कुछ दिनों पहले इसी ब्लॉग पर आपने मेरे लेखन के शुरुआती दौर में मेरी लिखी पहली कहानी- गिल्लू - पढ़ी थी, जिसपर अस्सी के दशक में मिली सकारात्मक और उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रियाओं ने मुझे लेखन को गंभीरता से लेने के लिए प्रेरित किया था। उस दौर में उस कहानी की ऐसी सफलता और उससे संबंधित कई पाठकों के पत्रों में किये गए अनुरोध के चलते मैंने उस कहानी का अगला भाग- इंद्रधनुष के पीछे- शीर्षक से लिख डाला।
इस कहानी पर भी मुझे अनेक प्रशंसात्मक और बेहतरीन पाठकीय प्रतिक्रियाएँ मिली थीं। तो लीजिए, मेरी प्रारम्भिक कहानियों की इस शृंखला में मेरी अगली कहानी प्रस्तुत है।
आपकी प्रतिक्रियाओं की, टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी।
कहानी
इंद्रधनुष के पीछे
प्रेम गुप्ता ‘मानी’
सहसा भारी बूटों की ठक-ठक से शोर में
डूबा पूरा माहौल स्तब्ध-सा हो उठा। मैले-कुचले कपड़े पहने सड़क के किनारे बैठे
फुटपथियों को उन बूटों से इतनी जोर की ठोकर लगी कि वे सब हडबड़ाकर उठ खड़े हुए। उस समय उनके चेहरे कुछ इस कदर भयभीत
दिख रहे थे, जैसे उन्होंने कोई भयानक मंज़र देख लिया हो।
वैसे यह सब उन सबके लिए कोई नया नहीं था। रोज ही कुछ-न-कुछ इसी तरह का घटित होता
रहता है, और वे सब ठोकर
खाते हैं, मार खाते
हैं या फिर उनमें से कोई दो-चार दिन के लिए सलाखों के अंदर भी हो आते हैं। पर इससे उनके जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ा था, सिवाय हर समय भयभीत रहने के।
इस समय भी
वे सभी बुरी तरह भयभीत थे। पुलिस का
क्या भरोसा, किसे ज़ख्मी
कर दे, किसे पकड़कर ले जाए? उनका डर बेमानी नहीं था, पुलिस किसी को तलाशती हुई ही वहाँ आई
थी और उसके न मिलने पर फुटपाथियों को परेशान करने लगी। उसे शक था कि ये लोग उस अपराधी के ठिकाने
से पूरी तरह से वाक़िफ़ हैं।
पुलिस ने
एक दो को पकड़कर पीटना भी शुरू कर दिया, पर सब गूँगे-से बन गये। पिटने वालों की चीखों के सिवा और कुछ भी नहीं था वहाँ। हर कोई अनभिज्ञता में सिर हिला रहा था। हारकर पुलिस आगे बढ़ी तो सबने पल भर के
लिए राहत की साँस ली, पर उनकी मिचमिची आँखों के कटोरों में अब भी भरा हुआ था।
इधर इन फुटपाथियों
की आँखों में भय भरा हुआ था, और उधर इनसे कुछ दूर पर ही गन्दे नाले के अंदर उगी घनी कंटीली झाड़ियों में
दुबके गिल्लू का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा था। उसका बस चलता तो अभी इन पुलिसियों
को भूनकर रख देता, पर
असहायता की इस अवस्था में अनायास ही उसका कड़वा अतीत एक बार फिर उभर आया। यद्यपि
वह अपने अतीत को भुलाने की चेष्टा हरदम करता है, पर अतीत है कि किसी जोंक की मानिंद
उसके जीवन से चिपक गया है और अब वह उसे चाहकर भी झटक नहीं पाता। दुःख व कष्ट के इन
क्षणों में भी उसके ओठों पर एक विषादयुक्त मुस्कराहट आकर ठहर गई।
उसे याद आया कि कभी इस मुस्कराहट के
लिए उसे कितना प्रयत्न करना पड़ता था और आज...। वह चाहे तो आज जीभर कर ठहाके लगा
सकता है, इन पुलिस
वालों पर, निर्दयी
समाज पर या फिर उस आकाश पर जिसने उसे इन्द्रधनुषी रंग दिखाकर भ्रमित किया था और इस
समय उसी आकाश के पास कुछ नहीं है सिवा खालीपन के...।
अपने अतीत से ध्यान हटाकर उसने पुलिस
की उपस्थिति को महसूसने की चेष्टा की पर असफल रहा। उसने अपने मन को तसल्ली दी...ठीक
है, वह तब तक
बाहर नहीं निकलेगा जब तक कि वे सब उसे खोजते-खोजते थक नहीं जाएँगे।
इस दलदली नाले में खड़े गिल्लू को अपनी
उस भूल पर आज भी दुःख है जब उसने आकाश की ओर छलांग लगाई थी और धरती पर गिर पड़ा था...कुछ
