेरे एक परिचित को एक डाक्टर ने सलाह दी कि बन्द डिब्बे का सरसों का तेल खाना बन्द कर दीजिए...। मिलावटी खाद्यान्न...दूषित पानी...ज़हरीली हवा...किस-किस से बचा जाए...? आज इस प्रदूषित समाज में सभी जी रहे हैं पर हर किसी को एक ही रोग तो नहीं जकड़ता । मैं समझती हूँ कि हर किसी के स्वभाव की तरह ही उसके तन की प्रकृति भी होती है...और इसी कारण वह अलग-अलग रोगों की जकड़ में आते हैं । सावधानी कुछ हद तक सुरक्षित कर सकती है , पर पूर्णतया करेगी ही , इसकी कोई गारण्टी नहीं...।
          कोई भी आपरेशन करने से पूर्व मरीज की ज़िन्दगी की गारण्टी डाक्टर भी नहीं लेता और इसी लिए परिजनों से एक फ़ार्म भरवा लिया जाता है ।
          मेरी शिकायत गारण्टी लेने या न लेने पर नहीं है...रंज इस बात का भी नहीं है कि किसी आपरेशन में वे असफ़ल हो गए क्योंकि कोई डाक्टर जानबूझ कर अपने नाम पर बट्टा नहीं लगने देगा और न यह चाहेगा कि उसका मरीज ज़िन्दगी का दाँव हार जाए ।
          मेरा आक्रोश उन डाक्टरों पर है जो ढेर सारे सफ़ल आपरेशन करने के बाद इतने आत्मविश्वासी हो जाते हैं कि उनके लिए तन के किसी भी हिस्से की काँट-छाँट बेहद मामूली बात हो जाती है और अतिरिक्त उत्साह में भर कर अनजाने ही वे बीमार की ज़िन्दगी से खेल जाते हैं । क्या डाक्टरों को यह् बात पता नहीं होनी चाहिए कि हर इंसान की शारीरिक और मानसिक प्रकृति अलग-अलग होती है और इसी के तहत उस पर बीमारी की प्रतिक्रिया भी होती है । डाक्टरों को इसी बात का ध्यान रखते हुए मरीज की पूरी केस हिस्ट्री ही नहीं बल्कि विगत में उसे क्या परेशानी थी , इस बारे में भी आपरेशन पूर्व जान लेना चाहिए ।
          हर डाक्टर का यह फ़र्ज़ बनता है कि आपरेशन थियेटर में ले जाने से पहले मरीज का एक बार पूरा परीक्षण कर ले । जो ऐसा नहीं करते , उन्हें कुरेदने-कोसने का पूरा अधिकार है हमें...।

( जारी है ) 

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