( किस्त - ग्यारह )
मन में एक भ्रम था कि शायद नर्क जनरल वार्ड तक ही सीमित है...। आगे प्राइवेट वार्ड है , उसमें साफ़-सुथरा शौचालय , ए.सी की ठण्डी हवा , साफ़-सुथरा बिस्तर और सही देखभाल...। वहाँ जाकर हम नर्क की ओर देखेंगे भी नहीं...। किसी भी तरह पैसे का जुगाड़ करके भीषण दुःख के बीच सुख की एक नन्हीं सी लहर भी स्पर्श कर ली तो काफ़ी है , पर वाह रे अस्पताल...! वहाँ प्राइवेट वार्ड की कौन कहे , जनरल वार्ड में भी कोई बेड नहीं मिला...। प्राइवेट वार्ड के लिए रुपया जमा करने पर भी सिर्फ़ आश्वासन , " देखिएऽऽऽ , आज तो कहीं कोई बेड खाली नहीं है...। आप डाक्टर को दिखा लीजिए...वे रिफ़र करेंगे तो भर्ती तो कर लेंगे , पर फिर भी बेड के लिए आप को इन्तज़ार करना होगा...।"
थोड़ी देर बाद डाक्टर के कमरे के बाहर पस्त पड़े पसीने से बदबुआते मरीजों और तीमारदारों के साथ हम भी थे...। गुड़िया और सुनील कभी बेड का इन्तज़ाम करने बाहर भागते , डाक्टरों की मिन्नतें करते , तो कभी वापस फिर उस लम्बी लाइन की कतार में आ खड़े होते , जहाँ से उन्हें डाक्टर के पास जाना था...। स्नेह अपनी बीमारी की गम्भीरता का अहसास करती आँखें बन्द किए पड़ी थी । चारो तरफ़ से सवालों की बौछार लगी थी . " क्यों , क्या हुआ है इन्हें...?"
छोटी सी कहानी की तरह चन्द लाइनें दोहरा देती पर अब ऊब सी होने लगी थी...दूसरों से क्या मतलब...? वे अपने मरीज को क्यों नहीं देखते...? क्यों बार-बार मुड़ कर बेचारगी भरी आँखों से मेरी बहन की ओर इस तरह देखते हैं जैसे उससे कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया हो और अब बस्स...सज़ा सुनाए जाने भर की देर है...।
सज़ा में जैसे देर थी , पर इसे ख़त्म तो होना ही था...। करीब चार या पाँच बजे डाक्टर के यहाँ से खाली हुए तो फिर हॉल में आकर बैठ गए । अब तन की पूरी शक्ति निचुड़ चुकी थी...। हम सब भी शक्ल से बेहद कमज़ोर और बीमार से दिख रहे थे । थोड़ी देर की मशक्कत के बाद पास के एक होटल में कमरा मिला...। वहाँ जाकर राहत की साँस तो ली पर वह राहत स्थायी नहीं थी । मरीज के साथ कभी भी , कुछ भी हो सकता था । ईश्वर पर विश्वास अभी ज़र्रा भर बाकी था , सो उन्हीं के भरोसे रात काटी , पर सुबह होते ही...।
( जारी है )
पहली बार आपका ब्लाग देखा बहुत अच्छा लगा\ पहली किश्तें पढ कर ही पूरी कहानी का पता चलेगा। फिर आती हूँ। शुभकामनायें।
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