ऐसे कि सारा जीवन माँ की गोद को तरसते बीत गया। माँ के अभाव में अब तो यही धरती
उसकी माँ है और यह नाला पनाहघर...। इस नाले में उगी कटीली झाड़ियाँ उसे उन इंसानी
भेड़ियों से कहीं अधिक बेहतर लगती हैं जो अपने जहरीले दाँत किसी को भी चुभाने के
लिए हर वक्त तत्पर रहते हैं... पनाह माँगने वाले को भी आहत करने में संकोच नहीं
करते। किन्तु ये निष्प्राण झाड़ियाँ कितनी उदार हैं, चुभती भी है तो अनजाने में, लेकिन पनाह लेने वालों को अपने आगोश
में छिपा तो लेती है।
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उस दिन भी तो इन्हीं झाड़ियों ने उसे
पनाह दी थी जिस दिन अपने मालिक की हत्या करके वह भागा था। वह दिन और आज का दिन...वह
इन झाड़ियों को कभी नहीं भूला। वैसे भूला तो वह उस दिन को भी नहीं है, जब चिट्ठी पकड़े जाने पर, और रघुआ की
चुगली पर, मालिक ने
उसे जानवरों की तरह मारा था।
वह आज तक समझ नहीं पाया कि माँ को
चिट्ठी लिखकर उसने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया था जो उसका दैत्यनुमा मालिक इस तरह
भड़क गया कि उसे महीनों प्रताड़ित करने के बाद भी उसका गुस्सा ठंडा नहीं हुआ था।
यद्यपि यह जानता था कि अगर पकड़ गया तो
बिशना की तरह उसकी भी बुरी गत होगी, लेकिन फिर भी वह अपनी अम्मा को चिट्ठी लिखने
से अपने को रोक नहीं पाया था। अम्मा के लिए उसका मन कितना तड़पता था। काश, घर से भागते समय वह उस तड़पन को महसूस
कर पाता तो कितना अच्छा होता । कम से कम आज की तरह माँ की ममता-भरी गोद खोकर गलीज
जिन्दगी जीने को मजबूर तो न होता।
माँ की याद आते ही गिल्लू की आँखों में
आँसू भर आए, लेकिन उसने उन्हें पोछने की कोई चेष्टा नहीं की। वह खूब जीभर कर रो
लेना चाहता है माँ की याद में। एक यही तो स्थान है जहाँ वह आसानी से अपने मन का
गुबार निकाल लेता है और जब मन हल्का हो जाता है तो फिर से उसकी आँखों में वही
क्रूरता भर जाती है जो इंसानी खोल में छुपे हिंसक भेड़ियों को डराने के लिए जरूरी
है।
वैसे यह बात किसी को भी नहीं पता या
शायद उसने किसी को जानने ही नहीं दिया कि उसकी आँखों में ममता की कितनी भूख है और
इन्सानी भेड़ियों को सहमा देने वाली आँखें भी किस तरह किसी बूढ़ी औरत को देखकर
बच्चा बन जाती हैं। यह सब सिर्फ बिशना जानता है, बिशना... उसके बचपन का दोस्त, भाई या शायद सब कुछ...। बिशना से उसे
कितनी ममता मिली है, इसे उसका
रोम-रोम जानता है। तभी तो उसने बिशना का ऋण उतारने के लिए ही उसकी सेवा का व्रत
लिया है।
आज यह उसी की सेवा का फल है जो बिशना
की टाँगें अच्छी हो गईं हैं। उसे व बिशना को देखकर तो कोई भी नहीं कह सकता कि वे
एक माँ के बेटे नहीं है। पर नहीं, कभी-कभी एक माँ के दो बेटे भी तो आपस में उतने
वफादार नहीं होते जितना कि बिशना उसके प्रति रहा है। सब कुछ जानते हुए भी बिशना ने
कभी भी किसी को उसके बारे में कुछ नहीं बताया, भले ही इसके लिए उसे कितनी ही
कठिनाइयों का सामना करना पड़ा हो।
उसके बारे में बिशना ने बताया तो उस
दिन भी नहीं था जिस दिन प्रतिशोध में वह इतना अधिक हिंसक हो उठा था कि सब्जी काटने
वाले चाकू से ही उसने अपने मालिक की उस फूली तोंद को सदा के लिए पिचका दिया था,
जिसे पिचकाने की उसकी कई वर्षों की कामना थी।
पर यह कामना क्या स्वयं पाली थी उसने
अपने हृदय में? नहीं। यह
कामना तो उसी निर्दयी मालिक की दी हुई थी जिसने उसे इंसान से कुत्ता बना दिया था।
हर वक्त रोटी के टुकड़ों के लिए दुम हिलाने वाला कुत्ता...। अधिक तंग करने पर
कुत्ता भी तो काट लेता है, फिर वह तो सिर्फ कुत्ते सी जिन्दगी जीने वाला मजबूर इंसान
था, कब तक
बर्दाश्त करता ?
