दैनिक जागरण के १५ अप्रैल २०१० के अंक में एक विज्ञापन पढा कि डा. ( श्रीमती) नज़मा हेपतुल्ला की अध्यक्षता वाली राज्यसभा की अधीनस्थ विधान सम्बन्धी समिति ने “ उपभोक्ता सरंक्षण विनियम २००५” की जाँच करने का निर्णय लिया है । इसके लिए कुछ सुझाव भी माँगे गए हैं ।
मैं जहाँ तक समझती हूँ जो भी व्यक्ति अपने हित के लिए पैसा खर्च करता है , वह उपभोक्ता कहलाने के दायरे में आता है , फिर चाहे वह खाने-पीने की चीज़ें हों , सुख-सुविधा का सामान हो या फिर अपनी या अपने परिवार के किसी सदस्य का इलाज कराके उसकी जान बचाने का सवाल हो…।
मिलावटी खाद्य वस्तुओं ने जिस तरह हमारी ज़िन्दगी में ज़हर घोल दिया है , उसी तरह भ्रष्ट समाज के चन्द लोग भी हमारी ज़िन्दगी से खिलवाड कर रहे हैं । उनके नाम-दाम के कारण आम आदमी उनका कुछ नहीं बिगाड पाता । इधर कुछ डाक्टर अपने कर्तव्य से इतना भटक चुके हैं कि वे डाक्टरी की पढाई के दौरान दिए गए वचन को भूल कर ज़िन्दगियों से खिलवाड कर रहे हैं । नाम-दाम से फलते-फूलते ऐसे डाक्टरों के कारण जिसके घर की ज़िन्दगी खत्म होती है , क्या उसकी कोई सुनवाई है ? जो लोग अस्पताल या डाक्टर की गलती से जीवन भर के लिए अपाहिज हो जाते हैं , उनके लिए क्या प्रावधान हैं ? कानून सुधार प्रक्रिया में ऐसे मरीजों के लिए क्या कोई जगह है ? अगर नहीं तो मेरा सुझाव है कि उन्हें भी उपभोक्ता कानून का पूरा संरक्षण मिलना चाहिए…बस इतना सुनिश्चित रहे कि उस कानून का कोई दुरुपयोग न कर सके…।
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