कविता
एक टुकडा सपना
पत्थरों के इस शहर में
मांगा था आदमी ने
ज़िन्दगी से
रुपहले सपनों का एक टुकड़ा
पर,
ज़िन्दगी अपने ही शहर में
खुद एक सपना थी
जहाँ नींद में डूबे आदमी को
खुद अपनी ख़बर नहीं थी
और वह
अनजाने ही
अख़बार के काले अक्षरों में सिमटा
एक सुर्ख ख़बर था
इन ख़बरों ने
उसकी ज़िन्दगी को निगल लिया था
अपने अजगरी जबड़े से
सपनों के इस शहर में
अब दफ़न हैं- सपने
पर आदमी
नींद में अब भी ढूंढ रहा है
उन सपनों को
जो खुशियों के गीत गुनगुनाते वक़्त
स्पर्शित कर गए थे मन
आदमी,
उन स्पर्शों की महक को
अब भी महसूसता है
इसीलिए-
ज़िन्दगी से सपनों की बात करता है
पर,
वह नहीं जानता
कि अब
ज़िन्दगी सपने नहीं बाँटती
वह तो अपने व्यापार में
घाटा खाकर
खुद उधार माँग रही है
रुपहले सपनों का एक टुकड़ा
सपने-
इस शहर में ढेरों हैं
पर,
उससे ज़्यादा हैं वे पत्थर
जो अपने सपनों को पोषित करने के लिए
तोड़ते हैं
दूसरों के सपने
तो दोस्तों,
भूल जाओ सपनों की बात
क्योंकि,
अब नींद पर
ज़िन्दगी नहीं
मौत भारी है.....।
(सभी चित्र गूगल से साभार)