Saturday, October 15, 2016

कब टूटेगी संकीर्णता की ये जंजीर



बढ़े-बूढ़ों को अक्सर कहते सुना है कि बच्चे भगवान की देन हैं। यह सच है कि ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता, पर इसके इतर एक बात और भी सच है कि बहुत बार हमारी ज़िन्दगी में जो हमारी इच्छा के विरुद्ध होता है, उसमें भी ईश्वर की ही मर्ज़ी होती है। हम ईश्वर की इच्छा के आगे भले कुछ हद तक बेबस हों, लेकिन फिर भी मेरा मानना है कि अगर इन्सान निर्णय कर ले तो वह अपने कर्म से अपने भाग्य को बदल सकता है...और साथ-साथ कुछ मामलों में ईश्वर की मर्ज़ी को भी...। हम आमतौर पर सिर्फ़ अपनी किस्मत को कोसते रह जाते हैं। हम यह क्यों नहीं समझते कि यह ज़िन्दगी हमें बहुत मुश्किल से मिली है, और सिर्फ़ रोते हुए इसे गुज़ार देना किसी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता। लाख मुश्किलें सही, पर यह फिर भी आप पर है कि आप इसे किस तरह मंज़िल तक ले जाते हैं। राह में ठोकरें भी मिलती हैं, पर ज़रूरी नहीं कि हर ठोकर पर आँसू बहाया ही जाए।

यहाँ यह सारी भूमिका बाँधने का मेरा एक खास मक़सद है...एक इशारा है...और वह इशारा है औलाद के लिए तरसते लोगों की ओर...और ऐसे अधिकांश लोगों को नज़र न आने वाले अनगिनत नन्हें फ़रिश्तों की ओर...। आज हमारे समाज में जाने कितने ऐसे विवाहित जोड़े हैं, जिनकी लाख कोशिशों के बावजूद उनका घर आज भी किलकारियों की गूँज से अछूता है...। कुछ में ऐसी शारीरिक कमियाँ हैं कि लाख प्रयत्न के बावजूद उनके घर कोई नन्हा फ़रिश्ता जन्म नहीं ले सकता। ऐसे कुछ परिवारों में अगर वे चाहें तो अपने आसपास मौजूद ऐसे नन्हें फ़रिश्तों को अपना बना कर अपने घर ला सकते हैं, जिनके सिर से उनके माँ-बाप का साया उठ चुका है। पर नहीं, कुछ लोगों को स्वाभाविक रूप से अपने ही खून का वारिस चाहिए। कई बार युवा दम्पत्ति की भी यही मानसिकता होती है, पर अधिकांश मामलों में परिवार के बड़े-बूढ़ों की संकीर्ण मानसिकता के चलते न जाने कितने दम्पत्ति हारे हैं...। आज मेडिकल साइंस जाने कितने तरह के चमत्कार दिखा रहा है, पर ऐसी संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों के लिए साइंस भी बेबस है।

यहाँ मुझे यह बताने की ज़रूरत नहीं कि हमारे समाज में माता-पिता और परिवार के प्यार को तरसते अनाथ बच्चों की संख्या कितनी अधिक है। पर सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यही है कि ईश्वर की मर्ज़ी कह कर ऐसे संकीर्ण विचारधारा वाले लोग बिना बच्चे के सारी ज़िन्दगी रोते-बिसूरते काट लेंगे, पर उन अनाथों के प्रति उनके दिल में ज़रा भी माया-ममता नहीं जागती...। उन्हें यह समझ नहीं आता कि ऐसे बच्चों को अपना कर, उन्हें ममता की छाँव देकर वह न केवल एक पुण्य का ही काम करते हैं, बल्कि ज़िन्दगी को एक खूबसूरत और सार्थक तरीके से जीने का मक़सद भी पा जाते हैं...। उनका घर-आँगन चिड़ियों की चहकन के साथ इन नन्हें फ़रिश्तों की किलकारियों से भी गूँज उठता है...।