कितनी सुख की नींद सो रहा था वह उस रात...।
कितने महीनों बाद तो उसे वह सुखद, प्यारी सी नींद मयस्सर हुई थी। माँ को चिट्ठी लिखने के बाद उसे लगा था जैसे
उसके सीने से कोई बड़ा बोझ उतर गया हो, लेकिन उसे क्या पता था कि जिस असह्य बोझ से
वह अपने को मुक्त समझ रहा है दरअसल उससे मुक्त होना उतना सहज नहीं था।
यदि यह बात वह समझ पाता तो चिट्ठी को
यूँ लापरवाही से जेब में डालकर सो न गया होता, बल्कि सारी रात जागकर चिट्ठी की
पहरेदारी करता ताकि माँ को लिखी गयी व्यथा को कोई दूसरा न जान पाए और वह सुबह किसी
दयालु ग्राहक से चुपचाप चिट्ठी पोस्ट करा दे।
चिट्ठी डाक से निकल जाने के बाद ही उसे
सुख की नींद सोना था, पर उसके कच्चे दिमाग में तब इतनी समझ कहाँ थी? समझ होती तो इस तरह माँ की ममता भरी
गोद छोड़कर पत्थरों के शहर में सिर फोड़ने आता या इन्द्रधनुषी रंगों के मायाजाल
में फँसता? पर जब इन
सब बातों की समझ आई तो काफी देर हो चुकी थी, वह दीवारों के भीतर जीते-जी चुन दिया
गया था।
नींद में बेसुध रहने के कारण करवट
बदलते समय चिट्ठी कब उसकी फटी पैंट की जेब से बाहर झाँकने लगी, उसे नहीं पता। पता तो तब चला जब चिट्ठी
रघुआ के हाथ पड़ गयी और उसने उसे मालिक को दे दिया।
चिट्ठी पढ़ते ही मालिक की आँखो से आग
सी बरसने लगी। गिल्लू ने उसका इतना भयंकर रूप कभी नहीं देखा था। वैसे वह मालिक से
बेरहमीपूर्वक मार तो प्रायः खाता रहता था, किन्तु उस दिन उसे पहली बार लगा था जैसे
उसके प्राण हलक में अटक गए हों और वह दिन उसका अंतिम दिन हो ।
उसे हैरानी हुई थी रघुआ पर, आखिर वह उससे इतनी दुश्मनी क्यों किए है, उसने उसका बिगाड़ा ही क्या है? वैसे कभी-कभी उसे लगता जैसे रघुआ मालिक
का कृपापात्र बनने के लिए ही यह सब करता है ताकि दूसरों की पोल खोलने पर मालिक से
उसे शाबाशी मिल सके और वह मालिक की उस हिंसक मार से बच जाए जो समय-असमय उसपर या
बिशना पर पड़ती रहती है। पर अपने को सुरक्षित रखने का यह कौन सा तरीका था कि दूसरे
के जिस्म को घावों से भरकर स्वयं मलहम लगा लिया जाए? कोई और तरीका भी तो रघुआ अपना सकता था।
दूर खड़ा रघुआ अपनी कुटिल मुस्कान से
उसका हृदय छलनी किए दे रहा था और बिशना एक किनारे इस तरह सहमा बैठा था, जैसे
गिल्लू के पिटने के बाद उसी की बारी थी।
मालिक थोड़ी देर खड़ा हिंसक दृष्टि से
उसे घूरता रहा था फिर ढाबे के अन्दर चला गया। मालिक के जाते ही गिल्लू ने राहत की साँस
ली और कसकर अपनी पलकें बन्द कर ली। आँखों में भय से न जाने कब का जमा हुआ बर्फ
पिघलकर उसके खुरदुरे गालों पर लुढ़क पड़ा।
अभी वह पलकों को पूरी तरह खोल भी नहीं
पाया था कि एकदम से बिलबिला पड़ा। मालिक ने लोहे की छड़ से उसके उन हाथों पर भरपूर
वार किया था, जिन हाथों से उसने अपनी प्यारी अम्मा को चिट्ठी लिखकर अपने पास
बुलाने की जुर्रत की थी।
वह न जाने कब तक चीखता रहा, उसे नहीं पता। होश आया तो उसने अपने को
एक अंधेरी सीलन भरी कोठरी में बन्द पाया। उसके बदन का पोर-पोर पके फोड़े की तरह
टीस रहा था। जगह-जगह खून के थक्के इस तरह जम गए थे जैसे बर्फ जमी हो। उसका जी चाहा
कि गला फाड़कर रोये, इतना की
दीवारें कॉपने लगे, पर रो
