प्यार भी बड़ी अजीब शै है। इसको करने और जताने का सबका अलग अन्दाज़ होता है। इसी अलग अन्दाज़ की एक सच्ची घटना बरसों पहले मेरे पापा ने हम लोगों को सुनाई थी। इस घटना को घटित हुए तो जैसे एक युग बीत ही गया हो, मुझे सुने हुए भी एक बहुत लम्बा अर्सा बीत चुका है, पर जाने क्यों मेरे जेहन में यह घटना ज्यों-की-त्यों आज भी बरकरार है।
मेरे पापा के खानदान में उनके एक दूर के रिश्ते के बाबा थे। उनकी पत्नी को कैन्सर हो गया था। उस समय इस बीमारी के लिए न तो कोई इलाज था, न कोई डॉक्टर...। हर तरह की बीमारी के लिए वैद्य का ही सहारा होता था, पर उनके घरेलू इलाज से न कोई लाभ होना था, न आराम...। बाबा की पत्नी यानि कि मेरे पापा की वो दादी दर्द से दिन-रात तड़पती रहती थी। बाबा उन्हें बहुत मानते थे, सो जितना वो तड़पती थी, बाबा उससे ज़्यादा तड़प महसूस करते थे। अपनी पत्नी का दिन-रात का तड़पना उनसे किसी तरह बर्दाश्त नहीं होता था। वैद्य जी ने भी साफ़-साफ़ कह दिया था कि इस रोग में वे और कोई सहायता नहीं कर सकते। जितने दिन की ज़िन्दगी बाकी है, वे इसी तरह कष्ट में रहेंगी। दादी को इस असाध्य कष्ट से छुटकारा दिलाने का कोई उपाय उन्हें नहीं नज़र आ रहा था। कई दिन इसी ऊहापोह में बीत गए कि सहसा उन्हें क्या सूझा कि एक शाम अपनी पत्नी से बोले,"चलो, तुम्हें गंगा जी ले चलते हैं...। वहीं एक घाट है, जिसकी बहुत महिमा है। उसमें डुबकी लगाने से तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे...।"
भोली-भाली दादी को अपने पति के प्यार पर अटूट विश्वास था। इतने कष्ट में भी बाबा के कहने पर वे सुहागन के सम्पूर्ण शृंगार में सज-सँवर कर बाबा के साथ चल पड़ी। शाम के गहरे झुटपुटे में एक नाव वाले को सोने की गिन्नी के बदले खरीदते उन्हें कोई देर न लगी। गंगा की बीच धारा में पहुँच कर दादी भयभीत हुई तो बाबा ने प्यार से उन्हें गले लगाया और कहा, "इसी धारा में तुम्हारे कष्टों की मुक्ति है...इसमें डुबकी लगाओ, तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे...।" दादी ने उनके चरण-स्पर्श करके ‘सदा सुहागिन’ का आशीर्वाद लिया, बाबा के आदेशानुसार उनका हाथ थाम गंगा में उतर गई। बाबा ने उनको अन्तिम डुबकी लगवाते हुए उन्हें जलसमाधि दे दी।
उस शाम दादी तो शायद सारे कष्टों से मुक्त हो गई, पर बाबा जब तक ज़िन्दा रहे, सारी सुख-सुविधाओं का त्याग करके, मानो दादी के कष्टों को अपने भीतर महसूस करते, अपने ही घर में सन्यासी जीवन व्यतीत करते रहे। उनके जाने के बाद भी बरसों तक उनकी पीढ़ियाँ उन दोनो के इस प्यार से अभिभूत रही...।
आज भी जब कभी मुझे यह कहानी जैसी सुनी गई सत्य घटना याद आती है, मेरे मन से बेसाख़्ता एक आह-सी निकलती है...यह कैसा प्यार था...? आखिर इस प्यार को मैं नाम दूँ भी तो क्या...?
(चित्र गूगल से साभार )
मेरे पापा के खानदान में उनके एक दूर के रिश्ते के बाबा थे। उनकी पत्नी को कैन्सर हो गया था। उस समय इस बीमारी के लिए न तो कोई इलाज था, न कोई डॉक्टर...। हर तरह की बीमारी के लिए वैद्य का ही सहारा होता था, पर उनके घरेलू इलाज से न कोई लाभ होना था, न आराम...। बाबा की पत्नी यानि कि मेरे पापा की वो दादी दर्द से दिन-रात तड़पती रहती थी। बाबा उन्हें बहुत मानते थे, सो जितना वो तड़पती थी, बाबा उससे ज़्यादा तड़प महसूस करते थे। अपनी पत्नी का दिन-रात का तड़पना उनसे किसी तरह बर्दाश्त नहीं होता था। वैद्य जी ने भी साफ़-साफ़ कह दिया था कि इस रोग में वे और कोई सहायता नहीं कर सकते। जितने दिन की ज़िन्दगी बाकी है, वे इसी तरह कष्ट में रहेंगी। दादी को इस असाध्य कष्ट से छुटकारा दिलाने का कोई उपाय उन्हें नहीं नज़र आ रहा था। कई दिन इसी ऊहापोह में बीत गए कि सहसा उन्हें क्या सूझा कि एक शाम अपनी पत्नी से बोले,"चलो, तुम्हें गंगा जी ले चलते हैं...। वहीं एक घाट है, जिसकी बहुत महिमा है। उसमें डुबकी लगाने से तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे...।"
भोली-भाली दादी को अपने पति के प्यार पर अटूट विश्वास था। इतने कष्ट में भी बाबा के कहने पर वे सुहागन के सम्पूर्ण शृंगार में सज-सँवर कर बाबा के साथ चल पड़ी। शाम के गहरे झुटपुटे में एक नाव वाले को सोने की गिन्नी के बदले खरीदते उन्हें कोई देर न लगी। गंगा की बीच धारा में पहुँच कर दादी भयभीत हुई तो बाबा ने प्यार से उन्हें गले लगाया और कहा, "इसी धारा में तुम्हारे कष्टों की मुक्ति है...इसमें डुबकी लगाओ, तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे...।" दादी ने उनके चरण-स्पर्श करके ‘सदा सुहागिन’ का आशीर्वाद लिया, बाबा के आदेशानुसार उनका हाथ थाम गंगा में उतर गई। बाबा ने उनको अन्तिम डुबकी लगवाते हुए उन्हें जलसमाधि दे दी।
उस शाम दादी तो शायद सारे कष्टों से मुक्त हो गई, पर बाबा जब तक ज़िन्दा रहे, सारी सुख-सुविधाओं का त्याग करके, मानो दादी के कष्टों को अपने भीतर महसूस करते, अपने ही घर में सन्यासी जीवन व्यतीत करते रहे। उनके जाने के बाद भी बरसों तक उनकी पीढ़ियाँ उन दोनो के इस प्यार से अभिभूत रही...।
आज भी जब कभी मुझे यह कहानी जैसी सुनी गई सत्य घटना याद आती है, मेरे मन से बेसाख़्ता एक आह-सी निकलती है...यह कैसा प्यार था...? आखिर इस प्यार को मैं नाम दूँ भी तो क्या...?
(चित्र गूगल से साभार )