Monday, April 25, 2016

इस प्यार को क्या नाम दूँ...?

प्यार भी बड़ी अजीब शै है। इसको करने और जताने का सबका अलग अन्दाज़ होता है। इसी अलग अन्दाज़ की एक सच्ची घटना बरसों पहले मेरे पापा ने हम लोगों को सुनाई थी। इस घटना को घटित हुए तो जैसे एक युग बीत ही गया हो, मुझे सुने हुए भी एक बहुत लम्बा अर्सा बीत चुका है, पर जाने क्यों मेरे जेहन में यह घटना ज्यों-की-त्यों आज भी बरकरार है।

मेरे पापा के खानदान में उनके एक दूर के रिश्ते के बाबा थे। उनकी पत्नी को कैन्सर हो गया था। उस समय इस बीमारी के लिए न तो कोई इलाज था, न कोई डॉक्टर...। हर तरह की बीमारी के लिए वैद्य का ही सहारा होता था, पर उनके घरेलू इलाज से न कोई लाभ होना था, न आराम...। बाबा की पत्नी यानि कि मेरे पापा की वो दादी दर्द से दिन-रात तड़पती रहती थी। बाबा उन्हें बहुत मानते थे, सो जितना वो तड़पती थी, बाबा उससे ज़्यादा तड़प महसूस करते थे। अपनी पत्नी का दिन-रात का तड़पना उनसे किसी तरह बर्दाश्त नहीं होता था। वैद्य जी ने भी साफ़-साफ़ कह दिया था कि इस रोग में वे और कोई सहायता नहीं कर सकते। जितने दिन की ज़िन्दगी बाकी है, वे इसी तरह कष्ट में रहेंगी। दादी को इस असाध्य कष्ट से छुटकारा दिलाने का कोई उपाय उन्हें नहीं नज़र आ रहा था। कई दिन इसी ऊहापोह में बीत गए कि सहसा उन्हें क्या सूझा कि एक शाम अपनी पत्नी से बोले,"चलो, तुम्हें गंगा जी ले चलते हैं...। वहीं एक घाट है, जिसकी बहुत महिमा है। उसमें डुबकी लगाने से तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे...।"

भोली-भाली दादी को अपने पति के प्यार पर अटूट विश्वास था। इतने कष्ट में भी बाबा के कहने पर वे सुहागन के सम्पूर्ण शृंगार में सज-सँवर कर बाबा के साथ चल पड़ी। शाम के गहरे झुटपुटे में एक नाव वाले को सोने की गिन्नी के बदले खरीदते उन्हें कोई देर न लगी। गंगा की बीच धारा में पहुँच कर दादी भयभीत हुई तो बाबा ने प्यार से उन्हें गले लगाया और कहा, "इसी धारा में तुम्हारे कष्टों की मुक्ति है...इसमें डुबकी लगाओ, तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे...।" दादी ने उनके चरण-स्पर्श करके ‘सदा सुहागिन’ का आशीर्वाद लिया, बाबा के आदेशानुसार उनका हाथ थाम गंगा में उतर गई। बाबा ने उनको अन्तिम डुबकी लगवाते हुए उन्हें जलसमाधि दे दी।

उस शाम दादी तो शायद सारे कष्टों से मुक्त हो गई, पर बाबा जब तक ज़िन्दा रहे, सारी सुख-सुविधाओं का त्याग करके, मानो दादी के कष्टों को अपने भीतर महसूस करते, अपने ही घर में सन्यासी जीवन व्यतीत करते रहे। उनके जाने के बाद भी बरसों तक उनकी पीढ़ियाँ उन दोनो के इस प्यार से अभिभूत रही...।

आज भी जब कभी मुझे यह कहानी जैसी सुनी गई सत्य घटना याद आती है, मेरे मन से बेसाख़्ता एक आह-सी निकलती है...यह कैसा प्यार था...? आखिर इस प्यार को मैं नाम दूँ भी तो क्या...?

                                                       

 (चित्र गूगल से साभार )

Wednesday, April 6, 2016

रहिमन पानी राखिए...

विभिन्न न्यूज़ चैनल्स पर महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव लातूर में पानी की भयानक किल्लत देख कर मन भर आया। एक-एक बूँद पानी के लिए वहाँ लोग तरस रहे थे। ‘मरता क्या न करता’ वाले हिसाब से गन्दे...काई जमे तालाब से पानी लेकर पीने को मजबूर हैं वे लोग...। इस सूखे की मार झेलते जाने कितने किसानों ने आत्महत्या कर ली है। यह सब देख कर कुछ देर के लिए हमारा मन ज़रूर भर आता है, पर असल में हम करते क्या हैं? सूखा सिर्फ़ लातूर या उस जैसे देश के कई अन्य हिस्सों में ही नहीं पड़ा है, बल्कि हमारे भीतर भी संवेदना की नदी इस कदर सूख गई है कि किसी के आँखों की नमी हमारी आत्मा तक पहुँचती ही नहीं...। हम अपने शहर...अपने घरों के अन्दर सुख और सकून से जीते हुए उसे ही सारी दुनिया का सच माने रहते हैं...।
काश! हम ज़िन्दगी की ज़रूरतों से उपजे छोटे-छोटे सुख-दुःख को समझ पाते...और समझ पाते कि रोटी-कपड़ा-मकान से भी ज़्यादा ज़िन्दा रहने के लिए जिस चीज़ की ज़रूरत है, वो है-पानी...। हम अपने घर में पानी का इफ़रात इस्तेमाल करते हैं, लापरवाही से नलों को खुला छोड़ देते हैं...। सड़कों पर किसी सार्वजनिक नल के खुला होने या किसी पाइप लाइन के टूटे होने पर फ़ालतू बहता पानी हमें कभी भी अपनी चिन्ता या ज़िम्मेदारी का विषय नहीं लगता...। हम इन सबसे बेपरवाह अपनी ही दुनिया में मस्त रहते हैं...।
पर लातूर या उस जैसे अन्य जगहों को देख कर हमको अब भी सचेत नहीं हो जाना चाहिए...? पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुंध दोहन के रूप में अपनी अब तक की ग़लतियों के ऐसे भीषण परिणाम से क्या अब हमको सबक नहीं लेना चाहिए...? कितना अच्छा हो यदि हम अब भी इन सब से सीख लेकर सुधरने की शुरुआत पानी से ही करें...। अपनी ज़रूरत के हिसाब से ही उसे खर्च करें और यथासम्भव कोशिश करें कि हम उसकी एक बूँद भी बर्बाद नहीं होने देंगे।
ऐसा करके हम अपने ही बच्चों के उस भविष्य को सुरक्षित करेंगे जिनके लिए हम आज खून-पसीना बहा कर भौतिक सम्पदा इकठ्ठी करते हैं...। कल को कहीं ऐसा न हो कि हमारी जमा की गई भौतिक सम्पदा के ढेर पर बैठे...एक बूँद पानी को तरसते हमारे बच्चे भी ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून...’ को बेहद शिद्दत से महसूस करते हुए हमको कोस के रह जाएँ...। 

                                                         (चित्र गूगल से साभार )