नहीं पाया।
रोता भी तो वहाँ सुनने वाला कौन था? उसने स्वयं ही तो अपने लिए चुना था उन
दीवारों को। न घर से भागता और न इतने दुख भरे दिन उसे देखने को मिलते। भले ही घर
में बापू निर्दयी था, पर माँ तो उस पर जान छिड़कती थी, फिर बापू भी तो कभी-कभी खुश होने पर
उसे दुलार लिया करता था। पर यहाँ दुलार की कौन कहे, दो मीठे बोल सुनने को भी वह
तरस गया था। अम्मा की याद आते ही वह फूट-फूटकर रोने लगा, इतना, जितना कि चोट के दर्द के अहसास से भी
नही रोया था।
उस सीलन भरी कोठरी में वह कितने दिन
बन्द रहा, उसे नही
पता...उसे तो दिन-रात का भी पता नहीं चलता था। सजा के तौर पर मालिक उसे केवल एक
समय खाने को दो सूखी रोटी दे देता, कभी वह भी नहीं।
एक दिन तो मारे भूख के उसकी अंतड़ियाँ
इस तरह ऐठनें लगी कि उसे लगा था कि अब उसके प्राण निकल जाएँगे, पर प्राण नहीं
निकले थे और अंतड़ियों की ऐंठन से वह सारे दिन तड़पता रहा था। उसे स्वयं पर बेहद
आश्चर्य हुआ था कि इतना दुख सहने के बाद भी वह कैसे जिन्दा है, जबकि उसे मर जाना चाहिए था... या शायद दुखों के बीच जीते-जीते प्राण
भी इतने सख्त हो जाते हैं कि लाख चाहने के बावजूद शरीर का साथ नहीं छोड़ते।
सारे दिन भूख से बिलबिलाता वह रोशनदान
की तरफ इस आशा से टकटकी लगाये ताकता रहा था कि शायद मालिक उसके आगे रोटी का टुकड़ा
फेंक दे, पर सूरज के डूबने के साथ ही उसकी आशा भी डूब चली थी कि तभी उसके आगे एक
रोटी आकर गिरी। यद्यपि वह रोटी फेंकने वाले उन हाथों को पहचान तो नहीं पाया था,
फिर भी उसे विश्वास था कि वे दानी हाथ चाहे जिसके रहे हों, पर उसके निर्दयी मालिक
के हाथ नहीं थे।
अधिक दिमाग न खपाकर वह जल्दी-जल्दी
सूखी रोटी कुतरने लगा था कि तभी बिशना की चीख उसके हृदय को चीरती चली गयी। उसे उसी
पल उन प्यारे दानी हाथों का पता चल गया। मालिक बिशना को रोटी के लिए बुरी तरह पीट
रहा था, पर बिशना पिटता हुआ भी निरन्तर इन्कार करता जा रहा था। बिशना के शरीर पर
पड़ता हर वार वह अपने ज़ख्मी शरीर पर महसूस कर रहा था। उसकी भूख गायब हो गई थी और
वह रोटी के टुकड़ों को निहारता बिशना के लिए फूट-फूटकर रोने लगा था।
यद्यपि उसे काफी यातना देने एवं उसके
माफी माँगने के बाद उसके मालिक ने उसे कोठरी से बाहर निकाल तो दिया था, पर उस पर
पहरेदारी और सख्त कर दी थी। उस दिन से वह भी बदल गया था, न किसी से बोलता और न कुछ कहता, बस
चुपचाप बैल की तरह काम में जुटा रहता। सावधानी के तौर पर मालिक उसे अपनी चारपाई के
पास ही सुलाता ताकि दूर सोने पर कहीं वह फिर अपनी अम्मा को चिट्ठी न लिख दे।
उस घटना से बाद गिल्लू काफी सहमा सा
रहने लगा था और उसका वही भय देखकर उसका मालिक बहुत खुश था। उसने सोचा था कि अब
गिल्लू हमेशा के लिए उसका गुलाम बन गया है, पर उसे क्या पता था कि गिल्लू सदा एक
जैसा नहीं रहेगा। जैसे-जैसे उसकी मूँछों की रेखाएँ गहरी होती जाएँगी, वैसे-वैसे उसकी
आँखों में भय की जगह प्रतिशोध की नन्हीं चिंगारी भी अग्नि का प्रचण्ड रूप लेती
जाएगी। पर यह सब उसका मालिक सोचता तो कम से कम उतनी निश्चिन्तता से कभी न सोता।
रोज की तरह जब उस दिन भी ढाबा बन्द हो