जो लोग इस बात पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं कि वह न जाने किसका खून होगा, तो उन्हें अपनी बुद्धि में यह बात डाल लेनी चाहिए कि वह सिर्फ़ एक इन्सान का खून है और इन्सानी खून का बस एक ही रंग होता है...। जाति-धर्म से परे ये नन्हें फ़रिश्ते कच्ची मिट्टी सी सोंधी गन्ध से लिपटे होते हैं...। इन्हें अपने रंग में रंग कर ही नहीं, बल्कि अपने रूप में ढाल कर तो देखिए...पता भी नहीं चलेगा कि ये कब आपके ही अंश हो गए...।

Monday, October 3, 2016

भेदिया निगाहें



हर इन्सान की अपनी ज़िन्दगी होती है...उसके सुख-दुःख होते हैं...कई आन्तरिक समस्यायें होती हैं, जो कभी उलझती हैं तो कभी सुलझती हैं...। कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जिन्हें वह किसी से शेयर भी नहीं कर सकता और अगर करने की कोशिश करता भी है तो कई बार मानो क़यामत ही आ जाती है...। इन्हीं सब बातों से घबरा कर अक्सर लोग चुप ही रहते हैं, पर इससे होता क्या है...? कहते हैं न आप किसी की ज़ुबान पर ताला नहीं लगा सकते...ठीक उसी तरह किसी की भेदिया प्रवृति और निगाह पर कोई बन्दिश भी नहीं लग सकती। हमारे समाज में कुछ ऐसी भेदिया निगाहें हैं जो अपने आप ही सब कुछ भाँप लेने का दावा करती हैं...कुछ-कुछ लिफ़ाफ़ा देख कर मजमून भाँप लेने जैसा...। ये निगाहें आपके घर में, ऑफ़िस में, मोहल्ले में, नाते-रिश्तेदारी में...कहीं भी आपका पीछा कर सकती हैं। आप बचना चाहें तो भी नहीं बच सकते।

मेरे मोहल्ले की एक मासूम बच्ची ऐसी ही कुटिल भेदिया निगाहों का कुछ ऐसा शिकार हुई कि न केवल उसकी माँ को अपनी बच्ची के साथ वह मकान छोड़ना पड़ा, बल्कि आसपास उन्हें कोई और अपना मकान किराये पर देने को तैयार भी न हुआ। बात यहीं ख़त्म नहीं हुई, माँ को बच्ची का नाम पास के स्कूल से भी कटवाना पड़ गया।

इस बच्ची की कहानी उसकी उम्र की ही तरह बेहद छोटी-सी है। करीब साल भर पहले हमारे मोहल्ले में एक बेहद खूबसूरत सी बच्ची, जिसकी उम्र तेरह या चौदह वर्ष की रही होगी, अपनी माँ के साथ एक छोटे से शहर से आई थी। पिता किसी और शहर में एक मामूली सी नौकरी में थे। आर्थिक तंगी बहुत थी। कानपुर में हमारे मोहल्ले में दूर के रिश्ते की एक बुआ रहती थी। उनका काफ़ी बड़ा मकान था, सो उन्होंने माँ-बेटी को गेट के पास बना एक छोटा-सा कमरा रहने को दे दिया। बेटी को पास के स्कूल में फ़ीस माफ़ करा के एडमिशन करा दिया। माँ उनके अहसान तले इस क़दर दब गई कि उनका छोटा-मोटा घर का काम कर देती। इधर वह उनके अहसान तले जितना दब रही थी, मजबूर समझ कर वह उतना ही उसे दबा रही थी। माँ तो दब जाती थी, पर बच्ची मासूम थी। वह उनकी इजाज़त के बिना कभी गेट पर खड़ी हो जाती, कभी मोहल्ले के लड़के-लड़कियों के साथ खेलने लगती...। उम्र के इस मोड़ पर मोहल्ले के कई लड़के उसके दीवाने हो गए, पर उससे बेख़बर वह अपने में ही मस्त थी...। उसकी यह मासूमियत आसपास की कुछ भेदिया और चुगलखोर महिलाओं को रास नहीं आई...। कमरा देकर महा-अहसान करने वाली बुआ तो क़यामत लाने वाली हद तक ख़ार खाए बैठी थी। मोहल्ले में उसके व उसकी माँ के चरित्र को लेकर बुआ ने हल्का सा धुआँ क्या उठा दिया कि हर कोई उसमें अपनी तरफ़ से आग में घी डालने वाला काम करने लगा। शाम के वक़्त मोहल्ले में औरतों की चौपाल लगती तो उसमें मसला सिर्फ़ माँ-बेटी का चरित्र ही होता...। देश-दुनिया में क्या हो रहा है, अपने शहर की क्या समस्यायें हैं, अपनी खुद की ज़िन्दगी किस रास्ते जा रही, इससे किसी का कुछ लेना-देना नहीं था। उनकी अपनी एक लॉबी बन गई थी...। माँ-बेटी को इस लॉबी ने कुछ इस क़दर बदनाम कर दिया था कि उनका आसपास निकलना दूभर हो गया था। एक मुँह से दूसरे मुँह तक बात फैलती पास के दुकानदारों तक भी पहुँच गई थी। उनमें से कई उनको देख कर चटखारे लेते, सिसकारी भरते पर सारी बातों से अनजान माँ-बेटी कुछ समझ न पाती। लेकिन आखिर कब तक...? एक दिन कहीं से उड़ती-फिरती सारी बात माँ के कानों में भी पहुँच ही गई। सब सुन कर वह बेहद घबरा गई। उसे डर था कि यह सब जान कर कहीं उसकी बेटी कोई घातक कदम न उठा ले।

