सदियों तक
गुंजित होती रहेगी
बाबा केदारनाथ की धरती पर
सहसा ही रच गई प्रलय-कथा
सहसा ही रच गई प्रलय-कथा
इतिहास के पन्नों पर
दर्ज़ रहेंगी कुछ चीखें
अपनों को तलाशती आँखें
माँ...दादी...नानी को पुकारती आवाज़ें
लाशों का अम्बार
और धूँ-धूँ करती चिताओं पर
जलती मानवीय संवेदनाएँ
सरकारी दफ़्तरों में
रोज़ घटते-बढ़ते हुए
लापता लोगों के आँकड़े
न जाने कितने घर सूने हो गए
और उस सूने घर की चौखट पर बैठे बूढ़े को
अब भी इंतज़ार है
अपने परिवार के उन सत्रह लोगों के लौट आने का
पर, उसे नहीं पता
लावारिस लाशों के ढेर से कोई आवाज़ नहीं आती
देना चाहे तो भी नहीं
ऐसे न जाने कितने बूढ़े
दहलीज़ पर बैठे हैं
और शायद बैठे ही रहेंगे
सदियों तक
धुँधली आँखें
थके हाथ-पाँव
बुढ़ापे की लाठी न जाने कौन ले गया?
वे उठें तो कैसे
वे बच्चे
अब दहलीज़ पर नहीं दिखते
शायद भीतर के अन्धेरे ने उन्हें जकड़ रखा है
एक खामोश आवाज़
भयानक सन्नाटा
पत्थरों से सिर फोड़ती एक सिसकन
नन्हीं...मासूम हथेलियों पर पानी की कुछ बूँदें
इन बूँदों को नज़रअन्दाज़ करते लोग नहीं जानते
जिस दिन यह नन्हीं हथेली भर जाएगी
प्रकृति लिखेगी एक नई प्रलय-कथा
फटते हुए बादलों पर
इन्सानी फ़ितरत की तरह बदलते मौसम पर
लाशों के अम्बार पर
पालथी मार कर बैठे पत्थरों पर
घाटियों का सन्नाटा टूटेगा
और एक बार फिर
एक और प्रलय-कथा
इतिहास के पन्नों पर दफ़न हो जाएगी
सदियों के लिए...।