गया तो गिल्लू ने अपने मालिक का बिस्तर लगाया और फिर उसका पाँव दबाने उसके पायताने
ज़मीन पर बैठ गया।
थोड़ी देर बाद जब मालिक सो गया तब
गिल्लू भी सोने के लिए उठा, पर तुरन्त ही न जाने क्यों घृणा से ठिठककर खड़ा हो
गया। सामने नरम बिस्तर पर अपने दैत्यनुमा मालिक को इतने सुख से सोते देखकर गिल्लू
का मन प्रतिशोध व घृणा की मिली-जुली भावना से भर उठा। थोड़ी देर आग्नेय नेत्रों से
खड़ा वह मालिक को घूरता रहा, फिर अचानक उसे न जाने क्या हुआ कि वहीं रखी सब्जी की
टोकरी में से उसने लपककर चाकू उठा लिया और जब तक वह स्वयं कुछ समझे, उसका चाकू मालिक के शरीर में धँस चुका
था। अगले ही क्षण मालिक की चीख सुनकर उसकी चेतना जागृत हुई और वह पूरी शक्ति से
भाग लिया।
आज भी उसे यह सोचकर बेहद आश्चर्य होता
है कि सदा से सहमा रहने वाला वह, उस दिन कैसे इतना फुर्तीला बन गया था।
वैसे खून करके भागते समय उसने सोचा था
कि वह बच नहीं पाएगा और पकड़ा जाएगा। सोचकर फिर वह बुरी तरह काँप उठा था। बदहवासी
में वह बिना इधर-उधर देखे चला जा रहा था कि तभी उसे महसूस हुआ था जैसे किसी बड़ी
ही ऊँचाई से गहरे
खड्ड में धकेल दिया गया हो। अप्रत्याशित रूप से गिरने के कारण पलभर के लिए वह
संज्ञाशून्य-सा हो गया था, पर तभी
पता नहीं कैसे उस अचेतनावस्था में भी वहाँ उगी झाड़ियों के बीच सरककर दुबक गया,
किसी तरह की चुभन की परवाह किए बगैर।
थोड़ी देर बाद जब टार्च की रोशनी खड्ड
में पड़ी, तब उसने देखा कि जिसको वह खड्ड समझ रहा है वह एक नाला था जिसका पानी
सूखा हुआ था। बस कहीं-कहीं थोड़ा पानी होने से जमीन दलदली सी हो गई थी, किन्तु
खतरनाक नहीं थी।
उसे लोगों की चीख-पुकार और भारी बूटों
की खटपट साफ सुनाई दे रही थी। इधर-उधर भारी टार्च की रोशनी फेंककर वे सब उसे पूरी
सतर्कता से बढ़ रहे थे पर झाड़ियों में दुबका होने की वजह से गिल्लू उन लोगों को
दिखाई ही नहीं दिया। आखिर हारकर वे सब उसे ढूँढने शायद कहीं और चले गए।
दो रात उसी नाले में भूखा-प्यासा रहने
के बाद जब गिल्लू उन्हीं झाड़ियों का सहारा लेकर बाहर निकला तब उसकी आँखों में एक
अजीब-सी तटस्थता भरी हुई थी। उस समय उन आँखों को कोई देखता तो शायद विश्वास भी
नहीं कर पाता कि यह वही गिल्लू है, जिसकी आँखों में कभी इन्द्रधनुषी रंग भरे हुए
थे। रात के स्याह अंधेरे में बाहर निकलने पर किसी ने उसे पहचाना हो या नहीं, पर बिशना
ने पलभर की देर किए बगैर ही उसे पहचान लिया था। बिशना को देखते ही वह उससे लिपटकर
फूट- फूट कर रो पड़ा। जब रोते हुए उसे बिशना से पता चला कि उसका पता- ठिकाना जानने
के लिए बिशना को बुरी तरह मारा-पीटा गया है तो अचानक उसकी आँखें हिंसक हो उठी ।
किन्तु बिशना के पास पहुँचने पर गिल्लू
यह भूल गया था कि दो बाघ आँखें ऐसी भी थीं जो उस अंधेरे में उसे साफ पहचान गयी थी।
ये आँखें रघुआ की थीं जो बिशना से थोड़ी ही दूर हटकर सोया था। गिल्लू व बिशना को
रघुआ की उपस्थिति का ध्यान ही नहीं रहा और जब तक बिशना या गिल्लू को उसका ख्याल आए,
तब तक कई हाथों ने गिल्लू को दबोच लिया था। वह परकटे पंछी की तरह तड़फड़ाता ही रह
गया।
उन हाथों से मुक्त होने पर गिल्लू ने