कुछ दिन बाद वो माँ-बेटी इस मोहल्ले से चली गई। आज वे कहाँ हैं, किस हाल में हैं, मुझे नहीं पता...पर इतना ज़रूर पता चल गया कि ऊपर से बहुत सभ्य-सुसंस्कृत नज़र आने वाली...संस्कारों, परम्पराओं और रीति-रिवाज़ों की बड़ी-बड़ी बातें करने वाली ऐसी कुछ महिलायें हमेशा अपनी कुटिल चालों और भेदिया निगाहों से दूसरों को घायल करने की फ़िराक में रहती हैं और गुपचुप तरीके से की गई इस मानसिक हिंसा पर जीत मिलने पर आन्तरिक खुशी महसूस करती हैं...।

आज जो मैने यह घटना बताई, यह कहानी सिर्फ़ मेरे मोहल्ले की ही नहीं है। किसी भी मोहल्ले. इलाके या शहर में ऐसा हो सकता है...। आपकी ज़िन्दगी में झाँक कर, आपकी मन की तहों को खोल कर जानने के बाद आपकी मदद को आगे बढ़ने वाले हाथ सिर्फ़ उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। पर आपको बर्बाद करने के लिए हज़ारों खुफ़िया निगाहें हैं।

यहाँ एक छोटी सी घटना को इंगित कर ज़िन्दगी और उसमें शामिल रिश्तों को समझने की एक मामूली कोशिश की है मैने, पर इससे इतर एक बात साफ़ करना चाहूँगी कि जिनके बेटे उस बच्ची की खूबसूरती व मासूमियत पर फ़िदा थे, उसे उम्र का नाज़ुक मोड़ समझ कर क्या अपने बेटों को सम्हाला नहीं जा सकता था...? पर शायद नहीं...मोहल्ले की ऐसी पंचायती औरतों को अपने बेटे के गुस्से और ज़िद का सामना करने से ज़्यादा सरल और बेहतर उस बच्ची को अपनी कुटिल चालों का शिकार बनाना लगा...।  उन्होंने यह जानने की कोशिश नहीं की कि कई सारी बातों से खार खाई बुआ ने उन माँ-बेटी से अपनी अनजानी जलन का बदला किस तरह चुकाया।