अपने को मोटी-मोटी सलाखों के अन्दर पाया। वहाँ की सूनी दीवारों के घेरे में कैद
गिल्लू की आँखों में फिर से बेबसी के आँसू भर आए और जब उसने अदालत में बेबस आँसू
बहाकर अपनी करुण गाथा सुनाई तो उसके साथ ही साथ कई जोड़ी आँखें बरसने लगी।
कानून तो कानून है, वहाँ भावना का क्या काम? और गिल्लू खूनी था जिसने कानून को अपने
हाथ में लेकर संगीन अपराध किया था, फिर भी गिल्लू की कम उम्र तथा उन
परिस्थितियों को देखते हुए जिसमें उसने अपराध किया था, न्यायालय ने उसे आजीवन
कारावास की सजा सुनाई।
जेल जाने से पहले गिल्लू ने बिशना को
अपने घर का पता दिया ताकि वह जाकर उसकी माँ को बता सके कि उसका गिल्लू फौलाद का है,
तभी तो माँ को देखने की आस में इतना दुख भोगकर भी जिन्दा है।
बिशना के जाने के बाद से रात-दिन वह
सलाखों से चेहरा टिकाये एकटक बाहर की तरफ देखता रहता। हर आहट पर उसे लगता जैसे
उसकी अम्मा आ गई हो, पर दूसरे ही क्षण किसी दूसरे को देख उसकी आँखें निराशा से झुक
जाती।
पर उस दिन उसकी आँखें अपराधबोध से झुक
गईं, जिस दिन उसके घर से लौटकर बिशना ने बताया कि उसके घर से भागने के बाद उसकी
अम्मा उसकी याद में रो-रोकर अंधी हो गई और फिर ज्यादा दिन जी नहीं सकी। उनके मरने
के बाद उसका बापू भी न जाने कहाँ चला गया था।
बिशना से यह सब सुनते हुए जैसे गिल्लू गूँगा
बन गया था और फिर सहसा उसे यह महसूस हुआ था, जैसे उसने एक नहीं बल्कि दो खून किए
हैं, एक अपने
निर्दयी मालिक का और दूसरा अपनी ममतामयी अम्मा का। उस माँ का जिसकी ममतामयी गोद
पाने की आशा में वह अब तक फौलाद का बनकर जी रहा था, जब वही नहीं रही, फिर वह जीकर क्या
करेगा? सहसा वह
विक्षिप्त होकर दीवारों से सिर फोड़ने लगा। जब रही-सही आशा की किरण भी साथ छोड़
देती है तब मन पर घना अंधकार छा ही जाता है, कुछ इतना गहरा कि अपनी ही छाया से
इंसान भयभीत हो उठता है। गिल्लू को सारी दुनिया के साथ-साथ अपने से भी घृणा हो गई
थी।
गिल्लू की ऐसी दशा के कारण जेलर तथा
अन्य कर्मचारी गिल्लू के साथ कठोर बर्ताव नहीं कर पाते थे और गिल्लू ने उनकी इसी
दया का फायदा उठाया और एक दिन, जब होली का त्योहार मनाया जा रहा था, वह एक अपराधी की सहायता से जेल की
दीवारों को फाँदकर भाग निकला।
जेल की घण्टी बजती रही, पुलिस उसका पीछा करती रही, पर वह जानता था कि अब कोई भी बन्धन उसे
जकड़ नहीं पाएगा। होली के उसी त्योहार पर उसने रघुआ के खून से जमकर होली खेली और
पुलिस को चकमा दे एक बार फिर उनकी आँखों से ओझल हो गया। अब उसके ऊपर ईनाम भी है।
वह जानता है कि जब तक नहीं चाहेगा, यह इनाम कोई भी हासिल नहीं कर सकता, और अगर करने की हिम्मत की तो...।
अचानक वह चिहुँक ऊठा। शायद कोई काँटा
उसकी बाँह में चुभ गया था। अंधेरे में ही अंदाज से उसने काँटा खीच लिया। काँटा
खीचते ही हल्की सी टीस हुई जिसे उसने होठो में ही दबा लिया। यह दर्द तो उसके लिए
कुछ भी नहीं है, हृदय में
न जाने कितने ऐसे अनगिनत घाव हैं जो हर समय टीस पैदा करते रहते हैं, पर वह आह भी
नहीं करता।
अब वह किसी के सामने कमजोर नहीं बनना
चाहता। अगर कमजोर बन गया तो पहले के गिल्लू और अब के गिल्लू उस्ताद में अन्तर ही
क्या रह जायेगा? फिर कमजोर
बनकर ही तो इतना सब भोगा है, अब और नहीं भोगना चाहता बल्कि अब तो उन्हें ही सजा देना चाहता है जो उस
जैसे न जाने कितने मासूमों की मासूमियत छीनकर उनके मन को फौलाद का बना देते हैं या
वैसा बन जाने को मजबूर कर देते हैं।
वैसे वह अपनी तरफ से कभी भी कोई
झगड़ा-फसाद करना नहीं चाहता, लेकिन फिर भी न चाहने के बावजूद कभी-कभी उसे न जाने
क्या हो जाता है कि उससे कोई न कोई फसाद खड़ा हो ही जाता है, और पुलिस उसके पीछे पड़ जाती है। फिर सिलसिला शुरू हो जाता है लुकाछिपी के खेल का...। वैसे इस खेल में अब
उसे कुछ मजा भी आने लगा है। इससे उसे एक अजीब सा आत्म-संतोष मिलता है। किसी एक की निर्दयता को खत्म करके उसे लगता जैसे उसने
समाज से अन्याय मिटाने की कोशिश की हो।
आज भी तो उसने ऐसा ही किया था, पर उसे
क्या पता था कि मेवा, फल खाने
वाला वह थुलथुल सेठ उसके मुक्कों को सह नहीं पाएगा और ढेर जाएगा। रोज की तरह आज
शाम को भी वह बिशना से मिलकर जा रहा था कि तभी एक छोटे से होटल के सामने इकट्ठी
भीड़ देखकर वह ठिठक कर रुक गया।
उसने देखा कि होटल का मालिक
पन्द्रह-सोलह बरस के एक लड़के को डण्डे से बुरी तरह पीट रहा है और वह लड़का दर्द
के मारे ज़ोर से चीख रहा है। लड़के की चीख सुनकर थोड़ी दूर पर बैठा एक लड़का, जो शायद होटल मालिक का ही लड़का था, इस प्रकार हँस रहा था जैसे वहाँ कोई
मनोरंजक तमाशा हो रहा हो। भीड़ में भी सब लोग चुपचाप खड़े तमाशा देख रहे थे। भीड़
की निष्क्रियता देखकर गिल्लू के तन-बदन में आग सी लग गई।
उसने आगे बढ़कर एक झटके से सेठ के हाथ
से डण्डा छीन लिया और बोला, "क्यों सेठ, इस मासूम को इतनी निर्दयता से क्यों
पीट रहा है?”
इस तरह अचानक हाथ से डण्डा छीन लिए
जाने पर पहले तो सेठ हक्का-बक्का रह गया, फिर गिल्लू को इस तरह लड़के का पक्ष लेते
देख क्रोध से बिफर उठा, "तुम कौन
होते हो इस तरह बीच में बोलने वाले? इसने मेरा रुपया चुराया है और कबूल भी नहीं
रहा है, चोट्टा
कहीं का...।”
गिल्लू को बीच में पड़ते देख उस लड़के
को कुछ सहारा मिला। वह दौड़कर उसके पैर से लिपट गया, "भाई साहब, मैं कसम खाता हूँ मैंने
रुपया नहीं चुराया है..." आगे वह बोल नहीं पाया और फूट-फूटकर रोने लगा।
थोड़ी दूर पर बैठे सेठ के लड़के को
देखकर गिल्लू ने सोचा 'क्या पता
अपने पिता का रुपया इसी ने चुराया हो? अमीरों के लड़कों के खर्च भी तो
अनाप-शनाप होते हैं, पर अपने
बेटों की आदतों पर, रोजमर्रा
के खर्चों पर, इनका
ध्यान जाता ही कहाँ है? यह सेठ भी
आम सेठों की तरह अपने बेटे को टटोलने के बजाय उस निरीह बालक को ही मार रहा है।'
गिल्लू को लगा जैसे नौकर नहीं, स्वयं
उसका अपना बचपन रो रहा हो। ऐसे ही निर्दयतापूर्वक उसका मालिक भी तो उसे मारता था।
अचानक गिल्लू की आँखों में हिंसा उतर आई। उसने काँपते हुए लड़के को अपनी सशक्त बाँहों
का सहारा देकर उठाया और सेठ को आग्नेय नेत्रों से घूरता हुआ बोला, "क्या सबूत है कि इसी लड़के ने तुम्हारा
रुपया चुराया है? तुम्हारी
औलाद भी तो चोरी कर सकती है।"
गिल्लू की बात सुनकर सेठ उस पर उबल
पड़ा, "तुम क्या
इसके बाप लगते हो जो इतनी ममता दिखा रहे हो?"