हम आखिर इतने कान के कच्चे और मूढ़मगज़ क्यों हो जाते हैं...? दूसरों की फ़िज़ूल बातों को बड़ी आसानी से मान कर...किसी भी मामले की तह तक जाए बिना सज़ा सुना देने का हक़ हमें किसने दिया...? हम यह क्यों नहीं समझ पाते कि जिस तरह इस घटना में वो माँ-बेटी अनजान थी, उसी तरह हो सकता है कि अपने आसपास फैल रही अपनी किसी बदनामी से आप भी अनभिज्ञ हों...। हो सकता है कि जो इंसान चुपके से आपकी पीठ में खंजर भोंकने को तैयार बैठा हो, आप उसी की बगल में बैठ कर किसी और के लिए अपनी कटार में धार दे रहे हों...। दूसरों पर उँगली उठाने से पहले एक बार अपनी ओर उठी हुई चारों उँगलियों को ध्यान से देखिएगा...शायद आपको खुद के अन्दर ही एक बड़ा अपराधी नज़र आ जाए...।

Monday, April 25, 2016

इस प्यार को क्या नाम दूँ...?

प्यार भी बड़ी अजीब शै है। इसको करने और जताने का सबका अलग अन्दाज़ होता है। इसी अलग अन्दाज़ की एक सच्ची घटना बरसों पहले मेरे पापा ने हम लोगों को सुनाई थी। इस घटना को घटित हुए तो जैसे एक युग बीत ही गया हो, मुझे सुने हुए भी एक बहुत लम्बा अर्सा बीत चुका है, पर जाने क्यों मेरे जेहन में यह घटना ज्यों-की-त्यों आज भी बरकरार है।

मेरे पापा के खानदान में उनके एक दूर के रिश्ते के बाबा थे। उनकी पत्नी को कैन्सर हो गया था। उस समय इस बीमारी के लिए न तो कोई इलाज था, न कोई डॉक्टर...। हर तरह की बीमारी के लिए वैद्य का ही सहारा होता था, पर उनके घरेलू इलाज से न कोई लाभ होना था, न आराम...। बाबा की पत्नी यानि कि मेरे पापा की वो दादी दर्द से दिन-रात तड़पती रहती थी। बाबा उन्हें बहुत मानते थे, सो जितना वो तड़पती थी, बाबा उससे ज़्यादा तड़प महसूस करते थे। अपनी पत्नी का दिन-रात का तड़पना उनसे किसी तरह बर्दाश्त नहीं होता था। वैद्य जी ने भी साफ़-साफ़ कह दिया था कि इस रोग में वे और कोई सहायता नहीं कर सकते। जितने दिन की ज़िन्दगी बाकी है, वे इसी तरह कष्ट में रहेंगी। दादी को इस असाध्य कष्ट से छुटकारा दिलाने का कोई उपाय उन्हें नहीं नज़र आ रहा था। कई दिन इसी ऊहापोह में बीत गए कि सहसा उन्हें क्या सूझा कि एक शाम अपनी पत्नी से बोले,"चलो, तुम्हें गंगा जी ले चलते हैं...। वहीं एक घाट है, जिसकी बहुत महिमा है। उसमें डुबकी लगाने से तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे...।"

भोली-भाली दादी को अपने पति के प्यार पर अटूट विश्वास था। इतने कष्ट में भी बाबा के कहने पर वे सुहागन के सम्पूर्ण शृंगार में सज-सँवर कर बाबा के साथ चल पड़ी। शाम के गहरे झुटपुटे में एक नाव वाले को सोने की गिन्नी के बदले खरीदते उन्हें कोई देर न लगी। गंगा की बीच धारा में पहुँच कर दादी भयभीत हुई तो बाबा ने प्यार से उन्हें गले लगाया और कहा, "इसी धारा में तुम्हारे कष्टों की मुक्ति है...इसमें डुबकी लगाओ, तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे...।" दादी ने उनके चरण-स्पर्श करके ‘सदा सुहागिन’ का आशीर्वाद लिया, बाबा के आदेशानुसार उनका हाथ थाम गंगा में उतर गई। बाबा ने उनको अन्तिम डुबकी लगवाते हुए उन्हें जलसमाधि दे दी।