सेठ की बात सुनते ही गिल्लू की आँखों
में खून उतर आया, "नरम
बिस्तर पर सुख की नींद सोने वाले सेठ, तुम्हें इसका दर्द कैसे महसूस होगा? अगर तुम भी नरम बिस्तर पर सोते हुए माँ
की लोरी सुनने के बजाय धरती के कड़े बिछौने पर सोकर कुत्तों का गीत सुनकर बड़े हुए
होते तो शायद तुम भी आज अपने को इसका बाप ही समझते।"
गिल्लू को इस तरह अकड़ते देख क्रोध से सेठ के नथुने फड़कने लगे।
पैसे की गरमी तो थी ही, उसने आव
देखा न ताव, नौकर को
अपनी तरफ खींचकर उसने गिल्लू को बाहर की तरफ धक्का दे दिया, "चल भाग यहाँ से, वरना इस लड़के के साथ
तू भी जेल की चक्की पीसेगा।"
"जेल तो मैं बाद में जाऊँगा, पहले तुझसे तो समझ लूँ" कहकर
गिल्लू ने सेठ को ताबड़-तोड़ मारना शुरू किया, ठीक उसी तरह जैसे बचपन में उसका
मालिक उसे मारता था। सेठ को मारते समय उसे आत्मिक सन्तोष-सा मिला। उसे लगा जैसे वह
अपने मालिक को ही पीटकर बचपन की मार का बदला निकाल रहा हो।
गिल्लू द्वारा सेठ को इस तरह मारे जाते
देखकर भीड़ दहशत से तितर-बितर हो गई, और उनमें से किसी ने शायद पुलिस को भी
खबर कर दिया। मारे गुस्से के गिल्लू तो जैसे अपनी सुध-बुध ही खो बैठा था और शायद
उस अवस्था में उससे एक और अपराध हो जाता कि तभी पुलिस वैन का सायरन सुनकर उसे
भागना पड़ा। पुलिस को आते देखकर वह लड़का भी किसी कोने में दुबक गया। घायल, अर्द्ध-मूर्छित सेठ को कुछ लोगों ने अस्पताल पहुँचाया और लोगों से पूछताछ करने के बाद पुलिस गिल्लू की
तलाश में दौड़ पड़ी।
भागने में अभ्यस्त गिल्लू के पाँव तेजी
से भागते जा रहे थे, अपने पनाह
घर की ओर। शाम पूरी गहराई के साथ धरती पर उतर आई थी और गिल्लू का पूरा साथ दे रही
थी। जब तक किसी की निगाह उस पर पड़े, वह नाले में उतरकर झाड़ियों के बीच दुबक चुका
था।
यद्यपि वहीं आसपास बैठे फुटपाथियों ने उसे
देखा था, लेकिन वे अनजान बने रहने का उपक्रम करने लगे थे। इस बात को गिल्लू भी
जानता था, तभी तो अपने को उनसे नहीं छिपाता था।
नाले में अचानक एक कंकड़ आकर गिरा तो
वह अतीत की खाई से उबर वर्तमान में आ गया। कंकड़ गिरने का मतलब था कि अब उसका
रास्ता निरापद है और उसे ढूँढने वाले निराश होकर दूर जा चुके हैं।
गिल्लू ने एक बार अपनी उस फूली जेब को
टटोला, जिसमें
सेठ से छीना हुआ पर्स पड़ा था, और फिर नुकीले पत्थरों का सहारा लेकर ऊपर चढ़ने लगा।
अभी वह आधा रास्ता ही तय कर पाया था कि
तभी कई अशक्त कितु ममत्वभरे हाथों ने उसे आहिस्ता से ऊपर खींच लिया। ये वही
फुटपाथी थे जो पुलिस की मार खाकर गूँगे-सा होने का अभिनय करने लगे थे। अब वे ही, गिल्लू को देखते, वाचाल हो उठे थे।
गिल्लू ने जेब से पर्स निकाला और सब
रुपया उनके बीच बाँट दिया। रुपया पाते ही उन फुटपाथियों की बेबस आँखों में ममत्व
का स्रोत फूट पड़ा। गिल्लू ने एक बार उनके अशक्त कन्धों को प्यार से थपथपाया और
फिर अपना चेहरा ठीक से ढँक लिया ताकि कोई उसे पहचान न पाये।
अच्छी तरह चेहरा ढँकने के बाद उसने एक नज़र उन फुटपाथियों की
ओर डाली और फिर एक गहरी निःश्वास भरकर आकाश को ताकने लगा। उस आकाश को, जिसके पास इस समय कुछ भी
नहीं हैं सिवा कालिमा के...। उसे लगा, आकाश की छाती पर टंकित कभी-कभी दिखने
वाला इन्द्रधनुष जितना बहुरंगी है, उसके पीछे का संसार उतना ही बदरंग...।
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