उस शाम दादी तो शायद सारे कष्टों से मुक्त हो गई, पर बाबा जब तक ज़िन्दा रहे, सारी सुख-सुविधाओं का त्याग करके, मानो दादी के कष्टों को अपने भीतर महसूस करते, अपने ही घर में सन्यासी जीवन व्यतीत करते रहे। उनके जाने के बाद भी बरसों तक उनकी पीढ़ियाँ उन दोनो के इस प्यार से अभिभूत रही...।

आज भी जब कभी मुझे यह कहानी जैसी सुनी गई सत्य घटना याद आती है, मेरे मन से बेसाख़्ता एक आह-सी निकलती है...यह कैसा प्यार था...? आखिर इस प्यार को मैं नाम दूँ भी तो क्या...?

                                                       

 (चित्र गूगल से साभार )

Wednesday, April 6, 2016

रहिमन पानी राखिए...

विभिन्न न्यूज़ चैनल्स पर महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव लातूर में पानी की भयानक किल्लत देख कर मन भर आया। एक-एक बूँद पानी के लिए वहाँ लोग तरस रहे थे। ‘मरता क्या न करता’ वाले हिसाब से गन्दे...काई जमे तालाब से पानी लेकर पीने को मजबूर हैं वे लोग...। इस सूखे की मार झेलते जाने कितने किसानों ने आत्महत्या कर ली है। यह सब देख कर कुछ देर के लिए हमारा मन ज़रूर भर आता है, पर असल में हम करते क्या हैं? सूखा सिर्फ़ लातूर या उस जैसे देश के कई अन्य हिस्सों में ही नहीं पड़ा है, बल्कि हमारे भीतर भी संवेदना की नदी इस कदर सूख गई है कि किसी के आँखों की नमी हमारी आत्मा तक पहुँचती ही नहीं...। हम अपने शहर...अपने घरों के अन्दर सुख और सकून से जीते हुए उसे ही सारी दुनिया का सच माने रहते हैं...।
काश! हम ज़िन्दगी की ज़रूरतों से उपजे छोटे-छोटे सुख-दुःख को समझ पाते...और समझ पाते कि रोटी-कपड़ा-मकान से भी ज़्यादा ज़िन्दा रहने के लिए जिस चीज़ की ज़रूरत है, वो है-पानी...। हम अपने घर में पानी का इफ़रात इस्तेमाल करते हैं, लापरवाही से नलों को खुला छोड़ देते हैं...। सड़कों पर किसी सार्वजनिक नल के खुला होने या किसी पाइप लाइन के टूटे होने पर फ़ालतू बहता पानी हमें कभी भी अपनी चिन्ता या ज़िम्मेदारी का विषय नहीं लगता...। हम इन सबसे बेपरवाह अपनी ही दुनिया में मस्त रहते हैं...।
पर लातूर या उस जैसे अन्य जगहों को देख कर हमको अब भी सचेत नहीं हो जाना चाहिए...? पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुंध दोहन के रूप में अपनी अब तक की ग़लतियों के ऐसे भीषण परिणाम से क्या अब हमको सबक नहीं लेना चाहिए...? कितना अच्छा हो यदि हम अब भी इन सब से सीख लेकर सुधरने की शुरुआत पानी से ही करें...। अपनी ज़रूरत के हिसाब से ही उसे खर्च करें और यथासम्भव कोशिश करें कि हम उसकी एक बूँद भी बर्बाद नहीं होने देंगे।
ऐसा करके हम अपने ही बच्चों के उस भविष्य को सुरक्षित करेंगे जिनके लिए हम आज खून-पसीना बहा कर भौतिक सम्पदा इकठ्ठी करते हैं...। कल को कहीं ऐसा न हो कि हमारी जमा की गई भौतिक सम्पदा के ढेर पर बैठे...एक बूँद पानी को तरसते हमारे बच्चे भी ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून...’ को बेहद शिद्दत से महसूस करते हुए हमको कोस के रह जाएँ...। 

                                                         (चित्र गूगल से साभार )